क्या बृहदारण्यक उपनिषद् में गोमांस भक्षण का विधान है?

#डॉ_विवेक_आर्य

(साम्यवादी बौद्धिक प्रदुषण को प्रतिउत्तर)

राजेंद्रलाल मित्र ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में गोमांस-की भूमिका के पृ. 2-3, पाण्डुरंग वामन काणे ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक धर्मशास्त्र के इतिहास, खंड 2, भाग 2, अध्याय 22, आर. सी. मजूमदार ने भारतीय लोगों का इतिहास एवं संस्कृति, अध्याय 21, पृ.577 (प्राचीन भारत में गोमांस-एक समीक्षा, पृ. 61) में बृहदारण्यक उपनिषद् के 6/4/18 का प्रमाण (अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डितो विगीतः समितिंगमः शुश्रूषितां वाचं भाषिता जायेत सर्वान् वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति मांसौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयाताम् ।ईश्वरौ जनयितवाइ ।औक्षेण वार्षभेण वा ॥) प्रस्तुत कर लिखा है कि चारों वेदों में पारंगत संतान पाने के लिए पति-पत्नी के लिए गोमांस भक्षण का विधान है। मित्र इस पद का अनुवाद करते हुए लिखते है कि

‘और यदि कोई व्यक्ति एक ऐसे पुत्र की आकांशा करता है-जो प्रसिद्द, सार्वजानिक, लोकप्रिय वक्त हो एवं सभी वेदों का ज्ञाता तथा पूर्ण आयु तक जीवित रहनेवाला हो-तो उसे मांस तथा चावल को उबालकर उसे तथा उसकी पत्नी-दोनों को संतान के योग्य अवस्था में माखन के साथ खाना चाहिए। मांस एक युवा अथवा बुड्ढे सांड (बैल) का होना चाहिए।’

इस पद में मांसौदनं का अर्थ चावल एवं मांस किया गया है। इसी पद से पर्व के चार पदों का अवलोकन कीजिये। 6/4/14-17 में एक वेद के ज्ञाता पुत्र के लिए दूध के साथ पकाया हुआ चावल (क्षीरौदनं), दो वेदों के ज्ञाता पुत्र के लिए दही के साथ ओदन बनवा घृत मिला (दध्योदनं), तीन वेदों के ज्ञाता पुत्र के लिए जल में चरु बना घृत मिला (उदौदनं), विदुषी कन्या के लिए तिल के साथ ओदन बनवा घृत मिला (तिलौदनं) का विधान बताया गया है। इन सभी पदों में मांसाहार का किसी भी प्रकार से निषेध नहीं हैं। जब तीन वेदों का ज्ञाता बिना मांस भक्षण के बना जा सकता है। तो फिर चतुर्थ वेद के ज्ञाता संतान की उत्पत्ति के लिए इससे अगले पद में ‘मांसौदनं’ के माध्यम से मांस खाने का विधान असंगत प्रतीत होता हैं।

इस पर विचारकों के दो मत है। मांस शब्द का अर्थ यहाँ पर पशु की मांस पेशियाँ नहीं अपितु फलों और सब्जियों का गूदेदार मुलायम भाग होना चाहिए अथवा आयुर्वेद की औषधि होना चाहिए। (प्राचीन भारत में गोमांस-एक समीक्षा, पृ. 64-65)

निरुक्त 4/1/3 (मांसं माननं वा । अञ्चनात् वा ।मनः अस्मिन् सीदति इति वा ।) के अनुसार मांस का अर्थ कोई भी मननसाधक, बुद्धिवर्धक और मन को अच्छी लगनेवाली वस्तु है। स्पष्ट है कि पशु हत्या से प्राप्त मांस मन को लुभाने वाला नहीं हो सकता।

धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने मांस शब्द से पशु मांस न होकर दाल, फलों के गुदा आदि अर्थों के अनेक प्रमाण दिए हैं। (वेदों का यथार्थ स्वरुप, पृ. 189-191)
दूसरा मत पं शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ का यह है कि मांसौदनं के स्थान पर माषौदन शब्द होना चाहिए जिसका अर्थ है विभिन्न प्रकार के अन्न जैसे उड़द। (बृहदारण्यक उपनिषद्भाष्यं.द्वितीय आवृति, अजमेर: वैदिक यंत्रालय,1975 संवत;पृ.774-776)

इस दोनों मतों का उद्देश्य उपनिषद में मांसाहार की मान्यता को अस्वीकार करना है।

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