अपने में ही उलझे न रहें

समाज और देश सामने रखें

– डॉ. दीपक आचार्य

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हम सभी का अस्तित्व देश से जुड़ा हुआ है। और देश समाज की छोटी-छोटी इकाइयों और भौगोलिक क्षेत्रों से मिलकर बना है। पूरी दुनिया में भारतवर्ष ही वह देश है जिसे देशवासी भारतमाता मानकर पूजते, सम्मान और आदर देते हैं।

भारतवर्ष धरती का एक हिस्सा मात्र नहीं है। यह दुनिया का दिल भी है और दिमाग भी। पूरी दुनिया को भोगभूमि के रूप में स्वीकारा गया है जहाँ उन्मुक्त भोग और स्वच्छन्द विलासिता की प्रधानता है जबकि भारत को कर्मभूमि माना गया है जहाँ कर्म की प्रधानता है। और यही कारण है कि दुनिया में सिर्फ भारत ही ऎसा राष्ट्र है जहाँ मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों  को स्वीकारा गया है,  जहाँ कुटुम्ब की अवधारणा से लेकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और वैश्विक कल्याण की भावनाएं हिलोरें लेती रही हैं।

हम जो कुछ कर्म करते हैं उसे विश्व का कल्याण मानने की महानतम और उदात्त परंपरा हमारे यहाँ जैसी है वैसी दुनिया के किसी देश में नहीं है। इतनी सारी खासियतों के बावजूद पिछली सदियों में हमने दासत्व और भारतवर्ष की अखण्डता के छीन जाने का जो अभिशाप झेला है उसका मूल कारण यह धरती नहीं,हम सारे के सारे धरती पुत्र हैं जिन्होंने अखण्ड भारत की रक्षा करने में अपने आपको विफल पाया और आज अपने आपको ठगे से महसूस करते हुए पुराने इतिहास और गौरवशाली परंपराओं का मात्र श्रवण की कर पाने को विवश हैं, देखने और अनुकरण करने का हमने समय भी खो दिया है, और सौभाग्य भी।

इस राष्ट्र के अधःपतन का यदि कोई एकमात्र सर्वाधिक कुख्यात कारण रहा है तो वह है हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ, घृणित राग-द्वेष और अपने ही अपने में सिमट कर रहने की कुत्सित मनोवृत्ति। हमने पिछली सदियों में जो कुछ किया, चाहे वह अपने स्वार्थों और नालायकियों के लिए किया, लेकिन इससे भी हमें कुछ नहीं मिला, और  अन्ततः हमने अपने आपको हर मामले में ठगा सा ही महसूस किया है।

इसका नुकसान हम औरों को देकर भले ही तत्कालीन परिस्थितियों में अपने आपको सुकून पाने वाला मानते रहे हों लेकिन हमने अपने स्वार्थों और नापाक रिश्तों, अपनी भोग-विलासिता और ऎश्वर्य पाने की कुंभकर्णी भूख और प्यास मिटाने में समाज और देश का जितना बड़ा नुकसान किया है उसके लिए हमारी आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करने वाली।

भारतवर्ष के लिए यह समय पुनरोदय का है जब सभी को मिलजुलकर पुरानी घटनाओं-दुर्घटनाओं, नाकामियों और कमियों से सबक लेते हुए आगे बढ़ने का प्रयत्न करना है और सुनहरे भारत के निर्माण के लिए अपनी छोटी-मोटी लोलुपता और लिप्साओं को त्यागना होगा वरना हमारी ऊटपटांग हरकतों और ऎषणाओं को पाने के लिए की जाने वाली घृणित और शुचिताहीन मनोवृत्तियों के लिए हमें भी आने वाला समय दोषी ठहराएगा और तब हमारे पास कहने को कुछ नहीं होगा,सिवा पछतावों के।

समाज और देश निर्माण हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए लेकिन इसके लिए यह जरूरी है कि हम जो कुछ करें उस समय हमारे सामने अपना घर, अपना परिवार, अपनी बैंक के लॉकर या अपने भोग-विलासिता के संसाधन और अकूत धन-संपदा जमा करने का कोई भाव न हो बल्कि यह भाव हो कि हम अपने समाज और देश के लिए कितना कुछ अधिक कर सकते हैं।

जो लोग खुद ही खुद का ध्यान करते रहते हैं वे सारे लोग समाज और देश के अपराधी होते हैं और जीते जी मुर्दों की तरह होते हैं, मरने के बाद ऎसे लोगों को याद करने वाले भी नरक में ही जाते है। इस बात को गीता में अच्छी तरह स्पष्ट किया हुआ है।

इसलिए अब समय वह आ गया है जब नालायकों और देशघातियों, उदासीनों और अपराधियों, स्वार्थ में रमे रहकर श्वानों, लोमड़ों और गिद्धों की जिंदगी जी रहे आत्मकेन्दि्रत लोगों की ओर ध्यान देना छोड़ें और समाज तथा देश के लिए जीने-मरने की भावना से काम करें। ,

इसके लिए यह जरूरी है कि हम जिस किसी क्षेत्र में हो वहाँ अंधानुचरों, पालतु कुत्तों, पशुओं और गुलामों की तरह जीना छोड़ें और अपने-अपने कामों को पूरी ईमानदारी एवं जिम्मेदारी से करें।

अब समय औरों को कोसने का नहीं है क्योंकि जो लोग पिछली सदियों में नालायकी कर गए, उनका स्मरण भी हमारी ऊर्जा और पुण्य का नाश करने वाला है।  समाज और देश को बनाना किसी एक आदमी का काम नहीं है, हम सभी को इसमें समर्पित भागीदारी निभानी होगी। साथ ही यह भी प्रण लेना होगा कि जो लोग अच्छे काम कर रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित करें, कार्य संपादन के लिए पर्याप्त अवसर दें और दुराग्रह-पूर्वाग्रह या मूर्खाग्रह को छोड़कर अपनी ऊर्जा अच्छे कामों में लगाएं, फिजूल की बहस में जितना समय गँवाते हैं, उतना समय समाज और क्षेत्र के किसी काम में लगाएं तथा अपने आपको सुधारने का प्रयास खुद से शुरू करें वरना अब समय उदासीनों और नालायकों के पक्ष में नहीं रहा है, अपने आप ठिकाने लगा देगा।

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