चढ़ते सूर्य को नमस्कार करने की भारतीय परंपरा बहुत प्राचीन है, वैज्ञानिक है। सूर्य आकाश में चढ़कर ही ढंग से प्रकाश फेेलाता है। इसलिए इस साधना के पीछे साधक की भावना है कि मैं भी ऊंचा चढ़कर संसार में अज्ञानांधकार को मिटाने के लिए प्रकाश फेेलाने वाला बनूं। इसलिए वेद ने कहा-
उद्यानं ते पुरूष नावयानम्। (अथर्व. 8-1-6)
हे मनुष्य ! तुझे जीवन में ऊंचा उठना है। नीचे नही गिरना है। जैसे सूर्य ऊपर उठकर संसार को प्रकाश देता है, वैसे ही मनुष्य को भी ऊपर उठकर दूसरों को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करना होगा।
बात सही है। मनुष्य को वेद की सूक्ति एक प्रकाश पुंज के समान दीख रही है। मनुष्य की अन्तश्चेतना को, उसकी आत्मा को और उसकी चेतनता को समझकर यहां उसे मानो एक द्वीप बना दिया गया है। वह द्वीप प्रज्ज्वलित होगा तो उससे अन्य दीपों को प्रज्ज्वलित होने के लिए किसी भौतिक प्रकाश पुंज की आवश्यकता है और यह भौतिक प्रकाश पुंज सूर्य से बढ़कर कोई नही हो सकता। सूर्य को देखो और उसके प्रकाश के दर्शन अपने भीतरी मंदिर में बार-बार करो। धीरे-धीरे साधना रंग लायेगी, और सदियों से सूखे पड़े हृदय के रेगिस्तान में भक्ति और आनंद की फसल लहलहाने लगेगी। भक्ति बढ़ेगी तो आनंद बढ़ेगा।
परमात्मा ज्योति स्वरूप है। उसका लघु रूप आत्मा है। आत्मा एक शरीर को ज्योतिर्मय बनाता है, तो ईश्वर इस विशाल ब्रहमाण्ड को ज्योतिर्मय बनाता है, अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है। जैसे आत्मा किसी भी योनि में मिले शरीर के अनुसार वैसा ही पहचाना जाता है या माना जाता है, जैसा उसे शरीर मिला होता है। (जैसे मनुष्य के शरीर में रहने वाला जीवात्मा मनुष्य का शरीर जैसा होने की ही भ्रांति कराता है) वैसे ही ब्रह्मïांड अत्यंत विस्तृत और विशाल होने के कारण ईश्वर भी हमें उसी के से रूप का लगता है। पर ना तो ये शरीर आत्मा है और ना ये ब्रह्मïाण्ड ईश्वर है। यद्यपि शरीर आत्मा से और ब्रह्मïाण्ड ईश्वर से ही भासते हैं। इसलिए यह कहना ही उचित और न्यायसंगत जान पड़ता है कि ईश्वर इस जगत के कण-कण में विद्यमान है। जैसा कण वैसा ही ईश्वर का स्वरूप।
हर कंकर में शंकर मानना हमारी अज्ञानता है क्योंकि हर कंकर बहुत से कणों से मिलकर बनता है। ज्ञान को स्थूल में लाकर उसे विकृत नही करना चाहिए, अपितु ज्ञान की स्वाभाविक गति के अनुसार उसे सहज रूप में सूक्ष्म की ओर ही बहने दो। रोको मत-प्रवाह को। उसे सतत प्रवाहमान बने रहने दो। क्योंकि सूक्ष्म में ले जाकर ही वह विज्ञान बनता है और स्थूल में जाकर वह हमारे लिए अहंकार की दीवार बन जाता है। उसे अहंकार की दीवार बनाकर उससे स्वयं भिड़कर अपना सर्वनाश करने की अपेक्षा उचित ये है कि उसे विज्ञान बनने दिया जाए और उसके उस स्वरूप से जीवन और जगत का कल्याण किया जाए। उसे सूक्ष्म में ले जाकर भौतिक विज्ञान से अध्यात्म विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान से ब्रह्मïविज्ञान कीओर बढऩे दिया जाए। क्योंकि उस ब्रह्मïविज्ञान में ही छुपा है अनंत सूर्यो के प्रकाश से बड़े प्रकाश का खजाना-दिव्यतम कोष।
यह दिव्यतम कोष ही वह ईश्वरीय कण है जिसे आज का विज्ञान, विज्ञान की पहली सीढ़ी अर्थात भौतिक विज्ञान में ही खोज लेना चाहता है। भौतिकवाद से ब्रह्मïवाद को साधा नही जा सकता। स्थूल से सूक्ष्म की खोज हो ही नही सकती। सूक्ष्म को खोजने के लिए स्थूल को मिटाना पड़ता है, और स्थूल मिटता है-अपनी स्वभाविक क्रिया के द्वारा। पर जब वह मिट जाता है तो हमें ज्ञात होता है कि वह मिटा नही अपितु और भी विस्तृत हो गया। किसी का विस्तृत हो जाना उसका मिटना नही होता है, अपितु उसके उस रूप में हमें उसके और भी दिव्यतम स्वरूप का साक्षात हो जाता है। यह योग का रहस्य है, योगी के हृदय से पूछो इसके वास्तविक आनंद को। कबीर ने हल्की सी झलक दी है-
‘जब मैं था तब हरि नही और जब हरि है तो अब मैं नही’। ‘मैं’ की स्थूलता मिट गयी तो प्यारे प्रभु रह गये और प्यारे प्रभु रह गये तो ‘मैं’ उसके स्वरूप में विलीन हो गयी। शेष रह गयी-पवित्रता, शुचिता, शुद्घता, निर्मलता और निर्विकारता।
ज्योति (सूर्य) ये ज्योति (आत्मा) जगाते रहोगे तो परम ज्योति (परमात्मा) के दर्शन हो ही जाएंगे। साधना का स्तर ऊंचा करो, साधना का ढंग बदलो। परंपरा और अंध विश्वासों से मुक्त शुद्घ उपासना के उपासक बनो।

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