new talentsरत्नगर्भा वसुन्धरा होने के बावजूद भारतभूमि में आज का सबसे बड़ा संकट प्रतिभाओं के लिए अवसरों की अनुपलब्धता का है। रोजगार और राजनीति का क्षेत्र छोड़ भी दिया जाए तो हर तरफ यह संकट बना हुआ है कि अब आगे क्या होगा?

योग्य और प्रतिभा सम्पन्न लोगों की कोई कमी नहीं है इसके बावजूद उन्हें या तो अवसर नहीं मिल पा रहे हैं अथवा स्वयंभू बने बैठे प्रोफेशनल किस्म के लोगों की इतनी जबर्दस्त घेराबंदी हो चुकी है कि नए लोगों को वे मौका देना ही नहीं चाहते।

समाज-जीवन और राष्ट्र का कोई सा क्षेत्र हो, हर तरफ बरसों से भुजंगों की तरह कुण्डली मारकर लोग ऎसे बैठे हुए हैं कि वहाँ से मुक्त होना ही नहीं चाहते। ऊपर से इन लोगों को भ्रम ये हो गया है कि उनके जाने के बाद समाज और देश का क्या होगा? इसलिए ही वे समाजहित और राष्ट्रहित में जमे हुए हैंं।

हमारी मलीन, शर्मनाक और घृणित सोच कहें, स्वार्थों की पराकाष्ठा, मानवीय मूल्यों की मौत कहें या हमारी नई पीढ़ी के सामथ्र्य के प्रति आशाओं और विश्वास का अभाव, कि हम नई पीढ़ी को कुछ सौंपने तक को तैयार नहीं हैं।

मरते दम तक हम ही हम हैं जो कि हर काम में पूरी बेशर्मी से मुँह मार लिया करते हैं, किन्हीं और लोगाें की क्या हिम्मत जो हमारे द्वारा रक्षित किसी भी बाड़े में घुस जाएं या झाँक भी लें।  देश का कोई सा  इलाका ऎसा नहीं बचा है जहाँ नई और पुरानी पीढ़ी का यह संघर्ष नहीं चल रहा हो। पुराने लोग अपने आपको संप्रभु माने बैठे हुए हैं और उधर नई पीढ़ी अवसरों के लिए लालायित है।

कुछ दशक पहले ऎसा नहीं होता था। पुरानी पीढ़ी के लोग अपने अनुभवों, ज्ञान और मार्गदर्शन से अपने हुनर और ज्ञानराशि का संवहन नई पीढ़ी में मुक्त होकर पूरे निष्काम भाव से किया करते थे और अपने तरह के लोग बनाकर खुश भी होते थे। उनके लिए समाज की यही सबसे बड़ी सेवा थी कि उनके ज्ञान और अनुभवों की यात्रा पीढ़ी दर पीढ़ी जारी रहे।

आज कला-संस्कृति, संगीत, साहित्य, कर्मकाण्ड, ज्योतिष, पौरोहित्य से लेकर समाज के लिए उपयोगी कोई सी विधा हो, इसमें यह संकट पैदा हो गया है कि जो लोग आज जानकार हैं, उनके जाने के बाद क्या होगा।  जो जानकार हैं वे चाहते हैं कि उनकी तूती बोलती रहे और ऎसा माहौल बना रहे कि उनकी बजाय और कोई दूसरा दिखे ही नहीं।

यही कारण है कि ये लोग किसी को न सिखाना चाहते हैं, न आगे लाना चाहते हैं। फिर ये सारी विधाएं अब घोर व्यवसायिक स्वरूप प्राप्त कर चुकी हैं और ऎसे में धंधेबाजी मानसिकता वाले लोगों से यह अपेक्षा कभी नहीं की जा सकती कि ये लोग आने वाली पीढ़ी को कुछ सिखाएंगे या तैयार करेंगे।

इससे भी बड़ी हैरानी की बात यह हो गई कि ये सारे क्षेत्र वंशवाद और परिवारवाद के शिकार हो गए हैं जहाँ एक ही परिवार के लोग या नाते-रिश्तेदार मिलकर किसी कंपनी की तरह ठेके ले लिया करते हैं, जिसमें किसी बाहरी का प्रवेश संभव ही नहीं है।

कोई चाहे तब भी इतना हतोत्साहित कर दिया जाता है कि दुबारा बेचारा हिम्मत तक न कर पाए। तकरीबन सारे क्षेत्र इसी बीमारी से ग्रसित हैं और यही कारण है कि नई पौध को पनपने, अपनी प्रतिभाएं दिखाने के मौके तक नहीं मिल पा रहे हैं।

इसे देखते हुए अब तमाम प्रकार के आयोजनों के लिए अलग-अलग आयु सीमा बांधी जानी जरूरी हो गई है ताकि एक ही एक तरह के लोगों का प्रभुत्व न बना रहे। सभी आयु वर्गों की प्रतिभाओं को समान अवसर प्रदान करने के लिए अब समय आ गया है जब सभी तरह के आयोजनों/प्रतिस्पर्धाओं में खेलकूद स्पर्धाओं की तरह अलग-अलग आयु वर्ग के लिए पृथक-पृथक आयोजन हों। क्योंकि खूब सारे लोग ऎसे हैं जो हमेशा हर आयोजन में छाए रहते हैं, कई बार आयोजकों की मजबूरी होती है, कई बार वरिष्ठ, गरिष्ठ, वयोवृद्ध और लोक प्रतिष्ठ होने के अहंकारों से लदे हुए संभागियों की वजह से नए लोगों को चाहते हुए और अधिक प्रतिभावान होते हुए भी मौका नहीं मिल पाता है।

ये लोग मार्गदर्शक, संरक्षक और प्रेरणादायी प्रोत्साहक होने की बजाय हर  मैदान में सक्रियता के लाभ पाना चाहते हैंं। इस स्थिति में तो नई प्रतिभाओं को कहीं मौका नहीं मिल पाता। यही कारण है कि कला-संस्कृति, शिक्षा, साहित्य, धर्म-कर्म आदि सभी प्रकार के आयोजनों में नई पीढ़ी की रुचि समाप्त होती जा रही है और कई स्थानों पर तो ऎसा लगता है कि जैसे परंपराएं खत्म ही हो जाएंगी।

इन विषम परिस्थितियों में नए लोगों को आगे लाकर स्थापित करने और परंपराओं के संरक्षण-संवर्धन के लिए बहुत जरूरी हो चला है कि आयु वर्ग के हिसाब से आयोजन हों ताकि उसी आयु सीमा तक की प्रतिभाएं भाग ले सकें, और उन लोगों की अनावश्यक दखलंदाजी खत्म हो सके जो हमेशा मंच और मुख्य भूमिका तलाशने और उसका बेरहमी से अपने हक में उपयोग करने के आदी हो चुके हैंं। हम सभी पहल करें और यह तय करें कि नई प्रतिभाओं की हत्या न हो, उन्हें प्रोत्साहित कर आगे लाना हमारा धर्म है।

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