बलबन के काल में हिन्दू राजाओं ने अपनायी आपराधिक तटस्थता

युवा जुड़ें अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ

मैं अपने सुबुद्घ पाठकों से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे ‘इतिहास बोध’ के लिए अपने अतीत के साथ दृढ़ता से जुडऩे का संकल्प लें। क्योंकि अपने अतीत के गौरव को आप जितना ही आज में पकडक़र खड़े होंगे, आपका आगत (भविष्य) भी उतना ही गौरवमय और उज्ज्वल बनेगा। अतीत को आज के साथ दृढ़ता से पकडऩा इसलिए भी आवश्यक है कि हमने अतीत में जो जो भूलें की हैं, उन्हें पुन: न दोहरायें, उनसे शिक्षा लें, और स्वर्णिम भविष्य की ओर आगे बढ़ें।

चर्चिल ने कहा था-”तुम पीछे मुडक़र जितना अपना भूतकाल देख सकते हो, उतना ही आगे-आगे आने वाले भविष्य को देख सकते हो।”

इतिहास एक गंभीर विषय

अत: इतिहास का वास्तविक और तथ्यात्मक अध्ययन हर किसी के लिए आवश्यक है। इसे पूर्णत: गंभीर विषय समझना चाहिए और अपने जीवनमरण और अस्तित्व से जोडक़र इसे देखना चाहिए। मुझसे कई लोग कहते हैं कि इतिहास तो केवल समय नष्ट करने और सिरदर्द उत्पन्न करने वाला विषय है। इसलिए इस पर अधिक ध्यान लगाना मूर्खता है।

पर यह उनकी अपनी सोच हो सकती है, आप इस सोच को अपने ऊपर प्रभावी ना होने दें। क्योंकि उनकी ऐसी सोच उनकी हीन ग्रंथि का अज्ञानता का, आत्मप्रवंचना का, अपने ही विषय में नीरसता का और तुच्छ मानसिकता का हमें सहज दर्शन करा देती है। क्योंकि ऐसी सोच के कारण ही हमसे ईरान, अफगानिस्तान, बर्मा, मालद्वीप, इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा, इत्यादि कटते चले गये। हमने कभी ये नही सोचा कि हमसे भूल कहां हुई और ना ही ये सोचा कि इतने बड़े विशाल भू-भाग पर अंतत: हमारा शासन किन नीतियों के और मर्यादाओं के कारण चिरस्थायी रह पाया था? यदि दोनों बातों पर चिंतन होता, तो आज इतिहास को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय माना जाता।

‘खिलायें आशा के फूल और जलायें उत्साह के दीप’

हमारे पास गौरव है, हमारे पास स्वाभिमान है, हमारे पास सम्मान है, हमारे पास प्रतिष्ठा है। पर जहां ये सब कुछ है वहां बहुत भारी क्षति की वेदना भी है, बहुत कुछ खो जाने की पीड़ा भी है, पीड़ा और वेदना के इतने भारी-भारी छेद हैं कि उन्हें देखकर इतिहास के किसी भी जिज्ञासु और गंभीर विद्यार्थी की आंखों में आज भी अश्रु आ जाएंगे। इसलिए अपने गौरव पर ‘आशा के फूल और उत्साह के दीप’ जलाने की आवश्यकता है। जिससे कि आगत की ‘आफत’ से अपनी सुरक्षा कर सकें।

प्रतिरोध के उद्देश्य को समझें

हम समझें कि मौहम्मद बिन कासिम से लेकर अब तक भारत पर जो आक्रमण हो रहे थे, वे क्यों हो रहे थे और उनका हिन्दुओं की ओर से प्रतिरोध क्यों हो रहा था? ना तो आक्रमण करने वाले पागल थे और ना ही आक्रांत होने वाले पागल थे। आक्रांता का भी कोई उद्देश्य था और आक्रांत द्वारा उस उद्देश्य का प्रतिरोध करने का भी कोई उद्देश्य था।

वर्तमान इतिहास को हमें ऐसे पढ़ाया जाता है कि जैसे आक्रांता भी उद्देश्यहीन थे, और आक्रांत भी ‘उद्देश्यहीन’ होकर ही उनका प्रतिरोध कर रहे थे। इतिहास को इस दृष्टिकोण से पढऩे व समझने पर हमें दो बातें देखने को मिलती हैं, एक तो ये कि इस प्रकार की सोच से आक्रांता को सबल और सफल माना गया, उन्हें विजेता दिखाया गया और विजेता को दो अंक अधिक देते हुए ‘बुद्घियोग’ भी उन्हीं के पाले में माना गया। जबकि दूसरी बात ये कि आक्रांत को अनावश्यक ही सबल, सफल और बुद्घि उत्पन्न आक्रांता से भिडऩे वाला दिखाकर उसे ‘बुद्घिहीन, राष्ट्रीय भावों से शून्य और सर्वथा असभ्य’ दिखाने का प्रयास किया गया। जहां तक इस्लाम के आक्रांता होने के उद्देश्य का प्रश्न है तो उसके लिए मौदूदी साहब का यह वक्तव्य ही पर्याप्त है :-”इस्लाम केवल एक मजहबी प्रार्थनाओं का संग्रह नही है, अपितु एक पूर्ण प्रणाली है, जो अपना एक सुधारात्मक प्रोग्राम नाफिज करना चाहता है…..इस्लामी जमाअत, जिसका दूसरा नाम उम्मते मुस्लिमां (मुस्लिम समुदाय) है, वजूद में आते ही अपने जीवन उद्देश्य के लिए जिहाद शुरू कर देती है। इसके वजूद में आने का तकाजा यही है कि यह गैर इस्लामी हुकमरानी को मिटाने की कोशिश करें, और इसके स्थान पर सामाजिक व सामूहिक जीवन की उस हुकूमत को कायम करें। जिसे कुरान एक जामा (संपूर्ण) शब्द ‘कलिमतुल्ला’ से प्रकट करता है…ये मजहबी तबलीग करने वाले वाईजीन (प्रचारक और मिशनरीज) की जमाअत नही है, बल्कि खुदाई फौजदारों की जमायत है। इनसे जंग करो, यहां तक कि कितना (कुफ्र जो सबसे बड़ा बिगाड़ है) बाकी ना रहे और इताअत (आज्ञाकारी) सिर्फ खुदा के लिए हो जाए, अर्थात अल्लाह की मान्यता और जीवन विधि जैसे इस्लाम बताता है, कायम हो जाए।” (जिहाद फीस बी लिल्लाह पृष्ठ-22-24)

यदि हम इसे समझ गये होते….

यदि हमारी सोच विदेशी इस्लामिक आक्रांता के इस दृष्टिकोण को समझने की होती तो अफगानिस्तान जो कि 1250 वर्ष पूर्व पूर्णत: हिंदू था, आज एक स्वतंत्र मुस्लिम देश न बनता, इसी प्रकार 800 वर्ष पहले तक जो मलाया, इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा जैसे पूर्वी द्वीप पूर्णत: हिंदू बौद्घ थे और वृहत्तर भारत का एक अंग होने पर स्वयं को गौरवान्वित समझा करते थे वे भी आज पूर्णत: इस्लाममिक देश ना हुए होते।

इसलिए अपने हिंदू पूर्वजों की विजय, वीरता और वैभव को नमन करना तो हमारा पवित्र कत्र्तव्य है ही साथ ही अतीत की क्षति का अवलोकन करना भी राष्ट्रीय कत्र्तव्य होना चाहिए, तभी हम आने वाली पीढिय़ों को सुरक्षित, सुदृढ़ और समृद्घ भारत सौंप सकेंगे।

क्या कहते हैं लोग हमारे विषय में

अपने विषय में तनिक जानिये लोगों की क्या धारणा है-”साम्यवादी अवधारणाएं मानव कल्याण की पक्षधरता के भारतीय मानदण्डों के विपरीत, संपत्ति, सुविधा और मनोकांक्षा की पूर्ति के लिए दुर्योधन, कंस, रावण और यजीद बनने की छूट देती है,ं व्यक्ति के नैतिक संस्कार के वैसे बीज नही रोपती, जो सकल समाज में  मां, बहन, बेटी, पत्नी और सखी के अंतर को व्यावहारिक रूप से लागू करने के लिए प्रेरित करे।

औरत को केवल उपभोक्ता वस्तु के रूप में तथा पुरूषों को केवल धनोपार्जन जीवन के रूप में रेखांकित करने की प्राचीन यूरोपीय संस्कृति को अग्रसारित करने वाली तमाम बौद्घिक शक्तियों को मैं खुली चुनौती देता हूं, कि यदि उन्हें अपनी तामसी संस्कृति पर वास्तव में गर्व है, तो ले आयें अपने इतिहास, मिथक और साहित्य के खजाने से महान पुरूष और महान महिलायें। दूसरी ओर मैं ले आता हूं हिंदुस्तान के इतिहास मिथक और साहित्य कोष से भारत की महान महिलाएं और महान पुरूष, ताकि ‘मानव कल्याण’ के पक्ष में मानवीय प्रेम, मानवीय कत्र्तव्य, मानवीय अधिकार मानवीय राजनीति, और धर्म के मोर्चों पर यूरोपीय और भारतीय चरित्रों की तुलना से यह सिद्घ हो जाए किसमय चक्र की वेदी पर विश्व समाज के लिए कौन सी संस्कृति अनुकरणीय है? और किस संस्कृति का बहिष्कार अनिवार्य हो चुका है।”

(संदर्भ : शाहिद रहीम की पुस्तक ‘संस्कृति और संक्रमण’ के पृष्ठ भाग से)

भारत का सर्वोदयवाद और  सर्वोन्नति

समय की कसौटी पर भारतीय संस्कृति को जब जब कसकर देखा गया है तो वह अत्यंत उत्तेजक परिस्थितियों में भी धैर्य संपन्न निकली है, उसने कभी किसी आततायी को भी बिना कारण समाप्त करने का निर्णय नही लिया, सर्वोदयवाद और  सर्वोन्नति उसकी राजनीति के ऐसे दो सुदृढ़ आधार हैं जिनसे उसका समाजवाद संसार के किसी भी समाजवाद से श्रेष्ठतम सिद्घ हुआ है, क्योंकि ‘इदन्न मम्’ इसके समाजवाद की रीढ़ रही है। यही कारण है कि संसार भर की सारी राजनीति, सामाजिक और आर्थिक नीतियों और विचारधाराओं से हार थककर संसार का हर व्यक्ति अंतत: मानसिक शांति के लिए भारत के हिमालय की गुफाओं में आज भी किसी तपते हुए ऋषि को खोजने के लिए चल देता है। उसे सारे संसार का कोलाहल और उस कोलाहल के मध्य सारे पंथों, सम्प्रदायों और वर्गों के उपदेशकों के उपदेश एक ओर, और वह तब भी भारत के उस ऋषि के तपस्वी स्वरूप को ही सर्वप्रथम नमन के योग्य घोषित कर देता है, जिसे उसने साक्षात तो नही देखा, पर उसे देखने से उसको असीम शांति की अनुभूति होती है।

स्वतंत्रता के लिए रक्त बहाना ही पड़ता है

भारत की संस्कृति की सर्वोत्कृष्टता का इससे उत्तम उदाहरण और कोई नही हो सका। यह सत्य है कि जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण भी आ जाया करते हैं कि जब आपको अपने आदर्शों की रक्षार्थ दूसरों का रक्त बहाना भी पड़ता  और अपना रक्त देना भी पड़ता है। सुभाषचंद्र बोस ने जब देखा कि अब स्वतंत्रता की देवी केवल और केवल रक्त से ही प्रसन्न होगी तो विश्व के इस अद्वितीय क्रांतिकारी ने अद्वितीय नारा इस देश को दिया कि ”तुम मुझे खून दो-मैं तुम्हें आजादी दूंगा।”

सारा देश सुभाष के साथ उठ खड़ा हुआ। आचार्य कृपलानी जो कि 1947 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, ने भी स्वीकार किया था कि आजादी के दिन यदि सुभाष होते तो निस्संदेह वह देश के प्रधानमंत्री बनते। क्योंकि लोकप्रियता में उन्होंने हम सब कांग्रेसियों को पीछे छोड़ दिया था।

इसका अभिप्राय था कि इस देश का ‘हिन्दू’ मानस अपनी स्वतंत्रता को रक्त से सींचकर लायी गयी मानता था। वह रक्त देने से या रक्त से स्वतंत्रता को सींचने से घबराता नही था, अपितु वह उससे प्यार करता था। कदाचित यही कारण था कि भारत के हिन्दू मानस ने 1947 में ‘रक्त मांगने वाले’ विश्व के अदभुद क्रांतिकारी सुभाष को अपना नेता और भारत रत्न मान लिया था।

मेवाती और बलबन

जब बलबन मेवातियों का रक्त बहा रहा था तो उस समय भी हिंदू मेवातियों का रक्त ठंडा नही पड़ा था, अपितु वे उस समय भी अपनी स्वतंत्रता के लिए शत्रु का भी रक्त बहा रहे थे।

जियाउद्दीन बरनी हमें बताता है कि बलबन को मेवातियों के विद्रोह का दमन करने में अपने एक लाख व्यक्तियों से हाथ धोना पड़ा था। बलबन की योजना तो सफल हो गयी थी, परंतु उसे बहुत बड़ी चोट भी लगी थी। इसीलिए वह भारतीय मुसलमानों से घृणा करता था। क्योंकि भारतीय मुसलमान वही लोग थे जिनके पूर्वजों ने या स्वयं उन मुसलमान लोगों ने अपने धर्मांतरण से पूर्व उसे ‘नाकों चने चबाये’ थे। उन्हें वह तुरंत क्षमा करने को उद्यत नही थे। उनके साहस और उनकी वीरता के कारण जिस बलबन को रात्रि में भी नींद नही आती थी, उन्हें इतनी शीघ्रता से क्षमा करना वैसे भी उचित नही माना जा सकता था। अत: जब वीर हिंदू मेव मुसलमान बना दिये गये तो उनके प्रति बलबन और उसके लोगों की घृणा के भावों को समझा जा सकता है। जिन लोगों ने एक लाख सिपाहियों की बड़ी सेना को काटकर फेंक दिया हो, उन्हें बलबन शीघ्रता से क्षमा करने वाला नही था। भारतीयों को जब अपना विनाश स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था, उस समय भी ऐसी वीरता का प्रदर्शन करना कि शत्रु पक्ष एक लाख सिपाही मार जाए-सचमुच अभिनंदननीय कृत्य था।

इन हिंदू वीरों की वीरता पर कवि की इन पंक्तियों में विनम्र श्रद्घांजलि दी जा सकती है-

”प्राण दान कर हमीं विजय की ध्वजा उड़ाते,

मातृभूमि को विपज्जाल से हमीं छुड़ाते।

अनुत्साह, आलस्य हमारे पास न आते,

हमें मृत्यु के बाद हमारे गीत जिलाते।।”

और यह भी कि :-

”साक्षी है इतिहास हमीं पहले जागे हैं,

जागृत सब हो रहे हमारे ही आगे हैं।

शत्रु हमारे कहां नही भय से भागे हैं,

कायरता से कहां प्राण हमने त्यागे हैं?”

सचमुच इतिहास का एक भी उदाहरण ऐसा नही मिलेगा जब हिंदुओं ने कायरता से प्राण त्याग किये हों। जब ‘मौत या इस्लाम’ में से किसी एक को चुनने का समय आया तो असंख्य लोगों ने अपनी ‘मृत्यु के अधिपत्र’ पर स्वयं हस्ताक्षर कर दिये। इसे हमें भूलकर भी कायरता नही कहना चाहिए। यह हमारी अपनी संस्कृति के लिए तथा देशधर्म के लिए बलिदानी भावना थी।

भारत के विषय में हेनरी बीवरिज का कथन

हेनरी बीवरिज अपनी पुस्तक ‘ए काम्प्रीहेंसिव हिस्ट्रीऑफ इण्डिया’-पृष्ठ 18 पर लिखते हैं:-”किसी देश के इतिहास का अध्ययन करने के लिए स्वाभाविक है कि उस देश में उपलब्ध भूतकाल की घटनाओं के लेखे -जोखे का अनुसंधान किया जाए। इस दृष्टि से सोचा जा सकता है कि भारत में ऐसा साहित्य (इतिहास संबंधी) प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होगा। पश्चिमी यूरोप के निवासियों के बर्बरतापूर्ण युग से निकलने से भी बहुत पहले भारत में ऐसी भाषा का विकास हो चुका था जो अपने (संस्कृत) व्याकरण और संपूर्णता के लिए चमत्कारी थी। उस भाषा में अनेकानेक विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ लिखे जा चुके थे। इनमें से अनेक ग्रंथ ऐसे वैज्ञानिक और आध्यात्मिक विषयों पर थे, जिन पर लिखने के लिए इतिहास लेखन से कहीं अधिक विद्वत्ता एवं परिश्रम की आवश्यकता होती है। फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि यद्यपि इन वैज्ञानिक और आध्यात्मिक विषयों पर लेखन में इतना कठिन चिंतन और परिश्रम सफलता पूर्वक किया गया है, उससे कहीं अधिक सहज और कहीं अधिक लाभदायक इतिहास लेखन की नितांत उपेक्षा की गयी है। मुस्लिम काल में लिखित कश्मीर के इतिहास की एक पुस्तक को छोडक़र भारत में एक भी लेख अथवा पुस्तक उपलब्ध नही है, जिसे सत्य अर्थों में इतिहास कहा जा सके।”

यहां हेनरी बीवरिज इसी बात पर और हम भारतीयों की इतिहास लेखन के प्रति अरूचि की प्रवृत्ति पर चिंतित हैं। निश्चित रूप से हम ज्ञान-विज्ञान में उत्कृष्टतम साहित्य लेखन के लेखकों का भी इतिहास संजोने में या लिखने में सर्वथा असफल रहे, जिनके उस महान कार्य के कारण भारत कभी ‘विश्वगुरू’ के सम्मानित पद पर विराजमान रहा था।

संघर्ष के मध्य दो कदम आगे बढ़ गयी सल्तनत

हिंदू अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता रहा, उसकी वीरता अपना प्रदर्शन तीर, तलवार आदि के माध्यम से करती रही, परंतु व्यापक विरोध और संघर्ष के उपरांत भी मुस्लिम सल्तनत ने भारत में दो कदम और बढ़ा ही लिये। 1206 ई. में जिस गुलाम वंश की स्थापना हुई थी। वह बलबन के देहांत (1286 ई.) के पश्चात लड़खड़ा गया और 1290 ई. में अस्ताचल के अंक में समाहित हो गया। बलबन ने जिस शासन की स्थापना भारत में की थी। वह शक्ति  के बल पर ही स्थायी रह सकता था, परंतु उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों में उतना साहस नही था कि वह बलबन की शासन संबंधी नीतियों का अनुकरण कर पाते। इसलिए 1286 ई. में जब बलबन मरा तो उसके साम्राज्य की उचित देखभाल करने वाला भी कोई नही था। परंतु यहन् सच है कि बलबन अपनी कठोर नीतियों के आधार पर अपने साम्राज्य को कुछ विस्तार अवश्य दे गया। अब मुस्लिम सल्तनत रणथम्भौर की दहलीज तक जा पहुंची। उसने ग्वालियर जीत लिया और मालवा तक अपना विस्तार कर लिया।

मेवाड़ के गुहिल वंश को भी गुलाम वंश में अपने साम्राज्य में मिलाने का प्रयास किया गया था, परंतु उसमें बलबन असफल ही रहा था। हम यहां पर यह भी स्पष्ट कर देना उचित समझते हैं कि मुस्लिम सल्तनत का विस्तार तो बलबन के काल में हुआ, परंतु इसके उपरांत भी वह संपूर्ण भारतवर्ष का सुल्तान कदापि नही था।

‘सल्तनतकाल में हिन्दू प्रतिरोध’ के लेखक हमें बताते हैं कि ‘इस्तुतमिश के उत्तराधिकारियों’ के समय में उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब हरियाणा, मध्य प्रदेश एवं पहाड़ी क्षेत्रों में बारम्बार सेनाएं भेजी जाती रहीं, तथापि इन क्षेत्रों में हिंदू सक्रिय बने रहे। कालिंजर के चंदेलों के विरूद्घ बनाया गया प्रत्येक अभियान असफल ही रहा। मालवा पर भी आक्रमण सफल न हो पाया।….कैथल के हिंदू डाकुओं (स्वतंत्रता सेनानी) ने तो दिल्ली की पराजित शासिका रजिया की हत्या ही कर डाली थी।

बलबन की तटस्थता की नीति

यद्यपि बलबन ने अपने शासन काल में अति निंदनीय कठोर और क्रूर नीति का पालन अपनी हिंदू प्रजा के विरूद्घ किया, और वह कई क्षेत्रों में अपना शासन स्थापित करने में सफल भी हो गया। परंतु इसके उपरांत भी उसने हिंदुओं के प्रति ‘तटस्थता’ की नीति का पालन किया। यह नीति उसने उन हिंदू शासकों के प्रति अपनायी जो उसकी राजधानी से दूर थे। बलबन ने ऐसे हिंदू राजाओं को अपनी स्वतंत्रता का उपभोग करने दिया।

बलबन की इस तटस्थता की नीति के दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि वह हिंदू प्रतिरोध का सामना कई बार कर चुका था और अब वह और अधिक प्रतिरोध झेलना नही चाहता था, दूसरे यह कि वह भारत में विजित हिंदू क्षेत्र और अविजित हिंदू क्षेत्र में डण्डा डाले रखकर अपना स्वार्थ सिद्घ कर गया। अविजित हिंदू क्षेत्र के प्रति तटस्थता का भाव अपनाकर उसने उनकी सहानुभूति अर्जित की और इसके बदले में विजित हिंदू क्षेत्र में अपनी क्रूरता का पूर्ण उपयोग किया। जिन हिंदू राजाओं के प्रति उसने तटस्थता की नीति अपनाई उनमें प्रमुख थे-”गुजरात के चालुक्य, मालवा के परमार, रणथम्भौर जालौर, एवं सिवाना के चौहान चित्तौड़ के गुहिल जयसलमेर के भाटी तिरहुत के करनाटवंशी।” ये सारे के सारे हिंदू शासक अपनी स्वतंत्रता का उपभोग करते रहे। परंतु इस उपभोग के पीछे एक प्रमाद भी उत्पन्न हो गया था, जब बलबन मेवात और दोआब में हिंदुओं का क्रूरता से विनाश कर रहा था, तो उस समय ये हिंदू शासक एक समूह बनाकर उन लोगों की सुरक्षा के लिए नही आए।  इसीलिए इनके प्रति तटस्थता की नीति अपनाने वाला बलबन अपने राज्य का विस्तार करने में सफल हो गया था।

वास्तव में बलबन तटस्थता की नीति का पालन स्वयं नही कर रहा था, उसने कुछ भारतीयों को भारतीयों के प्रति ही तटस्थ कर कर दिया था। उसमेें वह सफल रहा, पर हम दुर्बल हो गये।

क्रमश:

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