देवतुल्य भाई परमानन्द : अंग्रेज जिनके बोलने से थर्राते थे, जिनके लेखन से घबराते थे

भाई परमानन्द

भारत में ध्येयनिष्ठ लेखन की सुदीर्घ परम्परा रही है। इस परम्परा के वाहकों ने जीविकोपार्जन या बुद्धिविलास के लिए लेखन नहीं किया, अपितु वैचारिक आन्दोलन, देश-समाज के जागरण और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए उन्होंने कलम चलाई। भारतीय इतिहास में ऐसे ही एक महानायक हुए भाई परमानन्द। भाई परमानंद को जानने वाले उन्हें देवतातुल्य मानते हैं।

भाई जी की मानसिक-शारीरिक संरचना ही ऐसी थी कि वे हुतात्माओं और देवताओं की श्रेणी में अनायास ही दिखाई देते हैं। वे भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के मात्र सेनानी नहीं, वरन एक क्रान्तिदृष्टा और युगदृष्टा भी थे। उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति के लिए शस्त्र और शास्त्र दोनों का बखूबी इस्तेमाल किया। लक्ष्य सिद्धि के लिए शरीर, मन और बुद्धि के उपयोग के बारे में वे भली-भांति जानते थे।

अंग्रेजों से मुक्ति संघर्ष में भाई परमानन्द ने मन, ह्रदय और शरीर में अनोखा तालमेल बैठाया। इस लिहाज से वे एक योगी भी थे। लेखन हो या आन्दोलन या कि संघर्ष, भाई जी ने सदैव साहस के साथ पहल और प्रयोग किया। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व नई पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणास्पद और मार्गदर्शक रहा है। किन्तु यह सच है कि उनके व्यक्तित्व के कुछेक पहलुओं को ही जाना जा सका है। अनेक पहलू अभी भी अनजान हैं।

भाई परमानद के साथ अंग्रेजों ने बे-इन्तहां अत्याचार किए। वे अपने ही बंधु-बांधवों के अत्याचार के भी शिकार हुए। उनके साथ समकालीन बौद्धिकों और परवर्ती इतिहासकारों ने भी उपेक्षा और तिरस्कार का व्यवहार किया। उनके व्यक्तित्व को न सिर्फ उनकी कृतियों के साथ दफ़न करने की कवायद हुई, बल्कि उन्हें बार-बार सजा भी दी जाती रही। भाई परमानंद भी उन्हीं षड्यंत्रों के शिकार हुए जिन षड्यंत्रों के शिकार स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डॉ. हेडगेवार, लाला हरदयाल, सरदार भगतसिंह और सरदार करतारसिंह आदि देशभक्तों को होना पड़ा। किन्तु तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद भाई परमानन्द ने अपनी कृतियों के रूप में ऐसी आग जलाई जिसकी ज्वाला आज भी दिखाई देती है। उसकी चिंगारी रह-रहकर राष्ट्रभक्ति को प्रज्ज्वलित करती है। यह चिंगारी राष्ट्र की चेतना को उद्दीप्त और प्रदीप्त करने के लिए सदैव तैयार रहती है।

भाई परमानन्द ने ‘काले पानी की कारावास कहानी – “आपबीती”, ‘मेरा अंतिम आश्रय- ‘श्रीमद्भगवदगीता’, हिन्दू संगठन, यूरोप का इतिहास, पंजाब का इतिहास, स्वराज्य-संग्राम, Our Earliest Attempt at Independence, और ‘वीर वैरागी’ की रचना की है। कुछ वर्ष पूर्व इनका पुनर्प्रकाशन प्रभात प्रकाशन किया। कहा जाए तो प्रभात प्रकाशन ने राख में दबी आग को हवा देने का प्रयोजन किया है। ये सभी रचनाएँ कालजयी हैं। भाई परमानंद के भाषण, लेख और पुस्तकें भारतीय स्वाधीनता संग्राम में मील के पत्थर हैं। वे आज भी उतने ही प्रसांगिक हैं। उनकी पुस्तक ‘भारत का इतिहास’ को अंग्रेजी हुकूमत ने प्रतिबंधित कर दिया था। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी उस पुस्तक को प्रकाशित करने की कोशिश नहीं की।

दरअसल भाई परमानंद की पुस्तकें वर्तमान पीढ़ी के लिए पूर्णत: मौजूं हैं। इन पुस्तकों ने स्वतन्त्रता के छह दशक बाद भी उन्हीं सवालों को फिर से प्रासंगिक बना दिया है। ये पुस्तकें अपने पाठकों को एक तरफ गुलामी के दिनों और उन भयावह त्रासदियों को याद कराती हैं, वहीं आजादी के औचित्य ढूँढने को भी विवश करती हैं। कई रचनाएँ भारत के गौरवशाली इतिहास का साक्षात्कार कराती हैं, पाठक वर्तमान में प्राचीन तत्वों, तथ्यों और सवालों को देखने की कोशिश कर सकता है। आखिर क्या कारण है कि स्वदेशी सरकार में भी विदेशी व्यवस्थाएं और प्रक्रियाएं कार्यरत हैं? क्यों आजादी के पहले के गरीब आज भी गरीब हैं, क्यों तब के दलित आज भी दलित हैं? आखिर क्यों एक बड़ा बौद्धिक तबका जो यूरोपीय अधिनायकवाद का गौरवगान करता था आज भी भारत की बुद्धि पर सवार है! वह आज भी यूरोप की जी-हुजूरी में लगा है। भाई जी की पुस्तकें इन सवालों को कुरेदने में मदद करती हैं।

आज देश के अनेक बुद्धिजीवी भारत विरोधी हैं। वे अपने बौद्धिक कर्म से भारत विरोधी, देशद्रोही गतिविधियों को हवा दे रहे हैं। शस्त्र के आधार पर चल रही माओवादी, उग्रवादी और अलगाववादी संघर्ष को वैचारिक और बौद्धिक पनाह देने में मार्क्स-मैकाले की नाजायज संतानें पूर्ण मनोयोग से लगी हैं। वे आपकी हरकतों से बाज नहीं आ रहे। राजनीतिक स्थितियां भले ही उनके प्रतिकूल हो गई हैं, लेकिन वे हमेशा मौके की ताक में हैं। वे जमीन पर किए जाने वाले गुरिल्ला हमले की तरह गुरिल्ला बौद्धिक हमले की फिराक में हैं। भाई परमानंद की रचनाएँ राष्ट्रवादियों को, देशभक्तों और भारत केन्द्रित बौद्धिकों को न सिर्फ वैचारिक और बौद्धिक खुराक देती हैं, बल्कि उन भारत विद्रोही बुद्धिजीवियों को आँखें भी दिखाती हैं।

भाई परमानंद का व्यक्तित्व उनके कृतित्व पर आधारित। हालांकि उनके पूर्वजों ने भी उज्ज्वल कृतित्व की थाती छोड़ी थी, उनके वंशजों ने भी कीर्ति पताका फहराने में कोई कसर नहीं छोडी। इतिहास वर्तमान पीढ़ी के समक्ष गवाह के रूप में खड़ा है। हमें इस इतिहास को सर्वसुलभ कराना है। बदली हुई राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियां इसके लिए सर्वथा अनुकूल हैं। भाई परमानंद की दुर्लभ रचनाएँ सुलभ हों, इस दिशा में सरकार द्वारा असरकारी प्रयास किए जाने की जरूरत है। ये प्रयास राष्ट्रीय नवोत्थान को बल देंगे।

भाई परमानंद का व्यक्तित्व स्वाधीनता सेनानी के रूप में स्थापित है। इन रचनाओं और पुस्तकों के मार्फ़त आमजन उनके लेखकीय व्यक्तित्व से भी परिचित हो पाएंगे। ये पुस्तकें भारत के बौद्धिक जालिमों के षड्यंत्रों को भी बे-पर्दा करेंगी। ये पुस्तकें पढ़ने और सहेजने के काबिल हैं। कहना न होगा कि अंग्रेज, जिनके बोलने से थर्राते थे, जिनके लिखने से घबराते थे और जिनको देखकर काँप जाते थे, उन्हीं का लेखन आज सम्पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में पुन: हम सभी के बीच वरदान बनकर उमड़-घुमड़ रहा है। जिनके हाथों में ये वरदान आएगा, उन्हें प्रेरणा, उत्साह, स्वाभिमान और मानसिक आजादी से लबरेज कर जाएगा। 4 नवम्बर को भाई परमानन्द की जयंती है। इन पुस्तकों का अध्ययन, मनन और चिंतन ही भाई जी के प्रति सच्ची, सार्थक और सम्पूर्ण श्रद्धांजलि होगी।

-आचार्य भाई अशोकपाल सिंह

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