(दार्शनिक विचार)

#डॉ_विवेक_आर्य

मैंने अपने जीवन में 10 वर्ष विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी अस्पतालों में काम किया है। इस कार्य को करते हुए मुझे अनेक अच्छे-बुरे अनुभव हुए। सबसे अधिक बुरा तब लगता था जब मैं किसी जवान युवक-युवती को नशे के कारण अस्पताल में भर्ती होते हुए देखता था। इनमें से अनेक समृद्ध परिवारों से सम्बंधित थे। आपको जानकर अचरज होगा कि धनी वर्ग से सम्बंधित अधिकांश युवा के माता-पिता नेता, उच्च अधिकारी , जज, बड़े व्यापारी आदि थे। इनके बिगड़ने का कारण भी यही था। उनके माता-पिता ने पवित्र धन का संचय नहीं किया था। अधिकांश = युवक भोग के कारण नशे का शिकार हो रहे थे तो युवतियों का प्रमुख कारण पति से अनबन, घरेलू क्लेश आदि था। अनेकों के तलाक आदि के मामले चल रहे थे। इनकी हालत देखकर मेरे मन में एक ही आध्यात्मिक विचार का पुन: संस्मरण हो गया कि धन की केवल तीन ही गति है- दान, भोग और नाश। अगर आपने ईमानदारी से धन अर्जित करते है तो वह आपको और आपकी संतान को सुख देगा। अगर आप भ्रष्टाचार से धन अर्जित करते है। तो वह आपका नाश कर देगा। अगर आपकी आवश्यकता से अधिक धन आपके पास है तो उसे समाज की सेवा जैसे सत्कार्यों में लगाए। आपके चारों ओर देखिये। आपको मेरा कथन यथार्थ में देखने को मिलेगा। अपवित्र धन मनुष्य का ही नहीं उसकी सन्तान का भी नाश कर देता है।

इसी सन्देश को अथर्ववेद 3/24/5 में कहा गया है-

शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं किर ।कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह ॥

अर्थात हे ईश्वर आप सैकड़ों हाथों से हमें पवित्र धन दान दीजिये और हम हज़ारों हाथों से इस जीवन में अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समृद्धि को प्राप्त करते हुए उसे दान करे। हम धन-धान्य प्राप्त करके अपने कर्त्तव्य-कर्मों को ठीक रूप से करने वाले बने।

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