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सत्य और ईमान पर चलने वाले

– डॉ. दीपक आचार्य

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 निरन्तर प्रतिस्पर्धा और फैशन के अंधानुकरण, भौतिकवादी सोच और दिखावों के चलन के साथ विकास की चकाचौंध में रमते जा रहे मौजूदा युग में सत्य, ईमान और धर्म का अवलंबन करते हुए जीवन विकास के क्रम को बनाये रखना मुश्किल सा लगता है। चारों तरफ भौतिकतावादी आडम्बरों, देखादेखी की भक्ति, दिखावों का आडम्बर और दुनिया की दौलत को कैद कर अपने दायरों में ला सिमटाने की जो मनोवृत्ति आज लोगों मेें देखी जा रही है उसी का ही परिणाम है कि हम शाश्वत सत्य, जीवन के यथार्थ और लक्ष्यों से भटक कर रह गए हैं तथा एक ऎसी जिन्दगी हमने अपना ली है जिसमें हमें किसी पल चैन नहीं है।

हर क्षण हमारी मानसिकता अपने ही अपने लिए बटोरने में लगी रहती है। हर सामग्री को अपने हक और हद में लाने के लिए हम अपनी सारी हदें पार करते जा रहे हैं और इसी से हमारी जिन्दगी स्वच्छन्द, उन्मुक्त और अनुशासनहीन हो चुकी है।

जिजीविषा और कड़े जीवन संघर्ष के इस दौर में हममें से कई सारे लोगों को जिन्दगी भर यह पीड़ा बनी रहती है कि और बहुत सारे लोग अकूत संपदा, भोग-विलासी जीवन पा रहे हैं और हम ऎसे कोरे रह गए हैं कुछ भी संचित तक नहीं कर पाए हैं।

कई सारे लोग हताशा से भरे रहते हैं और कहा करते हैं कि जिन्दगी में जो चाहते थे वो कर नहीं पाए, काफी समय यों ही व्यतीत हो गया। खासकर सत्य, धर्म और ईमान पर चलने वाले लोगों की जिन्दगी में अभावों की बातें अक्सर कही-सुनी जाती हैं।

ये लोग अपने जीवन में ईमानदार और सत्यवादी तो होते हैं लेकिन उस अनुपात में संतोष स्वभाव को अंगीकार नहीं कर पाते हैं बल्कि इसकी बजाय भीड़ में अपने आपकी अलग पहचान होने का अहंकार पाले रहते हैं और इस कारण उन्हें जीवन का आनंद नहीं प्राप्त होता।

जो लोग सात्ति्वक जिन्दगी को अंगीेकार करते हैं उन्हें यह बात अच्छी तरह सोच लेनी चाहिए कि उन्हें वो सब भोग-विलास नहीं मिलने वाला जो दूसरे लोग अलक्ष्मी को स्वीकार कर, गलत-सलत धंधे अपना कर हासिल कर लिया करते हैं।

पुरुषार्थ के बिना हराम की कमाई, हड़पी हुई सम्पत्ति और बिना मेहनत के, भीख या रिश्वत अथवा स्वार्थजन्य उपहारों के रूप में जो कुछ प्राप्त हो जाता है वह असल में लक्ष्मी न होकर अलक्ष्मी ही है और यही दुःखोें तथा समस्याओं का कारण है।

सच तो यह भी है कि जिसके पास जितनी ज्यादा सम्पत्ति होती है वह उसके खुद के काम कभी नहीं आती। यहां तक कि ऎसा आदमी सामान्य लोगों की तरह भी जिंदगी के आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता है। न खा-पी सकता है, न बिना दवाइयों के कुछ कदम चल सकता है।

इन सम्पत्तिशाली लोगों की जिन्दगी सिर्फ दिखावटी होती है। इनके बाहरी आवरणों और आडम्बरों की बजाय इनके जीवनानंद को करीब से जानने का प्रयास करें तो हमें साफ पता चलेगा कि इन लोगों के मुकाबले हम लाख गुना अच्छी जिन्दगी जी रहे हैं।

सत्य, धर्म और ईमान पर चलने वाले लोगों को मौज-मस्ती के साथ जिन्दगी गुजारनी हो तो उन्हें संसार के क्षणिक भोगों की असलियत को जानकर संतोष धर्म को हर पल अपनाना चाहिए। इन लोगों के लिए जिन्दगी के दो ही मायने हैं। जीवन के मर्म और भोगों के रहस्य को समझें अथवा औरों की विलासिता को देख-देख कर जिंदगी भर कुढ़ते रहें और अपने जीवन को लेकर मरते दम तक शिकायती-नकारात्मक वैचारिक धुंध को छाए रहने के अवसर देते रहें।

सादगी और संतोष दो ऎसे कारक हैं जिनका अपने जीवन में प्रवेश हो जाने पर पूरा जीवन मस्त हो जाता है और यह स्थिति पा लेने के बाद न खुद से शिकायत होती है, न किसी और से। बल्कि पूरी दुनिया आनंद और उल्लास देती प्रतीत होती है। खुद का जीवन भी हर पल इतनी मस्ती देता है कि हर क्षण सुकून देता है।

ऎसा हो जाने पर अभावों में भी जिन्दगी को पूरी मौज-मस्ती के साथ गुजारने का वो आनंद हम पा जाते हैं जो बड़े-बड़े धनाढ्य भी पाने के लिए तरसते रहते हैं। तभी कहा गया है -असंतुष्टा द्विजा नष्टा, संतुष्टा च महीपति। अर्थात जो असंतुष्ट है वह नष्ट हो जाने वाला है जबकि जो अपने आप संतुष्ट रहता है वह स्वयं इन्द्र ही है।

संतोष व्रत को जीवन में अंगीकार कर लिए जाने पर हमारी सारी समस्याएं बिना कुछ परिश्रम किये अपने आप पलायन कर जाती हैं, हमें जीवन जीते हुए अपार शाश्वत आनंद की प्राप्ति होती है और मरने के बाद पारलौकिक आनंद का महासागर हमारी प्रतीक्षा करता रहता है।

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