महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश


प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

३१. सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभाव रूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ३)
३२. शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं इसलिए संस्कारों को करना मनुष्यों को अति उचित है। (संस्कार विधि)
३३. भला जो पुरुष विद्वान् और स्त्री अविदुषी और स्त्री विदुषी और पुरुष अविद्वान् हों तो नित्यप्रति देवासुर संग्राम घर में मचा रहे फिर सुख कहां? (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ३)
३४. जैसा राजा होता है वैसी ही उसकी प्रजा होती है इसलिए राजा और राजपुरुषों को अति उचित है कि कभी दुष्टाचार न करें किन्तु सब दिन धर्म न्याय से बर्तकर सबके सुधार के दृष्टा बने। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ६)
३५. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् सामाजिक, आत्मिक और शारीरिक उन्नति करना। (आर्यसमाज का छंठा नियम)
३६. जिस जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जाये उसका नाम तर्पण है। परन्तु यह जीवितों के लिए हैं मृतकों के लिए नहीं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ३)
३७. जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्यामतान्तर का विरुद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। (सत्यार्थप्रकाश उत्तरार्द्ध अनुभूमिका)
३८. सब मनुष्यों को न्याय दृष्टि से वर्त्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्यासत्य के निर्णय करने कराने के लिए है न कि वादविवाद विरोध करने कराने के लिए। (सत्यार्थप्रकाश अनुभूमिका)
३९. जिस बात में ये सहस्र एकमत हों वह वेदमत ग्राह्य है और जिसमें परस्पर विरोध हो वह कल्पित झूठा, अधर्म अग्राह्य है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११)
४०. जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहे वह अधर्म को छोड़ धर्म अवश्य करें। क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ९)

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