आर्यसाहित्य के प्रेमियों के लिए हर्षवर्धक समाचार- “वैदिक साहित्य के 9 महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह कुशवाह-ग्रन्थावली खण्ड-2 प्रकाशित”

ओ३म्

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आर्यसमाज ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रचार एवं प्रसार का आन्दोलन है। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद,सामवेद एवं अथर्ववेद ईश्वरीय भाषा, जो संसार की आदि भाषा भी है, उस भाषा संस्कृत में हैं। वेदज्ञान मुनष्य को अन्धकार से निकाल कर ज्ञान से युक्त करते तथा आवागमन से मुक्त कराकर मोक्ष की प्राप्ति कराते हैं। महाभारत युद्ध के बाद निरन्तर वेदों का ज्ञान अप्रचारित वा अप्रचलित होता गया तथा इसी कारण से संसार में अविद्या व अज्ञान फैलता रहा। संसार में अविद्या पर आधारित नाना मत-मतान्तर प्रचलित हुए जिनमें ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप सहित ईश्वर की उपासना की सत्य विधि उपलब्ध नहीं होती। अज्ञानता व अविद्या के कारण सभी अपनी-अपनी उपासना पद्धति को ही सत्य व उपयुक्त बताते हैं। वेद व वैदिकसाहित्य सहित योगदर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर उपासना की सत्य पद्धति का ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द ने संसार से अविद्या वा अज्ञान दूर करने के लिए ही आर्यसमाज की स्थापना की थी। इसी कारण से ऋषि दयानन्द और उनके अनुयायी अविद्या दूर करने और विद्या का प्रचार करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। वह मौखिक-प्रचार के साथ वैदिक सिद्धान्तों, मान्यताओं तथा परम्पराओं को प्रचलित करने वाले तथ्य एवं प्रमाणों से युक्त ग्रन्थ लिखते रहे हैं जिनमें सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन होता है। आर्यसमाज में प्रायः सभी विद्वानों ने मौखिक प्रचार करने सहित अपनी-अपनी योग्यता, क्षमता व अभ्यास के अनुरूप ग्रन्थ लेखन का कार्य किया है जिससे स्वाध्यायशील तथा विद्वद्जन सभी लाभान्वित होते हैं। आचार्य डा0 शिवपूजनसिंह कुशवाह जी आर्यसमाज के उच्चकोटि के विद्वान, लेखक, ग्रन्थकार व ऋषिभक्त थे। आपने उच्चकोटि के दर्जनों ग्रन्थ व लेख लिखे हैं। आपका समस्त साहित्य आज भी प्रासंगिक वा उपयोगी है। आपके साहित्य को पढ़कर आज भी अध्येताओं को नवीन जानकारियां व ज्ञान प्राप्त होता है। अपने जीवन में आपने वृहद साहित्य का सृजन किया जो उनके जीवन काल में छपता रहा परन्तु वर्तमान समय में अप्राप्य हो गया था। वर्तमान समय के विद्वानों तथा स्वाध्यायशील पाठकों को डा. शिवपूजनसिंह कुशवाह जी के उच्च कोटि के वैदिकसाहित्य से परिचित कराने व लाभान्वित करने के लिए उनके समस्त उपलब्ध साहित्य को प्रकाशित करने का निश्चय ऋषिभक्त वैदिकविद्वान डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री, अमेठी तथा ऋषिभक्त श्री प्रभाकर देव आर्य, हिण्डोन सिटी ने किया है। कुशवाह ग्रन्थावली का प्रथम खण्ड सितम्बर, 2020 में उपलब्ध कराया गया था। दूसरा खण्ड भी प्रकाशित होकर उपलब्ध हो गया है। प्रथम खण्ड के समान ही दूसरा खण्डन भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि कुशवाह जी ने जो कुछ भी लिखा है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण, उपादेय एवं संग्रहणीय है। अपने इस संक्षिप्त लेख में हम कुशवाह-ग्रन्थावली के दूसरे खण्ड का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।

कुशवाह-ग्रन्थावली के दूसरे खण्ड के सम्पादक एवं प्रकाशक श्रद्धेय आचार्य डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री एवं प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी हैं। यह ग्रन्थ हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डोन सिटी-322230 द्वारा प्रकाशित है। प्रकाशक एवं ग्रन्थ प्राप्ति स्थान का पता हैः हितकारी प्रकाशन समिति, ‘अभ्युदय’ भवन, अग्रसेन कन्या महाविद्यालय मार्ग, स्टेशन रोड, हिण्डौनसिटी, राजस्थान-322230। प्रकाशक जी का चलभाष 7014248035 तथा 9414034072 है। ग्रन्थावली के दूसरे खण्ड का मूल्य रुपये 700-00 है। पुस्तक की पृष्ठ संख्या 640 है। पुस्तक सजिल्द एवं अजिल्द दोनों रूपों में उपलब्ध है। नयनाभिराम एवं भव्य संस्करण है। ग्रन्थावली के इस दूसरे खण्ड में ग्रन्थकार डा. आचार्य शिवपूजनसिंह कुशवाह जी की जिन 9 पुस्तकों को सम्मिलित किया गया हैं, उनके नाम निम्न हैं:

1- वैदिक सिद्धान्त मार्तण्ड, पृष्ठ 17-199
2- पाश्चात्यों की दृष्टि में वेद ईश्वरीय ज्ञान, पृष्ठ 200-230
3- आर्यसमाज के द्वितीय नियम की व्याख्या, पृष्ठ 231-253
4- आर्यों का आदि जन्मस्थान-निर्णय, पृष्ठ 254-269
5- भारतीय इतिहास की रूपरेखा पर एक समीक्षात्क दृष्टि, पृष्ठ 270-282
6- पद्मपराण का आलोचनात्मक अध्ययन, पृष्ठ 283-415
7- शिवलिंगपूजा-पर्यालोचन, पृष्ठ 416-433
8- क्या वेदों में मांसभक्षण का विधान है?, पृष्ठ 434-516
9- गर्ग-मुख-महाचेपेटिका, पृष्ठ 517-610

कुशवाह-ग्रन्थावली के दूसरे खण्ड में ग्रन्थ के यशस्वी सम्पादक डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी का लिखा 4 पृष्ठीय महत्वपूर्ण सम्पादकीय भी है। पुस्तक में सम्मिलित सभी नौ ग्रन्थों के लघु सम्पादकीय भी ग्रन्थ में दिये गये हैं जिनसे ग्रन्थ की महत्ता का ज्ञान होता है। ग्रन्थ में ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी का प्रकाशकीय लेख भी महत्वपूर्ण हैं। आर्य जी ने लिखा है कि हमारे सम्पादक डा. श्री ज्वलन्तकुमार जी शास्त्री और हमारी योजना भविष्य में महात्मा अमरस्वामी जी परिव्राजक, स्वामी मुनीश्वरानन्द जी सरस्वती, श्री बिहारीलाल जी शास्त्री ‘काव्यतीर्थ’ तथा स्वामी श्री सत्यप्रकाश जी सरस्वती का साहित्य देने की है। श्री प्रभाकरदेव जी ने यह भी बताया है कि उन्हें अनेक पत्र मिले हैं जिनमें प्रथम खण्ड (कुशवाह-ग्रन्थावली) की सराहना करते हुए इस करणीय कार्य को आगे बढ़ाने की प्रेरणा की गई है। उन्होंने इस संदर्भ में कहा है कि उनका मानस भी यही है। प्रभु कृपा और पाठकों के सहयोग से ग्रन्थावली के प्रकाशन का कार्य आगे बढ़ेगा ही, ऐसी आशा उन्होंने व्यक्त की है। आर्यजी ने एक पाठक की सम्मति भी प्रस्तुत की है जिसमें कहा गया है कुशवाह-ग्रन्थावली का प्रथम खण्ड पढ़कर उन पाठक महोदय को गर्व है। पत्र में आगे कहा गया है आर्यसमाज की पुरानी पीढ़ी के विद्वानों ने कठिन तपस्या करके इतना नायाव तोहफा आर्यजनता को दिया है।

डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी ने सम्पादकीय में यह भी कहा है कि कुशवाहजी के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता मैं यह मानता हूं कि जिस किसी विषय पर वे लिख रहे होते हैं, उस विषय पर देशी-विदेशी या पौराणिक और आर्यसमाजी विद्वानों ने अपनी-अपनी पुस्तकों में क्या-क्या लिखा है, इसकी जानकारी मिल जाती है। किसी भी आर्यविद्वान् या पौराणिक-विद्वान् का लेखन इस प्रकार का नहीं है। खण्डन-मण्डनात्मक साहित्य आर्यसमाजी विद्वानों द्वारा बहुत लिखा गया है परन्तु कुशवाहा-जी की एक भी छोटी-बड़ी पुस्तक आज बाजार में उपलब्ध नहीं है। आज के अधिकांश लोग जानते भी नहीं हैं कि उनकी कितनी पुस्तकें हैं या उन्होंने कितना कुछ लिखा है? इन्हीं सब न्यूनताओं को देखते हुए मैंने (डा. ज्वलन्तकुमार जी ने) अपने पास सुरक्षित तथा पुरानी हो चुकी उनकी पुस्तकों को संगृहीत कर प्रकाशित करने का निश्चय किया। कुशवाहाजी की पुस्तकों से आर्यसमाज के साहित्य का वह काल-खण्ड स्मृतिपथ पर प्रकाशित हो जाता है। तब हम जान पाते हैं कि आर्य विद्वानों ने विपक्षियों की सैकड़ों पुस्तकों द्वारा फैलाये गये भ्रम और अज्ञान को तर्क तथा प्रमाण के अस्त्र-शस्त्र से किस प्रकार विखण्डित किया था? और उन्हीं शास्त्रार्थ-महारथी-लेखकों की परम्परा में कुशवाहाजी स्वयं एक मंजे हुए सेनापति के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। कुशवाहाजी के बारे में कई नये तथ्य ‘प्रथम खण्ड’ के प्रकाशित होने के बाद मुझे (डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री को) प्राप्त हुए हैं, उनमें से एक उनकी निधन तिथि तथा उनके जन्म-वर्ष की वास्तविकता भी है। अतः उन नई जानकारियों तथा अपने संस्मरणों से पाठकों को अगले तृतीय खण्ड में अवश्य अवगत करा दूंगा। अस्तु। सम्पादक महोदय ने सम्पादकीय में लिखा है कि कुशवाहा जी की जन्म की तिथि 1 जून सन् 1919 है वा हो सकती है तथा उनकी मृत्यु 82 वर्ष की अवस्था में दिनांक 9 जनवरी सन् 2001 को हुई थी।

पुस्तक के अन्त में स्कूल आफ संस्कृत एण्ड इण्डियन स्टडीज, ज्वाहरलाल नेहरू यूनिवर्सटी, नई दिल्ली के डीन प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल की सम्मति दी गई है। उन्होंने कुशवाह-ग्रन्थावली पर अपनी सम्मति में लिखा है कि परमश्रद्धेय आचार्य ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘कुशवाह-गुन्थावली’ के प्रथम खण्ड के अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ। यह ग्रन्थ आदरणीय आचार्य शिवपूजन सिंह जी के निरन्तर सारस्वत साधना का अनुपम उपहार है। आचार्य शिवपूजन सिंह कुशवाहा जी ने जिस अदम्य उत्साह और अद्भुत प्रतिभा के बल पर वैदिक सिद्धान्तों एवं महर्षि दयानन्द जी के वैदिक चिन्तन का जिस परिश्रम के साथ अनुशीलन किया है वह अत्यन्त प्रेरणास्पद है। आचार्य कुशवाहा ने अपनी साधना शक्ति एवं कठोर परिश्रम के बल पर अल्प साधन में भी लगभग 55-56 ग्रन्थों का प्रणयन किया है। वे न केवल महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तों के उत्कृष्ट प्रतिपादक हैं, प्रत्युत वैदिक तथ्यों के अत्यन्त शोधपूर्ण प्रामाणिक व्याख्यानकर्ता भी हैं। दो पृष्ठीय सम्मति के अन्त में प्रो. सन्तोष कुमार शुक्ल जी लिखते हैं इस ग्रन्थावली के सम्पादक वेदविद्या के महनीय आचार्य ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी ने ‘कुशवाह-ग्रन्थावली’ के सम्पादन के द्वारा अत्यन्त ही महत्तवपूर्ण योगदान किया है, क्योंकि यदि यह ग्रन्थावली प्रकाशित नहीं होती तो वेदविद्या के अध्ययन एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के सिद्धान्तों के सन्दर्भ में आचार्य शिवपूजन सिंह जी के सूक्ष्म-चिन्तन से हम अपरिचित ही रहते। मैं आचार्य ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूं जिनकी महनीय कृपा से इस ग्रन्थ के अध्ययन का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। एतदर्थ उनके प्रति अपनी प्रणति समर्पित करता हूं और परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि वे आपको शतायु बनायें और महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रवर्तित वेदविद्या-व्याख्यान परम्परा की सतत अभिवृद्धि करने की शक्ति प्रदान करें।

इन पंक्तियों के लेखक ने हमने कुशवाह-ग्रन्थावली प्रथम खण्ड को आद्योपान्त पढ़ा है। हम भी इस ग्रन्थ को पढ़कर स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। ग्रन्थावली के प्रथम एवं द्वितीय खण्ड में कुशवाह जी द्वारा लिखी गई प्रत्येक पुस्तक व पुस्तक की प्रत्येक पंक्ति अध्ययन व पढ़ने योग्य है। सम्पादक एवं प्रकाशक महोदय आचार्य डा. शिवपूजन सिंह कुशवाह के सभी उपलब्ध ग्रन्थों व लेखों को प्रकाश में लाने का पुनीत कार्य कर रहे हैं, इसके लिए वह आर्यजगत की ओर से साधुवाद एवं धन्यवाद के पात्र हैं। उनका इस कार्य के लिए अभिनन्दन है। हम अपने सभी फेसबुक एवं व्हटशप पाठक मित्रों से अनुरोध करते हैं कि वह, यदि ‘कुशवाह-ग्रन्थावली’ के वह अग्रिम सदस्य नहीं है, तो इस ग्रन्थावली को प्राप्त कर स्वयं लाभान्वित हों एवं अपने परिवार के सदस्यों व भावी पीढ़ियों को भी इस सद्ज्ञान को विरासत में देकर पुण्य के भागी बने। प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव आर्य जी का पता व मोबाइल न. हमने आरम्भ में दिया है। फोन के माध्यम से सम्पर्क कर ग्रन्थावली के मूल्य आदि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। हम यह भी समझते हैं कि इस ग्रन्थावली को क्रय करना और पढ़ना सब आर्यों का कर्तव्य होना चाहिये। यदि वह ऐसा नहीं करेंगे तो साधनों के न्यूनता तथा प्रकाशित ग्रन्थ राशि की खपत कम होने के कारण यह सम्भव है कि ग्रन्थावली के शेष भाग प्रकाश में न आ सकें। अतः सभी ऋषिभक्तों सहित सभी आर्यसंस्थाओं को इस ग्रन्थावली के सभी भागों का अग्रिम सदस्य वा ग्राहक बनना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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