पेरिस में आतंकी हमला

फ्रांस की राजधानी पेरिस में शार्ली हेब्दो नामक पत्रिका के कार्यालय पर फ़िदायीन के दो इस्लामी आतंकियों ने आक्रमण करके बारह लोगों को मौत के घाट उतार दिया । जिनमें वे चार पत्रकार भी थे , जो पत्रकार जगत में अपने चुटीले कार्टूनों के नाते जाने पहचाने जाते थे । आज से कुछ साल पहले डेनमार्क की एक पत्रिका ने इस्लाम मज़हब की शुरुआत करने वाले हज़रत मोहम्मद का एक रेखाचित्र प्रकाशित किया था , जिसे लेकर इस्लामी जगत के कुछ चरम पंथियों ने आपत्ति ज़ाहिर की थी । उनका कहना था कि इस्लाम में चित्र या बुत या फ़ोटो की मनाही है , इसलिये पत्रिका को यह चित्र नहीं छापना चाहिये था । दूसरी ओर पत्रिका व रेखाचित्र (जिसे कार्टून भी कहा जाने लगा था)  बनाने वाले पत्रकार के समर्थकों का कहना था कि कार्टून परोक्ष रुप से अपनी बात कहने का सशक्त माध्यम है , इसलिये इस पर आपत्ति नहीं की जानी चाहिये व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये लड़ना चाहिये । यूरोप में जब इस विषय को लेकर बहस चल रही थी तो फ्रांस की इस पत्रिका ने भी वह कार्टून अपने एक अंक में प्रकाशित कर इस बहस को धार दे दी । यूरोप इस मुद्दे को लेकर बहस में मशगूल था , उसी समय फ़िदायीन ने बहस को बीच में रोकते हुये एकतरफ़ा फ़ैसला सुना दिया और फ़्रेंच पत्रिका के कार्यालय पर हमला करते हुये सम्पादक समेत बारह पत्रकारों को मौत की नींद सुला दिया । मरने वालों में वह कार्टूनिस्ट भी शामिल था जिसने हज़रत मोहम्मद का कार्टून बनाया था ।  इस हमले के माध्यम से आतंकियों ने चेतावनी भी दे दी कि आगे से इस्लाम को लेकर कोई बहस या चर्चा करने का अधिकार किसी को नहीं है । जो इस चेतावनी को अनुसना करेगा उसका हश्र पेरिस में फ़र्श पर तड़प कर ठंडी हो चुकी बारह लाशों के समान होगा ।
हमलावरों में से दो सैद कौआची और शेरिंग तो सगे भाई थे । तीसरा हामिद मोराद उनका साथी तो केवल १८ साल का था । हमलावर अल्लाह हूँ अकबर के नारे लगा रहे थे । हामिद ने आत्मसमर्पण कर दिया । लेकिन दोनों भाई भाग निकले । अलक़ायदा के इन फ़िदायीन (दीन पर शहीद हो जाने वाले) ने सारे फ्रांस में तहलका मचा दिया ।
फ्रांस की क्रान्ति के बाद जो नया यूरोप उभरा है , उसमें बहस की परम्परा है । जर्मनी के कार्लमार्क्स के चिन्तन का तो मूलाधार ही बहस या तर्क है । शुरुआती दौर में ईसाइयत ने चाहे बहस या तर्क को रोकने की कोशिश की लेकिन कालान्तर में तो ईसा भक्ति भी ईसा दर्शन अर्थात तर्क या बहस के बाद पहुँचे निर्णयों का रुप धारण करने लगी । यही कारण है कि ईसाइयत में अनेक रुप प्रकट होने लगे । उसी यूरोप में अब फ़िदायीन कहिये या तालिबान कहिये , या कोई और नाम दीजिए , इस्लामी कट्टरता की आड़ में बहस या स्वतंत्र चिन्तन को प्रतिबन्धित करने का प्रयास कर रहे हैं । पेरिस की घटना उसी का एक प्रतीक है । फ्रांस के लोगों को शाबाशी देनी चाहिये कि उन्होंने इस प्रहार से भयभीत होने से इंकार कर दिया है और नगर में अनेक स्थानों पर ऐसे नारे उभर आये हैं जिन पर लिखा है कि हम नहीं डरेंगे । लेकिन यूरोप और अमेरिका को भी कहीं न कहीं अपने अन्दर झाँककर देखना होगा कि कहीं उनकी अपनी नीतियों के कारण ही तो फ़िदायीन का यह शैतानों मोर्चा प्रकट नहीं हुआ है ? अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया में पिछले कुछ साल से हो रही उछल पुथल के परिणामस्वरूप ही फ़िदायीन दैत्य दिखाई देने लगे हैं । कहा जाता है इनको प्रशिक्षण देने में ही अमेरिका ने अरबों डालर ख़र्च किये । लेकिन अमेरिका को तो इन का प्रयोग अफ़ग़ानिस्तान में करना था और पाकिस्तान को हिन्दुस्तान में । पर वायरस फैलता है तो उसको भी ग्रस्त लेता है , जिसने बहुत मेहनत करके उसे अपनी प्रयोगशाला में तैयार किया होता है । लेकिन सामान्य तौर पर यह मानकर चलना चाहिये की इस्लामी आतंकवाद , चाहे वह कहीं भी , किसी भी रुप में प्रकट हो रहा हो , उसका एकजुट होकर मुक़ाबला करना होगा । यह कह कर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि अब जब आतंक की आँच यूरोप पहुँची है तो देखो ये किस प्रकार छटपटा रहे हैं ? यह भावना आतंक को खाद पानी देने का काम करती है । आतंक का मुक़ाबला सभी देशों के संयुक्त प्रयासों से ही हो सकता है । यह संभव नहीं कि पाकिस्तान पेशावर के हमलावर आतंकियों को तो फाँसी पर लटकाये और कश्मीर में घुसपैठ के लिये तैयार आतंकियों को रसद पानी पहुँचाये । इसलिये सभी देशों को आतंक से लड़ने के लिये एक समन्वित नीति अपनानी होगी । एक देश के आँगन में आतंकी तांडव मचायें और पड़ोसी देश उपराम रहे , ऐसा संभव नहीं है । एक देश का आतंकवादी दूसरे देश में सम्मानित मेहमान का दर्जा नहीं प्राप्त कर सकता ।
फ्रांस में आक्रमण करने वाले इस्लामी आतंकवादी , ईराक़ या अरब के नहीं थे बल्कि वे मूल रुप से फ्रांस के रहने वाले ही थे । पिछले कुछ साल से यह भी देखने में आया है कि अमेरिका और यूरोप के अनेक युवा लोग इस्लाम मत में दीक्षित हो रहे हैं । इस्लाम में दीक्षित होना चिन्ता का विषय नहीं है । चिन्ता का विषय यह है कि वे दीक्षित होते ही हाथ में हथियार लेकर फ़िदायीन हो जाते हैं । यूरोपीय समाज को इस बात पर विचार करना चाहिये कि ऐसा क्यों हो रहा है । यूरोप में युवा पीढ़ी में जो ऊब और अवसाद पैदा हो रहा है , कहीं यह उसका परिणाम तो नहीं ? निराशा और ऊब कई बार व्यक्ति को आत्मघाती बना देती है । जिहाद इस आत्मघाती के लिये तार्किक आधार प्रस्तुत कर देता है । जिहाद के नाम पर आत्मघात करने वाले के लिये जन्नत का वायदा तो इस्लाम करता ही है ।
भारत में सभी ने एकमत से पेरिस में हुये इस अमानुषिक हमले की निन्दा की है । लेकिन सोनिया गान्धी की पार्टी के मणि शंकर अय्यर का अपना अलग मत है । उनका कहना है कि पेरिस में हुये इस आक्रमण का कारण यह है कि आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर हज़ारों बेगुनाह मुसलमानों को मारा जा रहा है , जो बहुत ही ग़लत है । अय्यर मानते हैं कि पेरिस की घटना उसकी प्रतिक्रिया ही मानी जानी चाहिये । वैसे तो सोनिया कांग्रेस को अधिकार है कि वह किसी भी आतंकी घटना की , ख़ास कर जिसमें बारह निर्दोष लोग मारे गये हों , अपनी सुविधा के ढंग से व्याख्या करे , लेकिन पेरिस में हुई आतंकी घटना के लिये उसे कम से कम भारत में साम्प्रदायिक राजनीति नहीं करनी चाहिये । वैसे तो उत्तर प्रदेश में मंत्री रह लिये किसी याकूब हाजी ने पेरिस में हमला करने वाले आतंकवादियों को ५१ करोड़ रुपये का ईनाम देने की घोषणा की है । लेकिन हाजी की तो उसकी औक़ात देखते हुये अवहेलना की जा सकती है , परन्तु मणि शंकर अय्यर का क्या किया जाये ? ख़ैर , फ्रांस की सरकार ने दस हज़ार से भी ज़्यादा सुरक्षा कर्मियों को ड्यूटी पर तैनात कर हमला करने वाले दोनों आतंकी भाईयों को तो आख़िर मार गिराया । लेकिन अब उसे ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर तलाशने पड़ेंगे , जो फ्रांस के बाज़ारों में फन तान कर खड़े हो गये हैं । ध्यान रहे सभी पश्चिमी देशों में सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश फ्रांस ही है । फ्रांस अब अपने यहाँ इस्लामी आतंक का मुक़ाबला कैसे करता है , इसी की ओर सभी देशों की उत्सुकता बनी रहेगी , ख़ास कर भारत की । कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिका की तरह फ्रांस में भी मुसलमान लगने जैसे नामों वाले सभी नागरिकों को हवाई अड्डों पर अतिरिक्त सुरक्षा जाँच में से गुज़रना पड़े ? लेकिन फिर भी फ्रांस के उत्तर के प्रति उत्सुकता तो बनी ही रहेगी ।

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