विश्व-संगठन, विश्व-मानस और एक विश्व-धर्म
मानव के मानव पर अत्याचार करने की प्रवृत्ति ने विश्व के देशों को देशों पर अत्याचार करने के लिए प्रेरित किया,सम्प्रदाय को सम्प्रदायों पर अत्याचार करने के लिए प्रेरित किया। विश्व में उपनिवेशवादी व्यवस्था का जन्म मनुष्य की इसी भावना से हुआ। अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहने और दूसरों के अधिकारों के प्रति असावधान रहने का यही परिणाम होता है। देशों का देशों पर अत्याचार करना और अपने उपनिवेश स्थापित करना बड़ा ही अमानवीय कार्य था। शोषक देश शोषित देश के लोगों के प्रति ऐसा व्यवहार करता था, मानो उनमें आत्मा ही न हो और उन्हें जीवन जीने तक का भी अधिकार ना हो। सम्प्रदाय के आधारों पर लोगों के मध्य विभेद करने वाले शासकों ने भी विपरीत सम्प्रदाय वालों के प्रति ऐसा ही व्यवहार किया। अत्याचारों का यह क्रम आज भी अपने परिवत्र्तित स्वरूप में स्थापित है। आज भी राष्ट्रों के मध्य ईष्र्या और कटुता का भाव पूर्ववत स्थापित है। जिससे स्थिति में मात्र इतना परिवर्तन आया है कि अब उपनिवेश तो स्थापित नही किये जा रहे, परन्तु एक सबल राष्ट्र निर्बल राष्ट्र पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर उस पर राज करने की भावना से आज ग्रसित है। कहने का अभिप्राय है कि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सम्प्रभुता का हृदय से सम्मान करना नही चाह रहा। द्वितीय विश्वयुद्घ के पश्चात् रूस ने अफ गानिस्तान में अपनी सेनाएँ भेजीं, अमेरिका ने भी ऐसा कई राष्ट्रों के साथ किया है। अमेरिका और ईराक के पूर्व शासक सद्दाम हुसैन की लड़ाई का प्रमुख कारण ईराक को समुद से तेल निकालने में उसके अधिकारों से वंचित करना ही था। इसी प्रकार दूसरें देशों के विषय में हम देखते हैं कि कहीं न कहीं निर्बल को शासित और नियंत्रित रखने के लिए उन पर युद्घ या आतंक थोपा गया है। जिसे हम आजकल आतंकवाद कह रहे हैं यह किसी राज्य का या राष्ट्र का किसी दूसरे राज्य या राष्ट्र के प्रति आतंक नही हैं। यह विशुद्घ साम्प्रदायिक समस्या है। जिससे बीते हुए इतिहास के भूत वर्तमान में जीवित हो होकर कब्रों से उठे चले आ रहे हंै। इससे राष्ट्र भी आतंकित हंै और राष्ट्रों के निवासी भी आतंकित हंै। युद्घ की तपिश बढती जा रही है। तीसरे विश्व युद्घ की सम्भावनाएँ तीव्रतर होती चली जा रही हैं। विश्व राजनीति के समीक्षक और विश्लेषक अनुमान लगा रहे हैं कि विश्व की इस जर्जरित व्यवस्था के कारण परमाणु हथियार और इन जैसे ही व्यापक नरसंहार करने में समर्थ रासायनिक हथियारों पर आतंकवादियों का नियन्त्रण स्थापित होना सम्भव है। यह मानव के भीतर छिपे दानव की वही परम्परागत भूख है जो मानव को युग-युगों से सता रही है। निसन्देह यह भूख मानवता के मांस भक्षण से ही शान्त होगी। मानवाधिकारवादियों को चाहिए कि वह मानव के स्वभाव में छिपे ‘दानव’ को मानव बनाने का प्रयास करें। मानव तो मानव है ही। उसे तो जीने के लिए जो चाहिए उसे वह ले लेगा, लेकिन दानव मानव नही है। उसे जीने के लिए कुछ नही चाहिए अपितु उसे चाहिए दूसरों का जीवन। दूसरों के जीवन को अपने जीवन के लिए समाप्त कर देना यह दानवता का लक्षण है। दानव का स्वभाव है। मानव के भीतर छिपकर दानव नीचे से उपर तक बैठे व्यक्तियों के भीतर ही छिपा बैठा है। इसके विषय में यह सच है कि यह शक्ति सम्पन्न लोगों के भीतर अधिक मात्रा में मिलता है। अब यदि एक राष्ट्र को एक व्यक्ति उसी प्रकार चलाता है जिस प्रकार एक परिवार को एक व्यक्ति चलाता है तो उसके भीतर भी इन दुर्बलताओं का और प्रबलता से मिलना अधिक सम्भव है। क्योंकि वह एक परिवार के मुखिया से कहीं अधिक शक्ति सम्पन्न है। जिसका वह दुरुपयोग करता है। वार्साय की सन्ध् िदमनकारी थी-जर्मनी के प्रति। जिन राष्ट्र प्रमुखों ने जर्मनी पर यह दमनकारी संध् िथोपी थी उन्हीं के हृदय की दानवता ने हिटलर का निर्माण किया। यदि वार्साय सन्ध् िमें भाग लेने वाले राष्ट्र प्रमुख अपने हृदय को मानवीय बनाये रखकर जर्मनी के साथ व्यवहार करते तो हिटलर जैसे क्रूर व्यक्ति का निर्माण नही होता। जिन करोड़ों लोगों की मृत्यु या हत्या का कारण हिटलर बना उसके लिए हिटलर कम और हिटलर के देश के प्रति अपमानजनक सन्ध् िकरने वाले राष्ट्र प्रमुखों के हृदय की ‘दानवता’ अधिक उत्तरदायी थी। विजय के क्षणों में मानवता को धारण करना अत्यन्त आवश्यक होता है। व्यवहार में मनुष्य को इसी सिद्घान्त का पालन करना चाहिए। भारतीय संस्कृति ऐसी अवस्था के लिए ‘समदर्शी’ शब्द का प्रयोग करती है। यदि वार्साय सन्ध् िको जन्म देने वाले राष्ट्र प्रमुख समदर्शी होते तो द्वितीय विश्व युद्घ न होता। उनकी असमदर्शिता ने हिटलर जैसे घृणास्पद व्यक्तित्व को जन्म दिया। जिसने अपने राष्ट्र के स्वाभिमान को बनाये रखने के लिए जो कुछ किया वह आज इतिहास का काला अध्याय बन चुका है। एक राष्ट्र के अधिकारों का दमन विश्व युद्घ का कारण बना। जिसने करोड़ों लोगों की बलि ले ली। युद्घ की भयंकर विभीषिका से निकले विश्व समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की। इसकी स्थापना में वही राष्ट्र अपने पापों को छिपाने के लिए अधिक सक्रिय दिखायी पड़े जिन्होंने करोड़ों लोगों की हत्या करने में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना और उद्देश्यों में करोड़ों लोगों के खून का गारा बनाकर लगाया गया है। यही कारण है कि इस विश्व संगठन की छत के नीचे भी लोगों का दम घुट रहा है। सभी राष्ट्रों के सम्मान और सुरक्षा की गारण्टी देकर भी यह विश्व संगठन अपने उद्देश्यों में सफ ल नही रह पाया है। हम बड़ी और छोटी कमजोरी में से छोटी कमजोरी को पकड़ते हैं। विश्व के लिए बड़ी कमजोरी है संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा राष्ट्रों की सम्प्रभुता की सुरक्षा की गारण्टी देकर भी उसका असफ ल हो जाना। छोटी कमजोरी है राष्ट्रों की अपने देशवासियों को अथवा नागरिकों को उनकी गरिमा की रक्षा की गारण्टी देना और उसमें उनका असफ ल होना। मानवाधिकारवादी तनिक विचार करें कि ऊपरी स्तर पर बैठा व्यक्ति जब अधीनस्थों की सम्प्रभुता का सम्मान नही कर सकता, वहाँ एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है तो नीचे के स्तर पर ऐसा होना स्वाभाविक है। ये ठीक है कि छोटी कमजोरी को पकडक़र आप बड़ी कमजोरी तक पहुँचेंगे। किन्तु छोटी कमजोरी को पकडक़र बड़ी कमजोरी को पूर्णरूपेण दृष्टि से ओझल नही किया जा सकता। यदि कोई राष्ट्र अपनी सम्प्रभुता की रक्षा के लिए भयग्रस्त हैं और उसकी ऊर्जा का अपव्यय अपनी सम्प्रभुता की रक्षार्थ अपेक्षाकृत अधिक हो रहा है, तो उसके नागरिकों की स्थिति भी वैसी ही होगी। मनुष्य अपने उत्कृष्ट ज्ञान को यदि पीढ़ी दर पीढ़ी आगे न बढाये तो वह उत्कृष्ट ज्ञान समाप्त हो जाता है या पुस्तकों के पृष्ठों तक सीमित होकर रह जाता है। ज्ञान के भी दो स्वरूप होते है एक सैद्घान्तिक और दूसरा व्यावहारिक। सैद्घान्तिक स्वरूप में हमें ज्ञान पुस्तकों से मिल सकता है, दूसरे लोगों से सुनकर मिल सकता है। यह सैद्घान्तिक ज्ञान हमारे लिए अधिक उपयोगी नही होता जब तक यह व्यावहारिक रूप में होता हुआ न दीखने लगे। यू.एन.ओ. के उद्देश्य हमारे लिए तभी उपयोगी होंगे,जब हम उन्हें व्यावहारिक रूप में अपनाना आरम्भ करेंगे। इसके लिए विश्व स्तर पर मानवाधिकारवादियों को विशेष और ठोस पहल करने की आवश्यकता है। यू.एन.ओ. के उद्देश्य किसी पुस्तक में कैद न होने पायें इसलिए उन्हें जन-जन तक पहुंचाने के लिए उनके सैद्घान्तिक रूप से उन्हें उबारकर व्यावहारिक धरातल पर लाना होगा। यू.एन.ओ. की स्थापना तत्कालीन परिस्थितियों में राष्ट्रों पर नागरिकों के नैतिक दबाव के कारण सम्भव हुई थी। आज यह नैतिक दबाव का शिकंजा राष्ट्र प्रमुखों पर ढ़ीला पड़ गया है। जिस कारण वह राष्ट्रवासियों की भावनाओं की अनदेखी करके कार्य कर रहे हैं। आज जबकि सारा विश्व एक ग्राम बन गया है तब राष्ट्रों और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को अन्योन्याश्रित बनाकर समझाने की आवश्यकता विश्व स्तर पर अनुभव की जानी चाहिए। ऐसे नागरिक राष्ट्र प्रमुख बनें जो कि राष्ट्रों की सम्प्रभुता और व्यक्ति की गरिमा का सम्मान करने वाले हों। किसी सम्प्रदाय के प्रति निष्ठावान कोई व्यक्ति किसी भी मूल्य पर राष्ट्रों की सम्प्रभुता और व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूक या संवेदनशील कभी नही हो सकता। इसी प्रकार की अपेक्षा उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करने वाले किसी राष्ट्र से की जा सकती है। वर्ग, सम्प्रदाय, भाषा, प्रान्त, देश और ऐसी ही अन्य सीमाऐं मानवतावाद के प्रचार प्रसार में बाधक होती हैं। जिससे हमारा धर्म और कत्र्तव्य पथ बाधित होता है। यह दु:खपूर्ण तथ्य है कि व्यक्ति अपने अधिकारों की रक्षा इन बाधाओं की उपस्थिति के मध्य चाहता है। अपनी गरिमा की रक्षा के लिए जो चीजें उसे समाप्त कर देनी चाहिए वह उन्हें बनाये रखकर अपने अधिकारों का अस्तित्व खोजता है। जबकि इन बाधाओं के कारण वह अपने कत्र्तव्य से विमुख हो जाता है। इस विषमता से उभरने के लिए दो चीजें हैं-एक तो यह कि व्यक्ति का वर्ग सम्प्रदाय आदि का स्वरूप बनाये रखकर भी उसे दूसरे के प्रति आक्रामक न होने दिया जाये और सभी के सम्प्रदायों की अच्छी बातों को मानने के लिए अनिवार्यत: बाध्य किया जाये। उसे उनके प्रति सहिष्णु बनाए जाने का प्रयास किया जाये। दूसरे यह कि इन सब बातों को व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा मानकर मिटाने का प्रयास किया जाये। मानवाधिकारवादी संगठन दोनों बातों पर ठोस कार्य कर सकते हैं। हमें मानव स्वभाव का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि जितने बड़े स्तर का संगठन होता है उसके लिए उतने ही बड़े मानस की आवश्यकता होती है। बड़े पदों पर छोटी सोच का व्यक्ति सदा घातक होता है। इसलिए विश्व स्तरीय संगठन यू.एन.ओ. के लिए विश्व मानस के धनी व्यक्ति को चुना जाना राष्ट्रों का मौलिक अधिकार होना चाहिए। विश्व मानस के धनी व्यक्ति ही सर्व सम्प्रदायों की मानव और प्राणिमात्र के हित में एक विश्व धर्म-मानवतावाद की स्थापना करा सकते हैं। यू.एन.ओ. की स्थापना के उद्देश्य को जन-जन तक पहुँचाने के लिए पाठ्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन किया जाये। हम ऊपरी स्तर पर परिवर्तन के लिए ऊपर से नीचे के लिए चलें। राष्ट्रों की सम्प्रभुता का सम्मान ही व्यक्ति की गरिमा की सुरक्षा का पर्यायवाची सिद्घ किया जाये। तब हम विश्व-शान्ति के अपने वास्तविक मिशन में सफ ल होंगे। विश्व का शान्ति पूर्ण परिवेश अनिवार्यत: स्थापित रहे यह भी राष्ट्रों का मौलिक अधिकार घोषित होना चाहिए। विश्व शान्ति मानवता का ध्येय भी है और मौलिक अधिकार भी। व्यक्ति के निहित स्वार्थों के कारण बड़ी भारी कीमत देकर मानवता युद्घादि की भयंकर विभीषिका को झेलकर विश्वशान्ति का वरण करती है, और शपथ खाती है कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे। किन्तु वर्ग, सम्प्रदाय आदि की दानवता कहीं पुन: मुखरित होती है और विनाश की कहानी लिख जाती है। इस विनाश की कहानी को रोकने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है। विश्व-संगठन, विश्व-मानस और एक विश्व-धर्म। ये तीनों चीजें ही राष्ट्रों के अधिकार हैं। पहली चीज हमारे पास है। अगली दोनों चीजों के लिए हमें संघर्ष करना है। यदि ये दो चीज और हो जायें तो स्थायी विश्व शान्ति स्थापित हो जाये। वेद शान्ति:, शान्ति: तीन बार कहता है। उसके शान्ति पाठ का अर्थ यदि समझ लिया जाये तो उसका भेद समझ में आ जायेगा कि वेद भी विश्व संगठन, विश्व-मानस और एक विश्व-धर्म के माध्यम से ही विश्वशान्ति के गीत गा रहा है। एक धर्म का अर्थ मानवतावाद का विकास करने से है, अन्यथा कुछ नहीं।
मुख्य संपादक, उगता भारत