दुख में कराहो नहीं और सुख में सराहो नहीं

पूजा का महत्व

जब किसी में श्रद्धा होती है तो उसको दिल से पूजने का मन करता है क्योंकि पूजा हमारी श्रद्धा का प्रतिबिम्ब है। कुछ लोग रोज पूजा करते हैं कुछ लोग सप्ताह में महीने में या पर्व के अनुसार पूजा करते हैं। आम आदमी से लेकर विशेष आदमी तक सभी पूजा करते हैं । उसके फल के लिए लालायित रहते हैं। यद्यपि गीता जैसे ग्रंथ में निष्काम पूजा की बात की गई है , क्योंकि ईश्वर तो आपके मन के अंदर भावों को भी पहचानता है । अतः ऐसी पूजा की क्या आवश्यकता है जो किसी कामना के वशीभूत होकर की जाए ? ईश्वर की भक्ति कोई सौदा नहीं है कि पैसे दो और सौदा ले लो । वहां तो बिना पैसे का व्यापार होता है और व्यापार भी ऐसा जिसमें नफ़ा ही नफ़ा है । लाभ ही लाभ है । घाटे का तो कहीं प्रश्न ही नहीं है ।पूजा एक कर्म है । जी हां, एक ऐसा कर्म जो निष्काम भाव से किया जाता है, जो बिना किसी शर्त के किया जाता है। गीता के अनुसार भारतीय अध्यात्म कर्म करने को तो आदेशित करता है पर फल की इच्छा में कर्म का बंधन को उचित नहीं मानता और कर्म बंधन से मुक्त रहकर कार्य करना ही निष्काम कर्म दर्शन का सिद्धांत है। जीवन का संग्राम निष्काम होकर लड़ना ही श्रेयस्कर है। केवल संकीर्तन, आरती, पाठ ,हवन ,माला फेरना आदि सभी प्रभु को प्रसन्न करने के लिए पूजा के साधन माने गए हैं , परंतु इसमें भी निष्काम भाव होना चाहिए । निष्काम भाव के बिना प्रभु प्रसन्न नहीं होते हैं ।

प्रसन्नता

मनुष्य यदि प्रसन्न चित्त रहता है तो उसके आसपास का सारा वातावरण भी प्रसन्नतामय हो जाता है।
प्रसन्नता भी मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती है और प्रसन्नता मनुष्य के अंदर एक अच्छा गुण होता है जो सकारात्मकता का प्रादुर्भाव करता है। प्रसन्नता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि जो व्यक्ति सुखी और साधन संपन्न है वही प्रसन्न हो सकता है। वास्तविकता इसके विपरीत है । संपन्न और धनी व्यक्ति भी चिंतित तनावग्रस्त असंतुष्ट और उद्विग्न बना रहता है। जो मनुष्य दुखी रहते हुए भी प्रसन्न रहता है, वास्तविक प्रसन्नता उसी की है । क्योंकि सुख और दुख को मनुष्य ईश्वर के दिए हुए मानकर प्रसन्नतापूर्वक जीवन यापन करता है । दुख में दुखी नहीं और सुख में सुखी नहीं । किसी कवि ने कहा है कि :–
दुख में कराहो नहीं ,
सुख में सराहो नहीं ।
जिसके भाव इस प्रकार के हो जाते हैं वह समभाव बरतने लगता है । किसी नेतुलसीदास जी से पूछा कि आपके प्रभु राम की विशेषता क्या है ? उन्होंने कहा कि मेरे प्रभु राम सूर्यवंशी हैं ,जैसे सूर्य उदय होते हुए भी लाल होता है और अस्त होते हुए भी लाल होता है , वैसे ही मेरे प्रभु राम सुख और दुख दोनों कालों में समान रहते हैं । जब ऐसी भावना बन जाती है तो उसकी रंगत हमारे चेहरे पर छा जाती है । ऐसी अच्छी और मनोहारी अवस्था को प्राप्त पुण्य आत्माएं जब कहीं नजर आती हैं तो उन्हें देखने से ही बहुत कुछ शांति प्राप्त होती है । उनके जीवन का संदेश ही यह है कि दुख में कराहो नहीं और सुख में सराहो नहीं ।
पूजा या ईश्वर की भक्ति से हमारी आत्मा बलवान होती है । हमारा आत्मबल बढ़ता है। ईश्वर भक्त अनेकों लोगों के बीच में भी अपनी बात को बड़े धड़ाके से रखता है और अच्छे अच्छों की बोलती बंद कर देता है । वह यह नहीं देखता कि मैं यहां पर अकेला हूं या यहां पर मेरा कौन होगा ? ईश्वरीय कृपा उसके साथ होने से उसे हमेशा यह अनुभव होता रहता है कि मैं अकेला नहीं हूं ।मेरे साथ परमपिता परमेश्वर की असीम शक्ति है । मैं करने वाला भी कुछ नहीं हूं ।जो भी कराएगा वह ईश्वर ही कराएगा। इसलिए वह अपनी बात को धड़ल्ले से बोलता है।
जिसका अंतःकरण बलवान है , प्रसन्नता उसकी दासी है। प्रसन्नता वाला व्यक्ति हमेशा उदास और संतुलित दृष्टिकोण वाला होता है । जो प्रत्येक परिस्थिति में हंसता हंसाता रहता है।
संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे असुविधा और प्रतिकूलताओं का सामना न करना पड़ा हो लेकिन जो असुविधा प्रतिकूलताओं के मध्य भी मुस्कुराता है वही आत्मस्थ है।
प्रसन्नता ईश्वर प्रदत एक वरदान है जो सुसंस्कृत मनोभूमि के व्यक्ति को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति स्वयं आनंदित रहेगा और दूसरों को भी आनंदित करेगा । दूसरों के शुभ की सोचेगा उसका स्वयं का शुभ होगा । ईश्वर की अनुकंपा दूसरे पर चाहेगा तो उस पर भी ईश्वर की अनुकंपा होती है।

प्रेम के आयाम

प्रेम शब्द अपने आप में एक अनूठा एवं बेजोड़ शब्द है जो सारी सृष्टि में एक महत्वपूर्ण गुण है । जिससे सब जुड़े रहते हैं प्रेम भावों में होता है । प्रेम का स्वरूप बहुआयामी होता है। प्रेम की पराकाष्ठा का नाम धर्म है । जैसे धर्म नाम का तंतु सब में समाविष्ट होकर सभी को एकात्मता के भाव से संतुलित करता है , समन्वित करता है , उन्हें जोड़ता है । वैसे ही प्रेम नाम का तंतु भी सबमें समाविष्ट होकर सबको संतुलित करता है , जोड़ता है । जब यह प्रेम नाम का तत्व अपनी परिपक्व अवस्था में पहुंच जाता है तो लोग इसी को धर्म कहने लगते हैं। जब यह कहा जाता है कि सबसे प्रेम करो तो उस मानना चाहिए कि उसका भी प्राय यही होता है कि सबके साथ धर्म पूर्वक व्यवहार करो।
हम प्रेम को स्त्री और पुरुष की दैहिक सीमा में बांध कर देखते हैं तो यह अनुचित है बल्कि यह समस्त सृष्टि के प्रति अर्थात सभी जीव और निर्जीव के प्रति होती है । पहाड़ों की , जल की , पृथ्वी की रक्षा करना केवल प्रेम से ही संभव है । यदि इनके प्रति प्रेम होगा तभी हम उनके संरक्षण की बात करेंगे । इसलिए प्रेम सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता । सच्चा प्रेम आकाश की तरह विस्तृत विशाल होता है। प्रेमी मनुष्य सहृदय ही होता है । प्रेमी मनुष्य ही परम आनंद की अनुभूति को प्राप्त करता है । जब व्यक्ति ईश्वर से प्रेम करता है और उसको जो परमानंद की प्राप्ति उस प्रेम के माध्यम से होती है वह अवर्णनीय है। प्रेम की भाषा मूक होती है अर्थात प्रेम की अभिव्यक्ति की आवश्यकता के लिये शब्दों के बोलने की आवश्यकता नहीं होती ।प्रेम की भाषा के लिए आंखें प्रदर्शन है । प्रेम अनंत और अनादि है।

जीवन संघर्ष

सृष्टि के आरंभ काल से प्रत्येक जीवधारी अपने जीवन के संघर्ष के लिए संघर्ष रत रहता है। जीवन में संघर्ष जितना उच्च स्तर का होगा उतने ही उच्च स्तर का वह व्यक्ति होगा जिसने संघर्ष किया होगा । जो अपने संघर्ष करने से स्वयं रास्ता बना कर चलता है उसे उस रास्ते पर चलने में अतीव प्रसन्नता का अनुभव होता है । यद्यपि अपने पूर्वजों के बताए गए रास्ते पर चलना भी अपनी जगह उचित होता है, परंतु शूरवीर वही है जो अपने संघर्ष से अपना रास्ता तैयार करता है । संघर्ष करने वाले व्यक्ति या तो टूट कर बिखर जाता है या अपने व्यक्तित्व का विस्तार कर निखर जाता है । वह श्रेष्ठ बनकर अपने लिए अपने परिवार के लिए और अपने स्वास्थ्य के लिए एक वरदान सिद्ध हो जाता है।
संघर्षशील व्यक्ति को कोई भी विपरीत परिस्थिति निराश नहीं करती कोई भी तूफान उसको काट कर फेंक नहीं सकता बल्कि संघर्षशील व्यक्ति को धैर्य से ऐसी विपत्तियों का सामना करना आता है और वह मुस्कुराते हुए संघर्ष करता है । बड़ी से बड़ी विपत्ति भी उसके सामने विफल हो जाती है। संघर्षशील व्यक्ति की साधना संकल्प और प्रतिभा अवश्य ही मुखरित ,पल्लवित एवं पुष्पित होती है । संघर्षशील व्यक्ति संकट और परीक्षा के समय घबराते नहीं हैं बल्कि ऐसे समय में वह अपनी पहचान और अस्तित्व बचाते ही नहीं बल्कि उसको और प्रखर करते हैं । क्योंकि वे जानते हैं कि संघर्ष में तपकर ही महानता को प्राप्त किया जा सकता है । जैसे कुंदन आग में तप करके निर्मल होता है ।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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