मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 8 (ख ) मालदेव और मेवाड़ की जनता

मालदेव और मेवाड़ की जनता

अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का प्रभार जिस मालदेव को सौंपा था वह भी नई परिस्थितियों पर बड़ी सूक्ष्मता से दृष्टिपात कर रहा था। महाराणा हमीर सिंह के उत्थान से वह भयभीत रहने लगा था। उसे पता था कि उसके शासन को स्थानीय प्रजा जन स्वीकार नहीं करते और वह अपना शासक अभी भी महाराणा हमीर सिंह को ही स्वीकार करते हैं। सचमुच अपने आप को शासक घोषित कर लेना अलग बात है और प्रजा का शासक हो जाना नितांत अलग है। हमारे देश की प्रजा की यह विशेषता रही है कि इसने पुरा काल से ही वेदनिंदक , ईशनिंदक, धर्म निंदक, संस्कृति भक्षक और प्रजाहितों के विरुद्ध आचरण व्यवहार करने वाले शासक को कभी अपना शासक नहीं माना।

मालदेव यह भली प्रकार जानता था कि वह मेवाड़ की जनता की भावनाओं के अनुरूप शासन नहीं कर रहा है। फलस्वरूप जनता उसे अपना शासक नहीं मानती।

तुगलक ने भेजी विशाल सेना

दिल्ली की तत्कालीन तुगलक सल्तनत के सुल्तान ने चित्तौड़ में अपने मालदेव की रक्षा के लिए बड़ी सेना भेजी। दिल्ली सल्तनत की इस सेना का सामना महाराणा हम्मीर सिंह और उनके सैनिकों ने बहुत ही वीरता के साथ किया। जब सुल्तानी सेना पराजित होने लगी तो हमारे वीर देशभक्त सैनिकों का साहस और भी बढ़ने लगा। अपने देश की स्वाधीनता और सम्मान के लिए आज भारत के वीर योद्धा अपना सर्वस्व समर्पित करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर युद्धरत थे। यह एक अनोखा युद्ध था, जिसमें प्रजा ही सेना बन गई थी। प्रजा में से चुन – चुनकर सैनिकों को तैयार नहीं किया गया था अपितु सभी देश के सम्मान के लिए सहर्ष युद्ध के सिपाही बन गए थे। कर्नल टॉड ने इस युद्ध के बारे में लिखा है कि :-“हमीर की योजना के फलस्वरूप जो भूमि हरे भरे खेतों से शोभायमान रहा करती थी वह जंगलों के रूप में परिवर्तित हो गई। समस्त रास्ते अरक्षित हो गए और वाणिज्य व्यवसाय के स्थान सूने मैदानों के रूप में दिखाई देने लगे।”
महाराणा हमीर सिंह अपने युद्ध का संचालन कैलवाड़ा से ही कर रहे थे। अपनी सारी प्रजा को अपने साथ सेना के रूप में देखकर महाराणा अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने अपनी इस सेना की रक्षा के लिए कैलवाड़ा की किलेबंदी की। प्रजा को किसी भी प्रकार का कष्ट ना हो इसलिए पेयजल की व्यवस्था कराते हुए इस किले के भीतर एक तालाब का भी निर्माण करवाया। महाराणा के साथ इस समय भील लोग भी आ मिले थे। इन लोगों ने भी अलाउद्दीन खिलजी के अमानवीय अत्याचारों का सामना किया था। फलस्वरूप आज जब उनका अपना महाराणा उनके बीच था तो वे पुराने घावों को स्मरण कर अपने महाराणा के साथ आ मिले। मेवाड़ के लोगों के लिए महाराणा हमीर की उपस्थिति और उसका यहां प्रकट होना बहुत बड़े सौभाग्य की बात थी । उस समय मेवाड़ के लोगों में यह बात फैल गई थी कि अब राणा वंश का कोई उत्तराधिकारी जीवित नहीं है। मेवाड़ के बहुत कम लोग यह जानते थे कि राणा रतन सिंह के पश्चात उनका पुत्र अजय सिंह कहीं जीवित है और राणा हमीर सिंह के बारे में तो संभवत: किसी को भी यह ज्ञान नहीं था कि वह भी कहीं जीवित है।

मालदेव ने चली एक चाल

उधर मालदेव ने महाराणा की योजनाओं को किसी न किसी प्रकार से निष्फल करने के लिए एक नई चाल चली। उसने अपनी विवाह योग्य पुत्री के विवाह का प्रस्ताव महाराणा हमीर सिंह के पास पहुंचवाया। वास्तविकता यह थी कि मालदेव की वह पुत्री विवाहिता थी ,परंतु उस समय विधवा होने के कारण पिता के यहां पर रह रही थी। इस प्रकार के विवाह का प्रचलन उस समय नहीं था। मालदेव की सोच थी कि महाराणा यदि इस प्रस्ताव को महल के भीतर आकर अस्वीकार करेगा तो उसको यहां घेरा जा सकता है। उसकी इस प्रकार की घृणित सोच पर महाराणा हमीर सिंह के मंत्रियों ने संदेह व्यक्त किया। उन्होंने अपने महाराणा को इस प्रस्ताव को न मानने का अनुरोध भी किया। इसके उपरांत भी महाराणा हमीर ने अपने मंत्रियों के परामर्श को ठुकरा दिया और उनसे स्पष्ट कह दिया कि वह मालदेव के इस प्रस्ताव को स्वीकार करता है। इसके पश्चात महाराणा ने चित्तौड़ के राजभवन की ओर प्रस्थान किया।  

वीर पुरुष होता वही, रखे वचनों की लाज।
पीछे कदम रखता नहीं, तोपों की हो गाज।।

              महाराणा हम्मीर ने अपने शुभचिंतक मंत्रियों को यह स्पष्ट कर दिया था कि मालदेव हमारे पूर्वजों को अपमानित करने वाले अलाउद्दीन खिलजी का प्रतिनिधि है। उसके बारे में यह सब जानते हुए भी मैं अपने किसी विशेष प्रयोजन को मस्तिष्क में रखकर चित्तौड़गढ़ के राज भवन में प्रवेश करना उचित मानता हूं। हमारा और मालदेव का एक साथ चलना पूर्णतया असंभव है, परंतु इसके उपरांत भी नई संभावनाओं को खोजने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिए। मैं यह भी जानता हूं कि मालदेव ने मेरे पास इस प्रस्ताव को भेजकर निश्चय ही कोई षड्यंत्र मेरे विरुद्ध रचा होगा। ऐसी परिस्थितियों में हमें किसी भी प्रकार की परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए, भयभीत होने या निराश होने की आवश्यकता नहीं है । भयंकर काली रात के बीच से होकर ही उजाला आता है। कठिनाइयों का स्वागत करना चाहिए और हंस-हंसकर विपत्तियों का सामना करना शूरवीरों का कार्य होता है। महान सफलताओं की प्राप्ति भीषण कठिनाइयों को पार करने के पश्चात होती है। इस सत्य के आधार पर राजा मालदेव के प्रस्ताव को स्वीकार करना ही उचित है। महाराणा के इस प्रकार के वचनों से उनके सभी दरबारी, मंत्री, सामंत आदि सहमत हो गए। मालदेव की पुत्री का नाम सोंगारी था। 

अपने ही भवन में पहुंचे वर बनकर

इन सब बातों को समझकर महाराणा हमीर सिंह अपने ही पूर्वजों द्वारा निर्मित चित्तौड़गढ़ के राजभवन की ओर एक वर के रूप में प्रस्थान कर देते हैं। मालदेव ने भी विवाह की तिथि निश्चित करा दी थी। यह समय का ही फेर था या कहिए कि एक अद्भुत संयोग था कि जिस राजभवन से महाराणा हमीर सिंह को वर यात्रा लेकर निकलना था, आज उसी राजभवन में वह वर यात्रा लेकर प्रवेश कर रहे थे। जब महाराणा अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित इस राजभवन में पहुंचे तो उन्होंने इसे बहुत ही सूक्ष्मता से देखने का प्रयास किया। उनके मन में कई प्रकार के विचार उमड़ घुमड़ रहे थे। उन सबको वह बड़े संयम के साथ पीछे धकेल कर अपने चेहरे पर नहीं आने दे रहे थे।
महाराणा इस बात पर फिर आशंकित थे कि उन्हें राजभवन के भीतर कहीं पर भी विवाह के आयोजन की तैयारियां होती दिखाई नहीं दीं। मालदेव ने भी अपने पांचों पुत्रों को उनकी वर यात्रा अर्थात बारात का स्वागत करने के लिए भेज दिया था, अन्य किसी प्रकार से उनका स्वागत सत्कार नहीं किया गया।
राज भवन में मालदेव ने अपने बेटे बनवीर के साथ महाराणा हमीर सिंह और उनके वर यात्रियों का स्वागत किया। इसी समय मालदेव ने बिना किसी प्रकार की औपचारिकता को निभाए अपनी पुत्री को बुलाया और महाराणा के समक्ष उसे खड़ा कर दिया। राणा हमीर सिंह ने बड़ी विनम्रता से मालदेव की पुत्री का हाथ थाम लिया। इसके बाद दोनों की गांठ बांधी गई और इसी के साथ विवाह संपन्न हो गया। तब वहां की अपनी परंपराओं के अनुसार राणा हमीर सिंह और नववधू को एकांत में भेज दिया गया।

महाराणा को आ गया रहस्य समझ में

जब मालदेव की पुत्री एकांत में राणा हमीर सिंह से मिली तो उसने उन्हें सब कुछ सच-सच बता दिया कि वह एक विधवा है, परंतु इतनी छोटी अवस्था में वह विधवा हो गई थी कि उसे विवाह और पति के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी। उसे यह भी ज्ञात नहीं है कि वह कब विधवा हो गई थी। हमीर सिंह ने अपनी जीवनसंगिनी की इन बातों को बड़ी गंभीरता से सुना और उसके प्रति पूर्ण आत्मीयता प्रकट करते हुए स्पष्ट कर दिया कि अब चाहे जो कुछ हो गया हो पर वह अब उसकी पत्नी है और वह आजीवन उसके प्रति पति के दायित्वों का निर्वाह करता रहेगा। पर आपको भी एक अच्छी पत्नी की भूमिका निभाते हुए मुझे चित्तौड़ को पुनः प्राप्त कराने में सहायता करनी होगी। अपने प्रति ऐसे आत्मीय भाव को प्रकट करते महाराणा हमीर सिंह के शब्दों पर विश्वास करते हुए रानी की आंखों में आंसू आ गए। उसने सजल नेत्रों से हमीर सिंह के प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त की।
रानी ने महाराणा को बता दिया कि अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह दहेज में जलंधर नाम के सरदार को मांग ले।

जब उस राजभवन से विदा के क्षण आये तो महाराणा हमीर सिंह ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार मालदेव से उसके मंत्री जलंधर को मांग लिया। मालदेव ने भी बिना आगा पीछा सोचे जलंधर को महाराणा हमीर सिंह को दहेज में दे दिया।
पश्चात महाराणा अपनी पत्नी के साथ कैलवाड़ा लौट आए।
इसी रानी से महाराणा हमीर सिंह को क्षेत्र सिंह नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं कि अपने इस नाती के आने पर मालदेव ने भी प्रसन्न होकर अपने राज्य के पहाड़ी क्षेत्र को हमीर सिंह को दे दिया था। निश्चय ही इतने बड़े क्षेत्र को प्राप्त कर राणा हमीर सिंह की शक्ति में वृद्धि हुई। कुछ काल पश्चात रानी अपने पुत्र सहित चित्तौड़ गई। चित्तौड़ जाकर रानी ने देखा कि उसके पिता मालदेव उस समय मादरिया के भील लोगों का दमन करने के लिए गया हुआ था।

चित्तौड़ लेने का आ गया उचित अवसर

यह एक अच्छा अवसर था। रानी ने अवसर की अनुकूलता को देखकर अपने पति और चित्तौड़ के वास्तविक स्वामी महाराणा हम्मीर सिंह के पास गुप्त रूप से सूचना भिजवा दी कि वह अब अवसर की अनुकूलता को देखते हुए चित्तौड़ को प्राप्त कर सकते हैं। महाराणा हमीर सिंह पहले से ही किसी उचित और अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा में थे। अपनी धर्म पत्नी के इस प्रकार के संदेश को पाकर वह अत्यंत प्रसन्न हुए और यथाशीघ्र उन्होंने चित्तौड़ पर चढ़ाई करने का निर्णय ले लिया। महाराणा हमीर सिंह का इस समय चित्तौड़ में कोई विशेष विरोध नहीं हुआ और उन्होंने बहुत ही हल्के से विरोध के साथ अपने पूर्वजों की राजधानी चित्तौड़ को प्राप्त कर लिया। एक गौरव अपने गौरव के पास लौट आया था। गौरव का गौरव के साथ मिलन का यह अद्भुत संयोग था। जिस पर दसों दिशाओं ने फूल बरसा कर महाराणा का अपने राजभवन में प्रवेश आज किसी वर की भांति नहीं किया था अपितु राजभवन और संपूर्ण मेवाड़ के स्वामी के रूप में किया। महाराणा ने भी अपने पूर्वजों को नमन किया और प्रभु का धन्यवाद ज्ञापित कर एक शासक के रूप में कार्य करना आरंभ किया।
जब मालदेव चित्तौड़गढ़ लौटा तो उसे वस्तु स्थिति को देखकर बहुत बड़ा धक्का लगा। वह एक दुर्बल व्यक्तित्व का स्वामी था। परिस्थितियों को समझ चुका था। फलस्वरूप उसने महाराणा से किसी भी प्रकार का प्रतिरोध नहीं किया और दुम दबाकर दिल्ली की ओर भाग गया। उसको पता था कि यदि अब उसने किसी भी प्रकार से महाराणा का विरोध किया तो उसका परिणाम क्या होगा ?
इस घटना के बारे में कई इतिहासकार अलग-अलग तिथियों का उल्लेख करते हैं। 1321ई0 और 1326 ई0 के बारे में अलग-अलग उल्लेख मिलते हैं। हमारा मानना है कि यह घटना 1327 – 28 ई0 की रही होगी। इस घटना के पश्चात उस समय के दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की। यह घटना 1335 ईस्वी के लगभग की है। इस युद्ध को इतिहास में सिंगोली का युद्ध कहा जाता है। राणा हमीर सिंह ने गोरिल्ला युद्ध का प्रयोग करते हुए तुगलक पर हमला किया और बड़ी संख्या में मुस्लिम सैनिकों का संहार किया। इसी युद्ध में मालदेव भी मारा गया।

मोहम्मद तुगलक को रखा जेल में

महाराणा हमीर सिंह ने न केवल चित्तौड़ की रक्षा की अपितु अपनी वीरता और पराक्रम का सिक्का भी जमा दिया। उन्होंने मोहम्मद बिन तुगलक को लगभग 6 महीने (कर्नल टॉड ने इसे तीन माह लिखा है ) कैद करके रखा था। इस प्रकार उस समय दिल्ली बिना सुल्तान के काम करती रही थी। इतिहास का यह एक ऐसा गौरवशाली और रोमांचकारी तथ्य है जिस पर प्रत्येक राष्ट्रवादी भारतीय को गर्व करने का पूर्ण अधिकार है।
हमारे एक शिवाजी महाराज को छल बल से औरंगजेब ने अपनी जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिया था, जिसे इतिहास में बहुत बार सुना सुनाया जाता है। इस घटना को ऐसे बताया जाता है कि जैसे औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को कैद करके बहुत बड़ा काम किया था। पर अपनी वीरता और पराक्रम से दिल्ली के बादशाह को अपनी जेल में रखने का गौरवपूर्ण कार्य करने वाले महाराणा हमीर सिंह के इस महान रोमांचकारी कृत्य को हमें नहीं बताया जाता।
हिंदू वीरता के समक्ष अपमानित होकर बादशाह लज्जित भाव से महाराणा की जेल से मुक्त हुआ था। बताया जाता है कि उस समय बादशाह ने एक सौ हाथी और 50 लाख अपनी मुक्ति की एवज में महाराणा को प्रदान किए थे। क्या ही अच्छा होता कि उस समय राणा हमीर सिंह को अन्य हिंदू शक्तियां भी साथ देती और दिल्ली को स्थाई रूप से अपने अधीन कर लेती। राणा हमीर सिंह ने इसके पश्चात मालदेव के लड़के बलवीर को नीमच जीरण, रतनपुर और केवड़ा का क्षेत्र प्रदान कर दिया था। उसको बता दिया गया था कि इससे होने वाली आय से वह अपने परिवार का पालन पोषण करे। महाराणा की इस प्रकार की उदारता को देखकर बनवीर राणा का भक्त बन गया था। राणा ने अपने जीवन काल में मारवाड़, जयपुर ,बूंदी, ग्वालियर, चंदेरी रायसेन, सीकरी, कालपी तथा आबू के राजाओं को भी अपने अधीन कर फिर से एक शक्तिशाली मेवाड़ की स्थापना की।
महाराणा कुंभा के द्वारा स्थापित किए गए कीर्ति स्तंभ में महाराणा हमीर सिंह को विषम घाटी पंचानन अर्थात संकटकाल में सिंह के समान की उपाधि से विभूषित किया गया है। डॉ ओझा के अनुसार 1329 में महाराणा हमीर सिंह ने किले के भीतर अन्नपूर्णा मंदिर बनवाया था जो स्वर्ण कलश से युक्त था। यहीं पर उसने एक सरोवर की स्थापना कराई थी।
अधिकांश इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि इस वीर महाराणा का देहांत 1364 ईस्वी में हो गया था।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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