क्षत्रिय धर्म और अहिंसा ( है बलिदानी इतिहास हमारा ) अध्याय – 15 (क) भाई सती दास मती दास का गौरवमयी बलिदान

सजी रही बलिदानी परम्परा

प्रभाकर माचवे अपनी पुस्तक ‘छत्रपति शिवाजी’ की भूमिका में लिखते हैं :- “शिवाजी के साथ समकालीन फारसी शाही इतिहासकारों ने और बाद में अंग्रेज इतिहासकारों ने भी बड़ा अन्याय किया है । कुछ लोगों ने उन्हें सिर्फ एक साहसी, लड़ाकू , लुटेरा तो औरों ने ‘पहाड़ी चूहा’ और दूसरे लोगों ने उन्हें एक जातीय तबके का गुरिल्ला बना कर छोड़ दिया है। असल में आज जब उनके पूरे काम को देखते हैं तो पता चलता है कि मध्ययुग के संस्कारों , रूढ़ियों और जकड़बंदियों के बावजूद उन्होंने कितने दूर की सोची और पूरे भारत में स्वराज की नींव डाली । इस कारण अन्याय और अत्याचार का डटकर मुकाबला किया। सब जनजातियों को संगठित किया , नौसेना बनाई और किलेबंदी की और बहुत सी ऐसी बातें कीं जो उस जमाने के लिए बहुत दूरदर्शिता और राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देती हैं।”
शिवाजी के सम्बन्ध में उपरोक्त कथन पूर्णतया सत्य है। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता के राजनीतिक आन्दोलन को एक नई ऊंचाई प्रदान की और उनकी रणनीति व सोच के अन्तर्गत बहुत शीघ्र ही ऐसी परिस्थिति बनी कि मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया । दुर्भाग्य का विषय है कि शिवाजी महाराज की इस प्रकार की रणनीति और योजना पर न तो कोई शोध किया जाता है और ना ही किसी विद्यार्थी को पीएचडी की डिग्री दी जाती है । जिस इतिहास को हमको पढ़ाया जा रहा है उसकी व्यवस्था के अन्तर्गत ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि शिवाजी पर भी कोई शोध प्रबन्ध यहाँ हो सकता है। यदि कुछ देर के लिए शिवाजी को ‘पहाड़ी चूहा’ भी मान लिया जाए तो भी उस ‘पहाड़ी चूहे’ का साहस इसलिए वन्दनीय और अभिनन्दनीय है कि वह ‘हाथी’ से टकराने का साहस रखता था।
शिवाजी और उनके उत्तराधिकारियों के पराक्रम पर हमने अपनी पुस्तक ‘ हिन्दवी स्वराज के संस्थापक शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी’ – में विस्तार से प्रकाश डाला है । जिससे पाठक लाभ ले सकते हैं।
उक्त पुस्तक में हमने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि शिवाजी और उनके उत्तराधिकारियों के माध्यम से भारत का पौरुष और पराक्रम सदा जीवन्त बना रहा और भारत ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ – के आधार पर शत्रु का सामना करता रहा।

गुरु हरीकृष्ण और औरंगजेब

औरंगजेब के शासनकाल में अल्पवयस्क गुरु हरीकृष्ण को बादशाह के द्वारा दिल्ली बुलाया गया । गुरुजी दिल्ली पहुँच गए , परन्तु दिल्ली पहुँच कर भी उन्होंने औरंगजेब से मिलने से मना कर दिया । इस प्रकार उन्होंने औरंगजेब को एक प्रकार से खुली चुनौती दे दी कि -‘मैं तुझसे नहीं मिलूँगा , तुझ में साहस है तो जो कुछ करना है ,वह कर ले । पर तू मुझे मेरे धर्म से भ्रष्ट नहीं कर सकता ।’ तब गुरुजी का सन्देहास्पद परिस्थितियों में 30 मार्च 1664 को निधन हो गया ।
भारत में पंजाब में मिलने वाली गुरु परंपरा ने भारत के इतिहास को एक से बढ़कर एक संस्कृति रक्षक वीर योद्धा प्रदान किये हैं । सचमुच इस गुरु परंपरा का बहुत ही गौरवमयी इतिहास है । कर्नल देवमित्र अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष में विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का इतिहास’ के पृष्ठ 199 पर लिखते हैं :-” भारत के योद्धाओं की उस ख्याति परम्परा में , यवन क्रूरता व निर्दयता से संघर्ष करने वाले वीरों में उन भारतीय नेताओं , जिन्हें सिख गुरु ही कहा जाता है , का नाम सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। उन्होंने मुगलों के दरबार के द्वार पर यथा दिल्ली तथा पंजाब में मुगलों के विरुद्ध एक शक्तिशाली भारतीय विद्रोह का ध्वज लहरा दिया । इस विख्यात परम्परा के बीच जिन्होंने भारत के घोर संकट के समय तथा असाधारण विषम परिस्थितियों में भारतीयों को संगठित करते रहने का क्रम जारी रखा तथा उन्हें साहस और दृढ़तापूर्वक अवरोध करके सशक्त प्रेरणा दी , श्रद्धा व सम्मान के साथ गुरु कहे जाते हैं । इस योद्धा परम्परा के दसों गुरु समूचे राष्ट्र के लिए पूजनीय हैं । क्योंकि उन्होंने इस्लामी क्रूरता समाप्त करने के लिए सारे भारतीयों को उत्तर में एक सूत्र में बांधा और संगठित किया। मुसलमान भी जो अपने सहधर्मियों की क्रूरता से घृणा करते थे , उनके शिष्य बन गए। योद्धा मुगल क्रूरता का दृढ़ता से विरोध करते रहे। जिस प्रकार दक्षिण में प्रातःस्मरणीय शिवाजी ने अपने सभी पुत्र , पौत्र व पुत्रवधुएं अपने राष्ट्र की रक्तिम वन्दन की बलिवेदी पर सहर्ष अर्पण कर दिए , उसी प्रकार सिख परम्परा के यह महामानव एक के पश्चात एक अपना सर्वस्व राष्ट्रीय स्वाभिमान को अक्षुण्ण रखने की दिशा में सहर्ष दृढ़तापूर्वक निछावर करते रहे।”

भाई सतीदास मतीदास का बलिदान

बलिदानों की इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए भाई सतीदास , भाई मतीदास , भाई दयाला जी और गुरु तेग बहादुर जी ने अपने अप्रतिम बलिदान दिए। जिससे स्वतन्त्रता की यज्ञवेदी और भी अधिक प्रचण्ड हो उठी।
‘श्री गुरु प्रताप ग्रंथ’ – से हमें पता चलता है – “भाई मतीदास जी से काजी ने पूछा कि मरने से पूर्व उसकी कोई अन्तिम इच्छा है ? मतीदास जी ने उत्तर दिया कि उसका मुँह उसके गुरु की ओर रखना । जिससे कि वह उनके अन्त समय तक दर्शन करता हुआ शरीर त्याग सके। लकड़ी के दो शहतीरों के पाट में भाई मतीदास जी को जकड़ दिया गया । उनका चेहरा गुरु तेग बहादुर जी के पिंजड़े की ओर कर दिया गया। दो जल्लादों ने भाई साहब के सिर पर आरा रख दिया। काजी ने फिर भाई साहब को इस्लाम स्वीकार करने की बात कही , किंतु भाई मतीदास जी उस समय गुरुवाणी का उच्चारण कर रहे थे और प्रभु चरणों में लीन थे । अतः उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया । इस पर काजी की ओर से जल्लादों को आरा चलाने का संकेत दिया गया । देखते ही देखते खून का फव्वारा निकल पड़ा । भाई मतीदास जी के शरीर के दो फाड़ हो गए । इस भयभीत और क्रूर दृश्य को देखकर बहुत से अनेक लोगों ने आंखों से आंसू बहाए , किन्तु पत्थर हृदय हाकिम इस्लाम के प्रचार हेतु किए जा रहे इस अत्याचार को अन्तिम क्षणों तक उचित बताते रहे।”

लखीशाह का बलिदान

अपने देश धर्म व संस्कृति के सम्मान की रक्षा के लिए ऐसा ही बलिदान गुरु तेग बहादुर जी ने 11 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक स्थित एक चबूतरे पर दिया था। बादशाह औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर जी के सिरविहीन शव को उठाने की उस समय के सारे हिन्दू समाज को एक चुनौती दे दी थी कि देखता हूं कौन ऐसा है जो गुरु तेग बहादुर के शव को उठाकर ले जा सकता है ? तब परम देशभक्त और गुरु भक्त लखीशाह अपने पुत्र के साथ गुरुदेव के सिर कटे पड़े शव को उठाकर लाने में सफल हुआ था। यद्यपि महान देश भक्ति के इस कार्य को सिरे चढ़ाने के लिए लखीशाह को जहां गुरु जी का शव पड़ा हुआ था , वहां अपनी ही कटार से अपना सिर काटकर अपने शरीर को बिछाना पड़ा था । उसने पहले ही अपने पुत्र से कह दिया था कि जहाँ गुरुजी लेटे हुए हैं यहाँ मैं लेट जाता हूँ और तुम इनके शव को उठाकर तुरन्त भाग जाओ । लखीशाह ने ऐसा केवल इसलिए किया था कि प्रहरी इस भ्रान्ति में रहें कि वहाँ गुरु तेग बहादुर जी का शव ही पड़ा हुआ है।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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