मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 7 ( क ) राजा अजय सिंह ( 1303 – 1326 ई.)

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राजा अजय सिंह ( 1303 – 1326 ई.)

मेवाड़ की भूमि की महानता इसके बलिदानों में है। यही कारण है कि भारत में जब बलिदानों की बात चलती है तो मेवाड़ का नाम सबसे पहले लिया जाता है। भारत की वीर परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने में सचमुच मेवाड़ की वीरभूमि का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अभी तक हम इस वीर भूमि के द्वारा दिए गए अगणित बलिदानों के बारे में बहुत कुछ वर्णन कर चुके हैं। अब आते हैं राणा रतन सिंह के पुत्र राणा अजय सिंह के शासनकाल पर। इसमें भी इस वंश के तत्कालीन कर्णधारों ने मां भारती के सम्मान के लिए अपना संघर्ष पूर्ववत जारी रखा।
राणा रतन सिंह अपने देहांत के पश्चात अपने पुत्र अजय सिंह को शासन न देकर शासन की बागडोर अपने पुत्र अरि सिंह के बेटे हमीर सिंह को देना चाहते थे।
हम पूर्व में ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि चित्तौड़ के लिए 29 अगस्त 1303 ई0 का दिन सचमुच बहुत ही अधिक दुर्भाग्य पूर्ण था। इस दिन चित्तौड़ हमारे वीर योद्धाओं के हाथों से निकलकर विदेशी आक्रमणकारी अलाउद्दीन खिलजी जैसे क्रूर बादशाह के हाथों में चली गई थी। सचमुच जिस परिश्रम और पराक्रम से चित्तौड़ के स्वाभिमान की रक्षा राणा वंश के शासकों ने की थी और मां भारती के सम्मान के लिए समय – समय पर अपना सर्वस्व समर्पित करने में किसी प्रकार की असावधानी का प्रदर्शन नहीं किया था, चित्तौड़ का इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी के हाथों में चले जाना उनके उस सारे परिश्रम और पराक्रम पर पानी फेर गया था। यही कारण था कि चित्तौड़ को लेने के लिए भीतर ही भीतर फिर संघर्ष आरंभ हो गया। संघर्ष को रुकना नहीं था। झुकना नहीं था। थमना नहीं था। थकना नहीं था। उसे निरंतर बने रहना था । अपनी उपस्थिति का आभास शत्रु को कराते रहना था । यह तब और भी अधिक आवश्यक हो गया था जब मेवाड़ की जनता अपने राणा के साथ थी और प्रत्येक प्रकार की विपत्ति को झेलकर भी चित्तौड़ को लेने के लिए कृत संकल्प थी।

संकल्प लिए जनता खड़ी रहें राणा के संग।
मानस ऐसा देखकर, शत्रु रह गया दंग।।

इस संकल्प की पूर्ति के लिए उस समय मेवाड़ के राणा रतन सिंह का पुत्र राणा अजय सिंह ही एकमात्र आशा की किरण था। राणा अजय सिंह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात केलवाड़ा के पहाड़ी क्षेत्र में रहकर अपना समय व्यतीत कर रहा था। उसे राणा रतन सिंह उस समय किले से सुरक्षित रूप में बाहर निकालने में सफल हो गए थे । अब मेवाड़ के इस नये राणा की योजना केवल यह थी कि किसी प्रकार चित्तौड़ को फिर से लिया जाए ? उस समय राणा चारों ओर से संकट में घिरा हुआ था। उसे संकटों से बाहर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा था। सारे मेवाड़ में बार-बार के युद्ध होने से नवयुवकों की भी कमी हो गई थी जिससे नई सेना भी तैयार नहीं की जा सकती थी । अब तो स्थिति यह भी बन गई थी कि कोई खजाना भी अपने हाथ में नहीं था। यहां तक कि सिर छुपाने के लिए कोई आसरा भी नहीं था। इस सबके उपरांत भी उसके पास अपना आत्मबल था, आत्मविश्वास था, आत्म गौरव था और आत्मसम्मान था, जो उसे अकेले में भी अकेलेपन का आभास नहीं होने दे रहा था। वह अपनी इसी आंतरिक दिव्यता के कारण जीवित था। उसे विश्वास था कि सवेरा अवश्य होगा और वह अपने लक्ष्य में सफल भी होगा। अंधड़ और तूफान में व्यक्ति की आत्मचेतना ही उसका सबसे बड़ा संबल होती है।

संबल आत्मबल बने जब चढ़ता तूफान।
धीरज संग सम्मान से, काट देय इंसान।।

अजय सिंह अपने पिता की इस बात से पूर्णतया परिचित थे कि वह अपनी मृत्यु के उपरांत अपने पौत्र हमीर सिंह को शासक बनाना चाहते थे। अपने पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए अजय सिंह अपने उस भतीजे हमीर सिंह को भी खोज रहे थे।
हमीर सिंह और उसके पिता अरि सिंह का भी बड़ा रोचक किस्सा है।

वीरांगना उर्मिला और राणा अरि सिंह

इस संबंध में कर्नल टाड ‘राजस्थान का इतिहास’ भाग – 1, नामक ग्रंथ में हमको बताते हैं कि :- “एक बार राणा भीम सिंह का बड़ा लड़का अरि सिंह अपने कुछ सरदारों के साथ अंदवा नामक जंगल में शिकार खेलने गया। जंगल में जाकर एक जंगली सूअर को अरि सिंह ने अपने बाण से मारना चाहा, परंतु संयोग की बात थी कि वह बाण सूअर को नहीं लगा और वह सूअर अपनी प्राण रक्षा के लिए भागकर एक ज्वार के खेत में जा छिपा।
अरि सिंह और उनके साथियों को ज्वार के खेत में काम कर रही एक युवती भी देख रही थी। ( केलवाड़ा के पास स्थित उन्नाव गांव की चंदना चौहान राजपूत की बेटी उर्मिला) उस युवती ने बड़ी विनम्रता से अपने मचान से ही अरि सिंह और उनके साथियों से कहा कि आप थोड़ा रुकें। मैं आप का शिकार आपको लाकर देती हूं … ।
यह कहकर वह युवती अपने मचान से उतरी और उसने ज्वार का एक पेड़ उखाड़ कर उसे नुकीला बनाया और अपने मचान पर चढ़कर उसने उसे अपने धनुष में चढ़ाकर छिपे हुए सूअर को मारा, जिससे वह मर गया। तब वह युवती अपने मचान से पुनः उतरी और उसे घसीट कर अरि सिंह के पास लाकर पटक दिया। तत्पश्चात वह अपने मचान पर पुनः चली गई।”
इस घटना से हमारे देश की वीरांगनाओं के बारे में जानकारी मिलती है कि वे किसी भी दृष्टिकोण से पुरुषों से कम नहीं होती थीं। उन्हें युद्ध कला का पूरा ज्ञान था और युद्ध कला के साथ – साथ शिक्षा ग्रहण करने पर भी उन पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था। उनकी वीरता और पराक्रम को देखकर अच्छे-अच्छे लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे। यद्यपि नारी को ‘अबला’ कहा जाता है, परंतु हमने उसे ‘अबला’ कहकर भी सबला बनाने का हर अवसर उपलब्ध कराया था। इस वीरांगना नारी उर्मिला के इस प्रकार के पराक्रम को देखकर राणा अरि सिंह और उसके साथी दंग रह गए थे।

नारी अबला होत है, फिर भी बल की खान।
समय पड़े जौहर करे, अद्भुत इसकी शान।।

इस घटना के बारे में आगे लिखते हुए कर्नल टॉड हमें बताते हैं कि अपना इस प्रकार पराक्रम दिखाने वाली वह युवती मिट्टी के एक ढेले से अरि सिंह के घोड़े को गिरा देती है। हुआ यह कि अरि सिंह और उसके साथियों ने युवती के खेत से आगे बढ़कर एक नदी के किनारे बैठकर अपने खाने की सामग्री तैयार की। अरि सिंह ने कुछ दूरी पर ही अपना घोड़ा बांध दिया था। तभी अचानक एक मिट्टी का ढेला उस युवती के खेत की ओर से आया और अरिसिंह के घोड़े को जा लगा। जिसे लगते ही वह घोड़ा अचेत होकर गिर गया। अरि सिंह और उनके साथियों ने उस युवती के खेत की ओर देखा तो वह ढेले फेंक फेंककर पक्षियों को उड़ा रही थी। सभी समझ गए कि उस युवती के ढेले से ही अरि सिंह के घोड़े को चोट लगी है। युवती को जब यह अनुभूति हुई कि उससे कोई चूक हो गई है तो वह पुनः उन लोगों के पास आई और बड़ी निर्भीकता व सभ्यता से उनसे बातें करने लगी। बातों बातों में उसने वस्तुस्थिति को समझा और अपनी बात कहकर वह पुनः वहां से चली गई।

राणा मोहित हो गए ….

 राणा अरि सिंह ने पहली घटना को तो सहज रूप में लेकर भुला दिया था, पर इस बार की घटना राणा को भीतर तक झकझोर गई। इस बार राणा ने उस युवती को निकट से देख लिया था ,इसलिए उसका चित्र भी उसके मन मस्तिष्क में उतर गया था। उस युवती की वीरता के साथ-साथ उसके रूप सौंदर्य ने राणा को अपने जाल में फंसा लिया था।
अरि सिंह अपने साथियों के साथ उस समय तो चित्तौड़ चला आया परंतु उस वीरांगना की वीरता और विनम्रता ने उसे भीतर ही भीतर उसका ही बना दिया था। अब राणा ने भी उदारता, सभ्यता व शालीनता का परिचय देते हुए यह निर्णय कर लिया कि वह उसी युवती के पिता से मिलकर उसका हाथ मांगेगा। 

हम इसे राणा की उदारता ,शालीनता और सभ्यता इसलिए कह रहे हैं कि उसने उस युवती से किसी तुर्क या मुग़ल की भांति बलात विवाह करने का निर्णय नहीं लिया और ना ही उसे उठाकर लाने की बात मन में बसाई। इसके विपरीत उसने विधिवत उसके पिता के पास जाकर उसका हाथ मांगने की युक्ति को ही उचित समझा। इसके विपरीत राणा ने मर्यादा का पालन करते हुए इस ओर बढ़ना उचित समझा।
अपनी इस योजना को क्रियान्वित करने के लिए एक दिन राणा उस युवती के पिता के पास पहुंच गया। जब उसने अपने मन की बात उस वृद्ध पिता से कही तो उसने अपनी पुत्री का हाथ उसे देने से इंकार कर दिया। उसी समय उस युवती की मां भी वहां पर उपस्थित थी। उसने हस्तक्षेप करते हुए अपने पति को इस बात के लिए तैयार किया कि यदि राणा स्वेच्छा से पुत्री का हाथ मांग रहे हैं तो आपको उनकी बात मान लेनी चाहिए। तब उस वृद्ध पिता ने अपने निर्णय को बदलते हुए अपनी पुत्री का हाथ राणा को देने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

राणा रतन सिंह और बालक हमीर

तब उस युवती का अरि सिंह के साथ विवाह हुआ। जिससे हमीर नाम का पुत्र रत्न राणा अरि सिंह को प्राप्त हुआ। जब यह हमीर नाम का बालक अपने बचपन की अठखेलियां कर रहा था तो उसके दादाजी अर्थात राणा रतन सिंह उसकी प्रत्येक गतिविधि को बड़ी सूक्ष्मता से देखते थे। उसकी चाल – ढाल, खेलने का स्वभाव और बातचीत करने का ढंग राणा रतन सिंह को बड़ा रुचिकर लगता था। इन सारी बातों को देखकर राणा रतन सिंह ने उस बालक के बचपन में ही यह निर्णय ले लिया था कि वह अपना उत्तराधिकारी इस बालक को ही बनाएंगे। बस, अपनी इसी मानसिकता व सोच के चलते राणा रतन सिंह ने अपने पुत्र अजय सिंह को एक दिन कह दिया था कि मेरा उत्तराधिकारी हमीर ही होगा।
कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि हमीर सिंह का जन्म राणा रतन सिंह के बाद हुआ था। पर वे उसकी मां की वीरता से प्रभावित थे , इसलिए उन्होंने उसके जन्म से पहले ही ऐसी घोषणा कर दी थी कि उनकी मृत्यु के पश्चात उर्मिला का पुत्र ही उनका उत्तराधिकारी होगा। यहां यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि राणा अजय सिंह के साथ घटित घटना लगभग 1326 ईस्वी की है। उस समय महाराणा अजय सिंह के भतीजे महाराणा हमीर सिंह की अवस्था 22 या 24 वर्ष के लगभग अवश्य रही होगी। तभी राणा अजय सिंह ने उसे अपना शासन भार सौंपा होगा। महाराणा हमीर सिंह की जन्म तिथि के बारे में अधिकांश इतिहासकार 1314 ईस्वी पर सहमत हैं। जिस समय महाराणा हमीर सिंह का राज्याभिषेक राणा अजय सिंह ने किया था, वह घटना 1326 ईस्वी की है। यदि यह तिथि सही मानी जाती है तो 12 वर्ष के बच्चे का महाराणा के द्वारा राज्याभिषेक नहीं किया गया होगा। यदि ऐसा किया जाता तो उसका उल्लेख भी अवश्य होता। कुल मिलाकर महाराणा हमीर सिंह का जन्म 1314 से पूर्व ही हुआ होगा। हमारा मानना है कि उसका जन्म या तो राणा रतन सिंह के सामने हो गया होगा ,जब वह एक – दो वर्ष का रहा होगा । यदि राणा रतन सिंह के द्वारा अपने पौत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाने संबंधी लिए गए निर्णय की बात सही है तो उन्होंने यह निर्णय तभी लिया होगा जब उन्होंने उस बच्चे को खेलते – कूदते देख लिया होगा और उसके बारे में यह अनुमान लगा लिया होगा कि वह निश्चय ही वीरांगना माता का वीर पुत्र है। जो इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं हैं, उनके इस तर्क के दृष्टिगत अधिक से अधिक इतना ही माना जा सकता है कि हमीर का जन्म महाराणा रतन सिंह और उनके पुत्र अरि सिंह के बलिदान के 4 – 6 महीने पश्चात अवश्य हो गया होगा। अधिकतम 1303 या 1304 में होना संभव है।अस्तु।
अब राणा अजय सिंह को न केवल पिता की उस बात का सम्मान रखने के लिए हमीर की आवश्यकता थी, अपितु अपनी स्वयं की रक्षा व मजबूती के लिए भी उसे हमीर जैसे सुयोग्य वीर योद्धा की आवश्यकता थी।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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