वैश्विक संबंधों में बारूदी सुरंग पर चलने का जोखिम

एस. निहाल सिंह

नरेंद्र मोदी इस्राइल की यात्रा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे, लेकिन उनकी यह यात्रा बारूदी सुरंग पर चलने जैसी होगी। इस्राइल में गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, सरकार में धुर दक्षिणपंथी धड़े के नेता हैं, जिन्होंने राष्ट्र के इतिहास में एक बार सत्ता फिर संभाली है। दूसरी तरफ,भाजपा ने आध्यात्मिक संबंध और विरोधियों के बारे में कटु सोच के कारण इस्राइल के साथ प्रतीकात्मक संबंध बनाए हैं।

इस्राइल खुद को घिरे हुए देश के रूप में पेश करता है तथा इस तथ्य के बावजूद उसके संदर्भ का बिंदु विध्वंस का ही रहता है कि वह आज की औपनिवेशिक ताकत है जो लाखों फिलिस्तीनियों पर राज कर रहा है। उसने पूर्वी येरूसलम के निकट बस्तियां बसाने के लिए पश्चिम तट का विशाल क्षेत्र हथिया कर उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया है तथा बराबरी की शर्तों पर शांति कायम करने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखा रहा है। फलस्वरूप, इस्राइल पश्चिमी जगत, खासतौर से यूरोप में खुद को अलग-थलग महसूस करता जा रहा है और इस्राइल के ‘बहिष्कार, हटना और प्रतिबंध’ (बीडीएस) के साथ आंदोलन आगे बढ़ रहा है।

मौलिक रूप से, बीडीएस का लक्ष्य कब्जाए गए पश्चिम तट में इस्राइली बस्तियों से पश्चिमी देशों के निवेश को वापस लेना और इस्राइली कंपनियों द्वारा वहां बनाए गए माल पर प्रतिबंध लगाना है। कुछ अमेरिकी विश्वविद्यालय भी इस्राइली पश्चिम तट की बस्तियों से हट गए हैं लेकिन अमेरिकी यहूदी लॉबी मजबूत बनी हुई है तथा न्यायोचित शांति की तलाश के सभी प्रयासों को हताश करती रही है, लेकिन अल्पसंख्यक जे स्ट्रीट धड़ा कट्टरपंथी बहुमत से टूटकर अलग हो गया है।

मोदी को यह जहन में रखना होगा कि उनकी इस्राइली यात्रा के साथ फिलिस्तीनी क्षेत्र की यात्रा से नेतन्याहू से उनकी मित्रता की भरपाई नहीं होगी क्योंकि दोनों के बीच कोई समानता नहीं है। भारत इस्राइल के साथ रक्षा संबंध बढ़ाता जा रहा है क्योंकि उसके सैन्य उत्पाद उत्कृष्ट, आधुनिक एवं नवीन हैं। लेकिन असल राजनीतिक कारणों से तेल अवीव के साथ कारोबार करना एक बात है और ऐसी सरकार के साथ खास संबंध बनाना बिलकुल दूसरी बात है, जिसके साथ औपनिवेशिक युग के बाद संबंध रखने में बहुत से पश्चिमी देशों को भी परेशानी होने लगी है। मोदी अपनी नाक ऊंची बनाए रख सकते हैं और रक्षा सौदे करने का रवैया अपना सकते हैं। ऐसा ही रवैया राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राष्ट्रपति अल-सिसि के निरंकुश शासन और विरोध के दमन के बावजूद मिस्र को उदारता से फिर हथियार देने में अपनाया था या मोदी फिर इस्राइल की अपनी ऐतिहासिक यात्रा का जश्न मना सकते हैं।

अरब जगत में भारत की साझेदारी न सिर्फ इस मामले में असीम है कि वह भारतीयों को रोजगार उपलब्ध कराता है बल्कि ऊर्जा आपूर्ति का स्रोत भी है। यह सच है कि कुछ अरब देश तेल अवीव के साथ लेन-देन के तहत समझौते करते हैं और इस्लामिक स्टेट के उद्भव के साथ मध्य-पूर्व में नए एवं बदलते भौगोलिक परिदृश्य में उसके साथ कुछ अरब देशों की निकटता है। लेकिन वे 21वीं सदी में प्राचीन औपनिवेशिक ताकत के रूप में इस्राइल के शासन की कटुता से दूर नहीं जा सकते।

इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच वर्तमान गतिरोध में कुछ गुण-दोष हैं। कुछ शांति वार्ता करने का दिखावा करके या कतई बात न करके दशकों से दुनिया को झूठ-मूठ बहकाया गया है। नेतन्याहू शांति कायम करने का कोई बहाना नहीं बनाते और पिछले चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने ऐसा कहा भी था।

मैं 1990 में इस्राइल में नेतन्याहू से मिला था जब वह कनिष्ठ विदेश मंत्री थे और उन्होंने अपनी बात मजबूती से रखी थी। खासतौर से, अपने देश की भौगोलिक सीमाओं पर बल देते हुए उन्होंने मुझसे कहा, ‘अगर आप इस्राइल में दौडऩे लगें तो आप कुछ घंटों में इसे पार कर लेंगे।’ अभी हाल तक, पारंपरिक सोच यह थी कि वह किसी शांति समझौते से इस्राइल में समुचित क्षेत्रों के बदले में इस्राइल की प्रमुख बस्तियां बनाए रखेंगे और येरूसलम दोनों राष्ट्रों की साझा राजधानी होगा तथा पश्चिम तट को सेना से मुक्त किया जाएगा।

ऐसा परिदृश्य अब घटकर कतई जमीन न देने तक सिमट गया है और इस्राइल 1967 के युद्ध में कब्जाई गई सारी जमीन और पूर्वी येरूसलम से लगी जमीन रखने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है। इसके साथ ही वह फिलिस्तीनियों को अपने अधीन रखने की खतरनाक कोशिश में है।

त्रासदी यह है कि अमेरिका कम से कम संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों में से किसी को शांति वार्ता में मुख्य भूमिका निभाने की अनुमति नहीं देगा क्योंकि घरेलू स्तर पर उसके हाथ बंधे हैं और शांतिरक्षक की भूमिका निभाने के लिए उसके भौगोलिक हित हैं।

प्रधानमंत्री की पहली यात्रा को तय करने में नेतन्याहू को भारत से समर्थन मिलने की संभावना के साथ, तेल अवीव और उसके अमेरिकी दोस्त पहले ही जश्न के मूड में हैं और अमेरिकी लेजिस्लेटरों के एक धड़े ने अमेरिका, इस्राइल और भारत के बीच त्रिपक्षीय रक्षा समझौते का प्रस्ताव पहले ही कर दिया है।

इस प्रकार मध्य-पूर्व माइनफील्ड में भारत के प्रवेश के अभूतपूर्व परिणाम हो सकते हैं और मोदी को शोमैनशिप के लिए अपनी अभिरुचि में लिप्त होने से पहले अपने कदमों पर नजर रखनी होगी। अनेक देशों के अनेक मध्यस्थ औपनिवेशिक ताकत और उसकी फिलिस्तीनी जनता के बीच शांति कराने के प्रयास में वाटरलू बन चुके हैं। नेतन्याहू ने अब घोषणा की है कि वे शांति कायम करने में मदद के लिए तीसरे पक्ष का दखल नहीं चाहते।

अब तक, इस्राइल के प्रति भारत की नीति, रक्षा सामग्री लेने और खेती के क्षेत्रों में मदद लेते समय संबंध को कमतर बनाए रखने की रही है। इसे मोदी की यात्रा ऐसे समय में नया उभार देगी जब नेतन्याहू की दिशा और उनके दक्षिणपंथी समर्थकों के देश में और भी शक्तिशाली होते जाने पर पश्चिमी जगत की चिंता बढ़ती जा रही है। इस्राइल ने बीडीएस आंदोलन पर पूर्ण युद्ध छेड़ दिया है क्योंकि यह उसे आर्थिक रूप से मुश्किल में डालने लगा है और पश्चिम में इस्राइल की स्पष्टवादी तस्वीर बनाने में मदद कर रहा है। यहूदी विरोधी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।

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