विश्वधर्मगुरू भारत और कुम्भ प्रथा

प्रस्तुति – बाबा नंद किशोर मिश्र

कुम्भ शब्द का अर्थ होता है- अमृत का घड़ा यानि ज्ञान का घड़ा और कुम्भ प्रथा का स्पष्ट अभिप्राय है, ज्ञान के घड़े का सदुपयोग। सर्वविदित है कि हमारे राष्ट्र भारत का एक नाम आदिकाल से आर्यावर्त भी है यानि हमारा राष्ट्र आर्य समुदाय बाहुल्य राष्ट्र है, जिसकी संस्कृति और सभ्यता पूर्णरूपेण अपौरूषेय वेद और वैदिक सनातन धर्म पर आधारित रहा है। यह राष्ट्र आदिकाल से ही संतों, ऋषियों, मुनियों की जन्म एवं कर्मभूमि रही है। इन्हीं संतों, ऋषियों, मुनियों के अन्वेषणोपरांत प्राप्त ज्ञानामृत पुंज को अध्यात्म कहा गया। इसके अनुसरण के फलस्वरूप सृष्टि काल से ही भारत राष्ट्र पूरे विश्व को अज्ञानतारूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ला विश्व कल्याणार्थ तत्परता दिखाता आया है। इसी कारण विश्वधर्मगुरू से भी यह राष्ट्र विभूषित हुआ है। कुम्भ प्रथा भी निश्चित तौर पर इसी श्रृंखला की एक कड़ी है।
सर्वविदित है कि पूरे वर्ष में 12 महीने होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राशियां भी 12 हैं। इसी शास्त्र के अनुसार प्रत्येक वर्ष किसी न किसी राशि पर, किसी न किसी माह में बृहस्पति का योग होना तय है जो अति पवित्र कुम्भ योग माना जाता है और यह प्रत्येक 12 वर्षो के बाद दोहराया जाता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आदिकाल में बारह कुम्भस्थल भी अवश्य रहे होंगे।
शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि देवासुर संग्राम के दौरान समुद्र मंथन हुआ जिसमे 14 रत्न एवं एक अमृत का घड़ा प्राप्त हुआ। अमृत पीने वाले अमर होते हैं। अत: अमृत का बंटवारा स्वयं भगवान विष्णु के द्वारा देवताओं के बीच हुआ। बांटने के बाद जो अमृत घड़ा में बच गया, उसे सुरक्षित रखने हेतु भगवान इन्द्र के पास रख दिया गया। एक समय कर्दम ऋषि की पत्नी जो गरूड़ जी की माता थीं, अपनी सौतन कद्रु से बाजी हार कर शापित हुईं, तो उन्हें शाप से मुक्ति हेतु अमृत की आवश्यकता पड़ी। गरूड़ इन्द्रलोक जाकर वहां रखे अमृत के घड़ा को लेकर अपनी मां को शाप से मुक्ति दिलाने हेतु चल पड़े । अमृत का घड़ा ले जाने के क्रम में उन्हें इन्द्र से युद्ध करना पड़ा क्योकि इन्द्र के पास तो देवताओं ने उस अमृत घड़ा को सुरक्षित रखने हेतु रखा था। इन्द्र से बार-बार युद्ध के दौरान जिन स्थलों पर उस अमृत के घड़े को रखा गया, वे सभी कुम्भ स्थल बन गये। यानि 12 कुम्भ स्थल आदिकाल में था तो फिर आज मात्र 4 ही स्थलों पर कुम्भ का आयोजन क्यों? शास्त्रोक्त आधार पर द्वादश कुम्भस्थलों का ब्योरा करपात्री अग्निहोत्री परमहंस स्वामी चिदात्मन् जी महाराज के शब्दों में निम्न हैं
1 सिमरिया- यह बिहार राज्य के मिथिलांचल अंतर्गत बेगूसराय जिला में पड़ता है, यहां परमपुनीत कार्तिक मास में तुला की संक्रान्ति में वृहस्पति के योग से पूर्ण कुम्भ की प्रथा थी।
2 हरिद्वार- यह वर्तमान उत्तरांचल राज्य में पड़ता है, यहां वैशाख मास में कुम्भ राशि के गुरू और मेष के सूर्य में कुम्भ की परंपरा विद्यमान है।
3 नासिक- यह महाराष्ट्र राज्य में अवस्थित है, यहां भादव मास में सिंह के गुरू और सिंह के सूर्य में कुम्भ परंपरा विद्यमान है।
4 प्रयाग- यह उत्तर प्रदेश के अंतर्गत इलाहबाद क्षेत्र में पड़ता है, यहां माघ मास में मेष के गुरू और मकर के सूर्य में कुम्भ की परंपरा विद्यमान है।
5 उज्जैन- यह मध्यप्रदेश राज्य के अंतर्गत है, यहां भी वैशाख मास में सिंह राशि के गुरू एवं मेष के सूर्य में कुम्भ की परंपरा है।
6 तमिलनाडु – कुम्भकोनम तमिलनाडु में कावेरी नदी के तट पर कुंभ परंपरा थी।
7 जगन्नाथपुरी – यह उड़ीसा राज्य में है, यहां अषाढ़ मास में कुम्भ की परंपरा थी ।
8 रामेश्वरम् – यहां फाल्गुन मास में समुद्र तट पर कुम्भ परंपरा थी।
9 गंगासागर- पश्चिम बंगाल स्थित गंगासागर तट पर पौष मास में कुम्भ की परंपरा थी।
10 गुवाहाटी- असम राज्य स्थित गुवाहाटी शक्तिपीठ ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे चैत मास में कुम्भ की परंपरा थी।
11 द्वारका- गोमती संगम तट पर श्रावण मास में कुम्भ परंपरा थी।
12 कुरूक्षेत्र- हरियाणा क्षेत्र में कुरूक्षेत्र स्थित ब्रहा्रसरोवर किनारे अग्रहण मास में कुम्भ परंपरा थी।
उपरोक्त तथ्यों पर अगर गौर किया जाए है तो स्पष्ट होता है कि पूरे राष्ट्र के अंदर प्रत्येक क्षेत्र में बारी-बारी से कुम्भ परंपरा का प्रचलन प्रारंभ कर हमारे संतों, ऋषियों-मुनियों ने वर्ष में एक बार तमाम संतों, ऋषियों-मुनियों, धर्माचार्यों विद्वतजनों एवं भक्तों को एक साथ, एक स्थल पर एकत्रित होकर अपौरूषेय वैदिक सनातन धर्म आधारित संस्कृति एवं सभ्यता का पूर्ण विवेचन एवं विश्लेषण करने की नींव डाली थी। कुम्भ परंपरा का उद्देश्य पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधना, राष्ट्र की राजनीति को धर्म आधारित रखना, अराजकता के बीज को अंकुरित होने से रोकने हेतु शास्त्र सम्मत निर्णय, सत्संग के माध्यम से समाज को सनातन धर्म आधारित सदाचरण की शिक्षा देना, मानव को मानवता के पाठ अंतर्गत माता-पिता और गुरू सहित शास्त्र के अनुशासन की राह दिखाना आदि-आदि था।
फलत: आदिकाल में हमारा राष्ट्र सुसंस्कृति एवं सभ्यता की पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुका था। इन्हीं वैदिक परंपरा के वशीभूत हमारे राष्ट्र के अंदर अनेकता में एकता फलीभूत थी और अभी भी अंशत: पाया जा रहा है। कालक्रम में 8 कुम्भ स्थलों पर कुम्भ प्रथा विलुप्त हो गई। विलुप्त कुम्भ स्थल में ही एक सर्वश्रेष्ठ आदि कुम्भ स्थल है मिथिलांचल अंतर्गत गंगातट पर स्थित सिमरिया घाट। विचारणीय तथ्य है कि प्रत्येक सृष्टि के चार युग होते है क्रमश: सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। वर्तमान सृष्टि में शास्त्रानुसार सतयुग का प्रारंभ पुनीत मास कार्तिक के अक्षय नवमी को हुआ है और इसी आधार पर इस पवित्र मास में तुला की संक्रांति में वृहस्पति के योग से पूर्ण कुम्भ तथा मेष की संक्रांति में वृहस्पति के योग से अद्र्धकुम्भ की व्यवस्था सिमरिया में गंगा तट पर एक माह कल्पवास कर गंगा सेवन की प्रथा विद्यमान है।
त्रेता युग का प्रारंभ वैशाख मास के अक्षय तृतीया को हुआ जिसके आधार पर द्वितीया कुम्भ स्थली मां गंगा के तट पर हरिद्वार को बनाया गया, जहां बैशाख मास में कुम्भ राशि के गुरू एवं मेष के सूर्य में योग से अभी भी कुम्भ प्रथा विद्यमान है। द्वापर का आरंभ भाद्व मास में कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को हुआ, अत: तीसरा कुम्भ स्थल महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के तट बना, जहां भाद्व मास में सिंह राशि के गुरू एवं सूर्य के योग से कुम्भ प्रथा विद्यमान है। कलियुग का प्रारंभ माद्य मास के कृष्णपक्ष चतुर्दशी को हुआ, इसी आधार पर चतुर्थ कुम्भ स्थल इलाहाबाद स्थित गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम स्थल प्रयाग में हुआ। यहां माघ मास में मेष राशि के गुरू और मकर के सुर्य में योग से कुम्भ प्रथा विद्यमान है।
यह दु:खद है कि सृष्टि के आदि युग सतयुग के आदि कुम्भ स्थल सिमरियाघाट पर कुम्भ प्रथा को विलुप्त होने दिया गया, जबकि बाकी तीनों युग के प्राकट्य आधारित कुम्भ स्थल हरिद्वार, नासिक और प्रयाग की कुम्भ प्रथा अभी भी विद्यमान है। इतिहास साक्षी है कि मिथिलांचल के सिमरिया गंगातट की कुम्भ प्रथा राजा करालजनक के पूर्व तक चल रहा था, लेकिन करालजनक के राज्य में उभरे कदाचार एवं कुव्यवस्था तथा बौद्ध सम्प्रदाय के आगमनोपरांत इस प्रथम कुम्भ स्थल सिमरिया घाट पर कुम्भ प्रथा लुप्त हो गया।
उपरोक्त सारे तथ्यों पर चिंतनोपरांत अखिल भारतीय सर्वमंगला अध्यात्म योग विद्यापीठ, विद्याशक्तिपीठ, सिद्धाश्रम, मां कालीधाम, सिमरियाधाट के संस्थापक करपात्री अग्निहोत्री परमहंस स्वामी चिदात्मन् जी ने स्पष्ट किया कि अगर राष्ट्र को पुन: आदिकाल की तरह सुसंस्कृत एवं सुसभ्य बनाना है, अगर राष्ट्र एवं विश्व के अंदर वास्तविक शांति स्थापित करना है, तो पुन: शेष आठों कुम्भ स्थल पर विलुप्त हुई कुम्भ परंपरा को शुरू कराना होगा। तभी हमारे राष्ट्र के अंदर राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र की एकता व अखंडता बरकरार हो पाएगी। मानव फिर से शास्त्र के अनुशासन को बरतेगा और इसी से विश्व का भी कल्याण संभव हो सकता है।

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