मन पर पावै जो विजय, वह वीरों का भी वीर

बिखरे मोती-भाग 103

मद में हो मगरूर नर,
करता है अन्याय।
अहंकार आंसू बनै,
जब हो प्रभु का न्याय ।। 946।।

व्याख्या :-
इस संसार में धन, यौवन अथवा पद के कारण अहंकार में चूर होकर जब व्यक्ति किसी को अपमानित करता है, अन्याय करता है अथवा उसकी अंतरात्मा को सताता है तो आक्रोष्टा के हृदय से निकली बददुआ कभी खाली नही जाती है। परमपिता परमात्मा अहंकारी व्यक्ति से अपनी उस विभूति (विलक्षणता) को वापिस ले लेते हैं, जिसके कारण वह किसी निर्दोष को सताता है। इतना ही नही जब अहंकारी व्यक्ति के ऊपर परमपिता परमात्मा की बिना आवाज की लाठी पड़ती है, तो वह फूट फूटकर रोता है, उसका अहंकार आंसू बनकर आंखों से ढलकता है। जैसा कि महाभारत में दुर्योधन के साथ हुआ तथा रामायण में बालि के साथ हुआ था। रोजमर्रा के जीवन में भी परिवार समाज अथवा राष्ट्र में ऐसे ज्वलंत उदाहरण देखने को मिलते हैं जब प्रभु का न्याय होता है। अपनों के बीच में ही खुदा पापात्मा की पिटाई करता है, तथा अपने भी तमाशा देखते हैं और ऊपर से व्यंग्य करते कहते हैं-अभिमानी का सिर नीचा। इसलिए प्रभु की किसी भी प्रकार की विभूति पर अहंकार नही करना चाहिए। खुदा के खौफ से डरकर रहना चाहिए।
मन का स्वभाव बदलना,
बड़ी ही टेढ़ी खीर।
मन पर पावै जो विजय,
वह वीरों का भी वीर ।। 947।।
व्याख्या :-
शरीर के दोषों अर्थात बुरी आदतों यथा-बीड़ी सिगरेट शराब पीना, मांसाहार करना इत्यादि कुचेष्टाओं को छोडऩा तो इतना आसान है जैसे पेड़ से पत्ता तोडऩा किंतु मन के स्वभाव शिकंजे को बदलना अर्थात मन के दोषों जैसे-काम क्रोध, लोभ मद (अहंकार) मोह, ईष्र्या, द्वेष, घृणा, तृष्णा, चंचलता और शंकाशील होना इत्यादि दुर्गुणो को सदगुणों में बदलना कोई खाला जी का घर नही है। 
उपरोक्त दोषों के कारण व्यक्ति का स्वभाव शनै: शनै: इतना बुरा बन जाता है कि वह स्वयं ही स्वयं का शत्रु बन जाता है, अपयश और हेय का पात्र बन जाता है। अत: मन के बुरे स्वभाव को शील में परिवर्तित करना अर्थात उत्तम स्वभाव में बदलना इतना दुष्कर कार्य है जैसे फौलाद के किले को जीतना। संसार में कोई बिरला ही जीत पाता है। मन के बुरे स्वभाव को जीतने वाला व्यक्ति वीरों का भी वीर कहलाता है। प्राय: इस संसार में लोग काल, कर्म और मन के बुरे स्वभाव से दु:खी है। जरा गंभीरता से सोचो, जैसे दही को रई मथती है, ठीक इसी प्रकार हमारे शरीर को मन में रहने वाले विकार चौबीसों घंटे तनाव की रई से मथते रहते हैं और व्यक्ति सूखकर कांटा हो जाता है। कभी-कभी तो काल के गाल में समा जाता है। 
अत: मन के बुरे स्वभाव के शिकंजे को बदलना है तो मन में आने वाले विकारों के प्रति सर्वदा सजग रहो, सतर्क रहो। विकार को देखते ही कहो-मेरे जानी दुश्मन, मेरे मन से इसी वक्त बाहर चला जा। तू मेरे विवेक के दीपक को बुझाने आया है? मेरे मन की शांति को छीनने आया है? मुझे पापों के दरिया में डुबाने आया है? मेरी आत्मा को पापात्मा बनाने आया है? मैं ऐसा कभी नही होने दूंगा। मेरी नजरों से दूर हो जा। मन के विकारों के प्रति ऐसा कठोर दृष्टिकोण तथा दृढ़ संकल्प शक्ति से ही आप मन पर विजय पाएंगे और की शांति एवं प्रसन्नता का मक्खन चख पायेंगे।
क्रमश:

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