आर्य समाज के दीवाने भजनोपदेशक———- [पंडित प्रकाशचन्द्र कविरत्न]


आनंद स्त्रोत बह रहा, पर तू उदास है।
अचरज है जल में रहकर भी मछली को प्यास है।
फुलों में ज्यों सुवास ईख में मिठास है,
भगवन् का त्यों विश्व के कण कण में वास है।। 1।।
टुक ज्ञान चक्षु खोल के तू देख तो सही,
जिसको तू ढूंढता है, सदा तेरे पास है।। 2।।
कुछ तो समय निकाल आत्म – शुद्धि के लिए,
नर जन्म का उद्देश्य न केवल विलास है।। 3।।
आनंद मोक्ष का न पा सकेगा तब तलक,
तू जब तलक “प्रकाश” इन्द्रियों का दास है।। 4।।
काव्य, गायन तथा प्रभावशाली प्रवचन इन तीनों का संगम पं. प्रकाश चन्द्र कविरत्न में देखा गया। यह कल्पना करना भी कठिन था कि पौराणिक जगरातों तथा रामलीला में भाग लेनेवाला कोई युवक आर्य समाज के सम्पर्क में आकर अपने अवशिष्ट जीवन को वैदिक धर्म तथा आर्य संस्कृति के प्रचार प्रसार में लगा देगा। प्रकाश चन्द्र जी के जीवन में इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा गया। उत्कृष्ट कवि, गायक तथा प्रचारक पं. प्रकाशचन्द्र का जन्म आश्विन शुक्ल ९वि. सं. १९६० वि. (सन् १९०३) में अजमेर में हुआ। पिता पं. बिहारी लाल कट्टर पौराणिक थे। उनके संस्कार पुत्र दुर्गाप्रसाद (कवि का पूर्व नाम) को मिले जो अपना अधिकांश समय पौराणिक भजन गायन में व्यय करता था।
यही युवक जब राजस्थान आर्य प्रतिनिधि सभा के महोपदेशक पं. रामसहाय शर्मा के सम्पर्क में आया तो आर्य समाज का समर्पित प्रचारक बन गया। जीविका निर्वाह के लिए भड़ौच (गुजरात) की एक मिल में लिपिक का कार्य किया, किन्तु १९१९ में घटित जलियांवाला बाग के अमानुषिक हत्याकांड ने उन्हें विचलित कर दिया। और वे नौकरी छोड़कर वैदिक धर्म तथा स्वदेश की सेवा में लग गए। गुजरात में रहते समय शुक्लतीर्थ के मेले में ईसाई प्रचारकों को ग्रामीण एवं भोले भाले हिंदुवों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाइयत में प्रविष्ट कराने का क्रुर कृत्य जब उन्होने देखा तो वे अपना भावी जीवन आर्य समाज के लिए समर्पित करने का निश्चय कर बैठे।
अजमेर में उन्हें कुं. चांदकरण शारदा तथा पं. जियालाल आदि आर्य नेताओं का मार्ग दर्शन मिलता रहा। सन् १९२५ में जब मथुरा में ऋषि दयानंद की जन्माशताब्दी समारोह का आयोजन हुआ तो प्रकाशचन्द्र ने अपना प्रसिद्ध भजन वहां गाया जिसके बोल थे —
“वेदों का डंका आलम में बजवा दिया ऋषि दयानंद ने”
इस मार्मिक भजन को असाधारण लोकप्रियता मिली और जन जन के कंठ ये यह गुंजरीत होने लगा। प्रकाश चन्द्र जी ने १९३० के सत्याग्रह संग्राम में भाग लेकर जेल यात्रा की। साथ ही सर्वत्र भ्रमण कर आर्य भजनोपदेशक के रुप में वैदिक धर्म का प्रचार करते रहे।
दैव दुर्विचार से पं. प्रकाशचन्द्र वात रोग से ग्रस्त होकर प्राय: विकलांग हो गए तथापि धर्म प्रचार से विरत नहीं हुए। परोपकारिणी सभा द्वारा आयोजित ऋषि मेेले में आपका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया। शाहपुरा के विगत नरेश राजाधिराज सुदर्शन देवजी की अध्यक्षता में आयोजित इस समारोह में कविरत्न जी को अभिनन्दन ग्रंथ अर्पित किया गया। ११दिसम्बर १९७७ को अजमेर में उनका निधन हो गया।
कविरत्न जी कविता कामिनी कांत पं. नाथूराम शंकर शर्मा को अपना काव्य गुरु मानते थे। उनके प्रति काव्य प्रसून अर्पित करते हुए उन्होने लिखा था —
शंकर सरोज सुललित मृदु मकरंद
पान जिसने भी किया वो निहाल हो गया।
अनुराग रस की अनूप आभा अवलोक
अनुराग से विभोर अंतराल हो गया
गुरुदेव शंकर की कृपा से मैं प्रकाश हुआ
आज जन गण मन मंजु मराल हो गया
अथवा यूं कहूं कबीर के वचन भांति
लाली देखत चला था, मैं भी लाल हो गया
श्रेष्ठ संगीतज्ञ तथा गायक होने के साथ पं. प्रकाशचन्द्र उत्कृष्ट कवि भी थे। उनकी स्फुट रचनाएं प्रकाश भजनावली (५भाग) , प्रकाश भजन सत्संगी, प्रकाश गीत (४भाग) , प्रकाश तरंगिणि आदि शीर्षकों से छपी हैं। उन्होने स्वामी दयानंद के जीवन को चित्रित करते हुए दयानंद प्रकाश शीर्षक महाकाव्य लिखा जिसका पूर्वार्ध १९७१ में छपा। उनके जिन शिष्यों ने भजनोपदेशक के रुप में प्रशंसनीय कार्य किया उनमें पं. पन्नालाल पीयूष, श्री भद्रपाल सिंह, तथा त्रिलोकचंद राघव (चतुर्थाश्रम में स्वरुपानन्द सरस्वती) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
आपके रचित कतिपय भजन अधोलिखित है।
“दयानंद -महिमा”
थे न मंदिर, हाट बाट ठाट।
सोना चांदी कहां पास पैसा था न धेला था।
तन पै न थे सुवस्त्र, हाथ थे न अस्त्र शस्त्र।
जोगी न जमात कोई चेली न चेला था।
सत्य की सिरोही से संहारे सब असत् मत।
संकट विकट मरदानगी से झेला था।
सारी दुनिया के लोग एक ओर थे।
“प्रकाश” एक ओर निर्भय दयानंद अकेला था।।
आपका एक भजन बेहद ही प्यारा है
“पहचान ना पाया मैं तुमको”
लेखक :- डॉ. भवानीलाल भारतीय
पुस्तक :- आर्य भजनोपदेशक व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्रस्तोता :- रमेश अग्रवाल

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