कश्मीर में फिर महाराजा हुए विराजमान

देर से ही सही पर स्वाधीनता के पश्चात जम्मू कश्मीर के इतिहास में महाराजा हरि सिंह को पहली बार सम्मान प्राप्त हुआ है। अब से पहले जिस महाराजा की यादों तक को गहरे गड्ढे में दबाने का काम सरकारी स्तर पर कांग्रेसी और जम्मू कश्मीर की उसी जैसी दूसरी पार्टियों के शासनकाल में होता रहा, उस पाप को मानो अब धो देने का संकल्प ले लिया गया है। इसी संकल्प को प्रकट करते हुए जम्मू कश्मीर की सरकार ने 23 सितंबर को महाराजा हरि सिंह की जयंती के अवसर पर सार्वजनिक अवकाश रखने का निर्णय लिया है।
सचमुच यह महाराजा हरि सिंह की देशभक्ति को सरकारी स्तर पर सम्मान दिए जाने का ऐतिहासिक और सराहनीय निर्णय है। जिस महाराजा ने अपने साहस का परिचय देते हुए अत्यंत विषम परिस्थितियों में जम्मू कश्मीर रियासत को भारत में रखने का निर्णय लिया, उनके अंतिम दिनों में उन्हें अपमानित करते हुए देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें जम्मू कश्मीर रियासत से निर्वासित करने का अपमानजनक निर्णय लिया था। इतना ही नहीं, उन्हें पद से हटाकर उनके बेटे को उनके जीते जी रियासत का राजा घोषित करवाने का पाप भी जवाहरलाल नेहरू ने किया था। नेहरू ने यह सब कुछ अपने मित्र शेख अब्दुल्लाह को प्रसन्न करने के लिए किया था। यह वही शेख अब्दुल्लाह था जिसके कारण कश्मीर “मुकम्मल आजादी” की मांग के नारों के जख्म झेलने और देखने के लिए अभिशप्त हुआ था। नेहरू ने महाराजा से अपनी पुरानी शत्रुता को प्रकट करते हुए उनके साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया था।
जम्मू कश्मीर के हिंदुओं के प्रति उपेक्षा का बर्ताव करने वाली कॉन्ग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस और पी0डी0पी0 जैसी पार्टियों ने संविधान के नाम पर शपथ लेकर भी अपने संवैधानिक दायित्वों,कार्यों अर्थात अपने राजधर्म का निर्वाह करने में अपनी दोरंगेपन की नीति का हमेशा प्रमाण दिया। जिस शेख अब्दुल्ला ने “अंग्रेजो ! भारत छोड़ो” की तर्ज पर कभी कश्मीर में “महाराजा ! कश्मीर छोड़ो” का नारा बुलंद किया था और इस नारे के साथ-साथ एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व भी किया था, उस व्यक्ति के लिए जम्मू कश्मीर में दो अवकाश घोषित करने की प्रथा प्रचलित की गई। यह वही शेख अब्दुल्लाह था जिसे कभी देश विरोधी गतिविधियों के कारण नेहरू को भी जेल में डालने के लिए विवश होना पड़ गया था। अपने मित्र को जेल की सलाखों के पीछे भेजने के लिए नेहरू को कितने अपमानजनक घूंट पीने पड़े होंगे ? यह तो वही जानते होंगे, पर उनके द्वारा शेख अब्दुल्ला को जेल में डालने के पश्चात यह स्पष्ट हो गया था कि महाराजा हरिसिंह का शेख अब्दुल्ला के प्रति दृष्टिकोण पूर्णतया सही था। अच्छा होता कि उस समय शेख अब्दुल्लाह को जेल में डालने के पश्चात महाराजा हरिसिंह के देशभक्ति पूर्ण दृष्टिकोण के प्रति भी नेहरू अपनी श्रद्धा व्यक्त कर देते।
युवा राजपूत सभा, ट्रांसपोर्ट यूनियन समेत कई संगठनों के प्रतिनिधियों और नेताओं से मुलाकात के बाद एल0जी0 मनोज सिन्हा ने महाराजा हरि सिंह के नाम पर एक दिन के सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की। सिन्हा ने कहा, ‘सरकार ने महाराजा हरि सिंह की जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने का फैसला लिया है। महाराजा हरि सिंह महान शिक्षाविद, प्रगतिशील चिंतक, समाज सुधारक और उच्च आदर्शों वाले व्यक्ति थे। सार्वजनिक अवकाश घोषित करना महाराजा की विरासत को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।’
महाराजा हरि सिंह के प्रति सरकार के द्वारा दिखाई गई इस प्रकार की कृतज्ञता से स्पष्ट होता है कि हमने इतिहास के कटु अनुभवों से कुछ शिक्षा लेने का मन बना लिया है। इसके साथ ही उन्हें ऐसा सम्मान देने से भारत की स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में आयोजित होने वाले “अमृत महोत्सव” का औचित्य भी कुछ समझ में आया है। जिन्होंने देश के साथ घात किया है या देश के साथ गद्दारी करने का काम करने के जो आदी रहे हैं , उनके नाम पर बने स्मारक और उनके नाम पर दी जाने वाली श्रद्धांजलि का क्रम अब बंद होना चाहिए। उनके गुण कीर्तन की परंपरा को भी अब पूर्णविराम दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त ऐसे लोगों को इतिहास के कालक्रम में वही स्थान दिया जाना चाहिए जिसके वह पात्र हैं। इसके विपरीत जिन लोगों ने देश के प्रति अपनी कृतज्ञता के भावों को प्रकट करने में कभी संकोच नहीं किया और जीवन में बड़ी-बड़ी बाजियां लगाकर भी देशभक्ति को प्राथमिकता दी, उनके प्रति कृतज्ञ राष्ट्र को अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने का पूर्ण अधिकार है। यदि आज भी हमारे इतिहास नायक और देशभक्त लोग उपेक्षित बने रहेंगे तो समझिए कि हमारी संप्रभुता और देश की अस्मिता दोनों खतरे में हैं।
यह बात अपनी जगह पूर्णतया सच है कि इस निर्णय के साथ ही जम्मू-कश्मीर में सियासत का एक लंबा चक्र पूरा हो गया है और इतिहास इस समय अपने आप पर मंत्रमुग्ध है। वह इस बात को लेकर आनंदित है कि आज उसे पहली बार सच को महिमामंडित करने का अवसर प्राप्त हुआ है। उसने अतीत के पृष्ठों के पाप को धो कर वर्तमान को उज्जवल कर भविष्य के लिए नई संभावनाओं और नई आशाओं को नए पंख लगाने का काम किया है।
जब 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य का पुनर्गठन किया गया और भारत के संविधान से आपत्तिजनक अनुच्छेद 370 को हटाया गया तो सरकार ने उसी समय साहसिक निर्णय लेते हुए शेख अब्दुल्लाह की जयंती और पुण्यतिथि पर होने वाली छुट्टी को निरस्त कर दिया था। माना कि किसी भी राज्य की सरकार को अपने किसी प्रांतीय महापुरुष के जन्मदिन और पुण्य तिथि पर अवकाश करने का अपना एक विशेष अधिकार होता है ,परंतु उस महापुरुष के लिए यह भी आवश्यक है कि वह राष्ट्र भक्त हो। उसने राष्ट्र के लिए कोई ना कोई ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया हो जिस पर संपूर्ण राष्ट्र नाज कर सकता हो। यदि उसने राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया है और उसका इतिहास देश के लिए घातक रहा है तो उसे यह सम्मान नहीं मिलना चाहिए। जहां तक शेख अब्दुल्लाह की बात है तो उनके बेटे और पोते ने उन्हीं के नक्शेकदम पर चलकर कश्मीर को धीरे-धीरे भारत से अलग करने का प्रयास किया। इस प्रकार से शेख की जयंती और पुण्यतिथि पर सार्वजनिक अवकाश करके फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला उन्हें कश्मीर का सबसे बड़ा नायक बनाकर स्थापित कर रहे थे। इसके साथ ही साथ इन तीनों के शासन काल में किस प्रकार हिंदुओं का उत्पीड़न कश्मीर में होता रहा और किस प्रकार उन्हें कश्मीर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया ? इसे भी इनकी एक महान उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था।
पूरा देश यह भली प्रकार जानता है कि देश देश का स्वाधीनता संग्राम चल रहा था तो उस समय महाराजा हरि सिंह और शेख अब्दुल्ला के बीच गहरे मतभेद थे। जब तक शेख अब्दुल्लाह कश्मीर का शासक नहीं बन गया तब तक नेहरू का भी पूरा वरदहस्त उसके सिर पर रहा। नेहरू महाराजा की उपेक्षा करते रहे और शेख अब्दुल्ला को प्रोत्साहित करते रहे। इतना ही नहीं उन्होंने महाराजा हरिसिंह के सामने उस समय यह शर्त भी रख दी थी कि उन्हें शासन शेख अब्दुल्ला के लिए छोड़ना होगा।
कुल मिलाकर महाराजा को उस समय लज्जित और अपमानित करने की हर सीमा को नेहरू ने लांघा था। नेहरू के पश्चात उनकी बेटी इंदिरा गांधी और नाती राजीव गांधी के शासन काल में भी महाराजा की उपेक्षा निरंतर होती रही अर्थात महाराजा की मृत्यु के उपरांत भी उनके प्रति उपेक्षा और तिरस्कार का व्यवहार कांग्रेस की ओर से निरंतर जारी रहा। कांग्रेस का यह “परिवार” जम्मू कश्मीर के “परिवार” के साथ मिलकर मुर्ग मुसल्लम करता रहा। देश को ऐसा आभास कराया गया कि देश में नेहरू गांधी परिवार है और जम्मू कश्मीर में केवल शेख परिवार है। ये दोनों ही जो चाहेंगे वही जम्मू कश्मीर का भाग्य होगा।
आज जम्मू कश्मीर संक्रमण काल से गुजर रहा है। धारा 370 और 35a को हटाने के पश्चात वहां पर परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। चीजें नई परिभाषा ले रही हैं और नए स्वरूप में उभरता हुआ कश्मीर हमारे सामने आ रहा है। इस समय कांग्रेस का परिवार भी अध:पतन की ओर जा रहा है और कश्मीर का शेख परिवार भी धीरे धीरे काल के गाल में समाहित होता जा रहा है। अब जम्मू कश्मीर विधानसभा सीटों के पुन:सीमांकन के पश्चात जो स्वरूप उभरकर के आएगा उससे वहां किसी हिंदू मुख्यमंत्री के बनने का मार्ग प्रशस्त होगा। वह व्यवस्था तेजी से मौत के मुंह में जा रही है जो 1947 के पश्चात नेहरू ने सीटों का सीमांकन करते हुए वहां मुस्लिम मुख्यमंत्री बनने की पूरी व्यवस्था कर दी थी। वहां का मुख्यमंत्री बनने के लिए मात्र 8 से 10,000 वोटों की सीट तैयार की गई। वास्तव में यह पूरे देश के साथ एक क्रूर उपहास था। जिसे देश लगभग 70 वर्ष तक झेलता रहा।
जम्मू-कश्मीर के आखिरी शासक रहे महाराजा हरि सिंह को जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के साथ-साथ पूरे देश में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। जबकि शेख अब्दुल्ला केवल मुस्लिम बहुल कश्मीर में ही मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय रहे हैं। उनकी और उनके परिवार की सोच रही कि कश्मीर के साथ-साथ जम्मू और लद्दाख को भी मुस्लिम बहुल बनाकर इस पूरी रियासत पर अपना एक छत्र राज्य स्थापित किया जाए। इसके साथ-साथ उनका सपना एक नया पाकिस्तान तैयार करने का भी रहा। जिसे उनके इतिहास को पढ़कर समझा जा सकता है।
अब इस समय आवश्यकता है कि जम्मू कश्मीर की जनता प्रदेश में एक राष्ट्रवादी सरकार का गठन करे। जम्मू कश्मीर केवल और केवल भारत का एक अटूट हिस्सा है, इस बात को लेकर जनता जनार्दन अपना सहयोग राष्ट्रवादी शक्तियों को मजबूत करने में दे तो कश्मीर शांति का धाम बन सकता है।
यह एक अच्छी खबर है कि महाराजा हरि सिंह के बेटे और पूर्व केंद्रीय मंत्री कर्ण सिंह ने भी सरकार के इस फैसले की प्रशंसा की है। कर्ण सिंह ने कांग्रेस छोड़ने के भी संकेत दिए हैं। उन्होंने कहा है कि मैंने 1967 में कांग्रेस जॉइन की थी। लेकिन 8 से 10 सालों से मैं संसद का सदस्य नहीं हूं। वर्किंग कमिटी से भी मुझे बाहर कर दिया गया है। हां, मैं कांग्रेस में हूं, लेकिन मेरा कोई संपर्क नहीं है। कोई मुझसे किसी भी चीज के लिए बात नहीं करता। मैं अपना काम करता हूं। मेरे पार्टी से रिश्ते न के समान हैं।’
हमारा मानना है कि महाराजा हरि सिंह का पुत्र व उत्तराधिकारी होने के कारण डॉक्टर कर्णसिंह को कभी भी कांग्रेस में नहीं जाना चाहिए था। सत्ता स्वार्थ के लिए यदि वह कांग्रेस में गए तो इससे उनका सम्मान बढ़ा नहीं अपितु घटा ही था। पिता के सम्मान के साथ सौदा करना किसी भी योग्य संतान के लिए उचित नहीं होता। अभी भी समय है कि वह स्पष्ट रूप से कांग्रेस छोड़ने की घोषणा करें इसके साथ साथ कांग्रेस के पापों को भी जनता को बताएं। कांग्रेस छोड़कर किसी दूसरी पार्टी में जाना उनके लिए पर्याप्त नहीं होगा। यह तो फिर सत्ता की सौदेबाजी होगी । जिसे स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकेगा। उनके लिए उचित यही होगा की महाराजा के तिरस्कार और बहिष्कार करने की कांग्रेस की पाप पूर्ण प्रवृत्ति और कांग्रेसी नेतृत्व के काले सच को जनता के सामने उजागर कर दें। पूरा देश उनसे यह अपेक्षा करता है। यदि वह अब भी किसी दूसरी पार्टी को इसलिए अपनाते हैं कि उससे उन्हें राज्यसभा की सीट मिल जाएगी तो वह फिर एक और गलती कर रहे होंगे।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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