कोई भी चोर, पापी कभी उत्पन्न न हो

उत्तम कर्म की सिद्धि के लिए ईश्वर की प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए । ईश्वर का सानिध्य और सामीप्य प्राप्त करने से हमें असीम आनंद की अनुभूति होती है। धीरे धीरे जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे वैसे उस अतुलित आनंद की अनुभूति हमें अपने साथ बांधने लगती है। उत्तम कर्म की सिद्धि के लिए ईश्वर की प्रार्थना के संबंध में महर्षि दयानंद यजुर्वेद के इस मंत्र को उत्तर करते हैं :

इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा वस्तेन ईशत माघशंसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौस्यात वह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि। -यजु. १। १

आचार्य यास्क ने निरुक्त शास्त्र में लिखा है कि ‘यजुभिर्यजन्ति’अर्थात् यजु. मन्त्रों के द्वारा यज्ञ-कर्म का निरूपण किया गया है। यजुर्वेद में कर्म का प्राधान्य है अर्थात् क्रिया प्रधान है। इसलिए यजुर्वेद को कर्म वेद भी कहा जाता है। मन्त्र में कहा गया है कि ‘प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे’ अर्थात् श्रेष्ठ कर्मों का सम्पादन करो। कहने का अभिप्राय है कि जीवन को श्रेष्ठ कर्मों की सुगंध बना डालो से जीवन की सार्थकता महक रही और संसार स्वर्ग बन जाएगा।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में कहा है कि ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ यज्ञ अर्थात् परोपकार करना ही श्रेष्ठ कर्म है। प्रत्येक श्रेष्ठतम कार्य यज्ञ है। अतः श्रेष्ठतम कार्यों की ओर ध्यान लगाए रहो। इससे संसार में रहकर हम ईश्वर की चेतना के एक अंश के रूप में क्रियाशील बने रहेंगे । हमारा संपूर्ण जीवन संसार के लिए उपयोगी हो जाएगा।
परोपकारार्थमिदं शरीरम्। मैं का अभिप्राय है कि परोपकार के लिए ही यह शरीर मिला है इसलिए संसार में आकर परोपकार अर्थात यज्ञ की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। यही कारण है कि यजुर्वेद में श्रेष्ठ कर्मों के करने की ओर विशेष उपदेश दिया गया है। जैसे यजुर्वेद के ४० वें अध्याय में कहा है कि ‘कुर्वन्नेवेहकर्माणिजिजीविषेच्छतं समाः’ अर्थात् इस संसार में मनुष्य जब तक जीवित रहे, तब तक शुभकर्म करते हुए जीने की इच्छा करे। शुभ कर्मों में ध्यान लगाए रखने से इस संसार में किसी भी प्रकार का पापाचार पैदा नहीं होता। सब लोग स्वाभाविक रूप से अपने अपने कर्तव्यों पर ध्यान देते रहते हैं। जिससे संसार में अधिकारों के लिए संघर्ष की कोई संभावना नहीं रहती।
महर्षि दयानन्दकृत मन्त्रार्थः–हे मनुष्यो! यह (सविता) सब जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न जगदीश्वर (देवः) सब सुखों के दाता, सब विद्याओं का प्रकाशक भगवान् है (वायवस्थ) जो हमारे (वः) और तुम्हारे प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियाँ हैं एवं सब क्रियाओं की प्राप्ति के हेतु स्पर्शगुण वाले भौतिक प्राणादि हैं, उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) जो सबके उपकार के लिये कर्त्तव्य कर्म हैं, उससे (प्रार्पयतु) अच्छे प्रकार सयुक्त करें। हम लोग (इषे) अन्न, उत्तम इच्छा तथा विज्ञान की प्राप्ति के लिये सविता देवरूप (त्वा) तुझे विज्ञानरूप परमेश्वर को तथा (ऊर्जे) पराक्रम एवं उत्तम रस की प्राप्त्यर्थ (भागम्) सेवनीय धन और ज्ञान के पात्र (त्वा) अनन्त पराक्रम तथा आनन्द रस से भरपूर सदा आपकी शरण चाहते हैं। हे मनुष्यो! ऐसे होकर तुम (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त करो और हम उन्नति प्राप्त कर रहे हैं। हे परमेश्वर! आप कृपा करके हमें   (इन्द्राय) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये और (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) कर्म करने के लिये इन (प्रगावतीः) बहुत प्रजावाली (अघ्न्याः) बढ़ने योग्य, अहिंसनीय, गौ, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि और जो पशु हैं, उनसे सदैव (प्रार्पयतु) संयुक्त कीजिये।
डॉक्टर कृष्णपाल सिंह इस मंत्र का भावार्थ करते हुए कहते हैं कि मनुष्य सदा धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से, ऋग्वेद के अध्ययन से गुण और गुणी को जानकर सब पदार्थों के प्रयोग से पुरुषार्थ सिद्धि के लिये उत्तम क्रियाओं से संयुक्त रहें। जिससे ईश्वर की कृपा से सबके सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि होवे, शुभ कर्मों से प्रजा की रक्षा और शिक्षा सदा करें। जिससे कोई रोगरूप विघ्न और चोर प्रबल न हो सके और प्रजा सब सुखों को प्राप्त होवे। जिसने यह विचित्र सृष्टि रची है, उस जगदीश्वर का आप सदैव धन्यवाद करें। ऐसा करने से आपकी दयालु ईश्वर कृपा करके सदा रक्षा करेगा। ईश्वर स्वरूप दर्शनः–इस मन्त्र में सविता=ईश्वर सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होने से सविता नाम से कहा गया है और सर्वसुख प्रदाता, सर्वदुःख विनाशक, सर्व विद्याओं का प्रकाशक होने से ‘देव’ कहा गया है। परमेश्वर की प्रार्थना इस प्रकार करेंः–मन्त्र में कहा गया है कि हे सविता देव! आप हमारे प्राण, अन्तःकरण और समग्र इन्द्रियों को सर्वोत्कृष्ट यज्ञ कर्म में लगाइये।
जिसके पास जो वस्तु होती है वह उसी से मांगी जाती है। ऐसा नहीं हो सकता कि किसी दीन हीन की झोपड़ी में जाकर आप सोने की अशर्फियां मांगने लगें। यदि किसी कारण से आप ऐसा करते भी हैं तो निश्चित रूप से समझ लीजिए कि आपको निराशा ही हाथ लगेगी अशर्फियां उसी से मांगनी चाहिए जिसके पास वे हों। परमपिता परमेश्वर क्योंकि स्वयं ऐश्वर्य संपन्न है अतः हमें ऐश्वर्य की मांग उसी से करनी चाहिए।
हे जगदीश्वर! हम लोग अन्न बल, पराक्रम, विज्ञानादि की प्राप्ति के लिये आपका ही आश्रय करते हैं, क्योंकि आप ही सब प्रकार के परम ऐश्वर्य के प्रदाता हैं। हे दयानिधे परमेश्वर! आपकी परम कृपा से हमारे गौ, हस्ति आदि पशु, इन्द्रिय तथा पृथिवीस्थ सभी पदार्थ अनमीवा अर्थात् रोग रहित होवें। आपकी महती कृपा से हमारे मध्य कोई भी चोर, पापी कभी उत्पन्न न हो। हे परमेश्वर! आप ईश्वरोपासक, धर्मात्मा, विद्वान्, परोपकारी के गौ आदि विभिन्न पशुओं लक्ष्मी तथा प्रजा की सदैव रक्षा कीजिये।
ईश्वर से की गई प्रार्थना का अभिप्राय होता है कि हम जैसी प्रार्थना कर रहे हैं वैसे ही कर्म करने पर भी बल देते रहें। यदि हम चोर आदि के न होने की प्रार्थना परमपिता परमेश्वर से करते हैं तो हम स्वयं किसी भी प्रकार की चोरी से बचें।

(यह लेख यज्ञ के अध्यक्ष रहे देव मुनि जी की ओर से साभार प्रस्तुत किया गया है)

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