इस प्रकार जब हम यह कहते हैं कि ‘कंकर-कंकर में शंकर हैं’-तो उसका अभिप्राय यही है कि हर कंकर शंकर का निर्माण करने में सहायक है। इसे आप यूं भी कह सकते हैं कि जब हर ‘कंकर’ की एक दूसरे के साथ जुडऩे की भावना होती है तो वह एक विशाल चित्र का रूप बन जाता है, पर जब वह टूटने लगता है, उसका क्षरण होने लगता है तो वह विशाल चित्र टूटते -टूटते विनाश को प्राप्त हो जाता है। वर्तमान विश्व इसी दुर्दशा को प्राप्त होता जा रहा है।
वर्तमान विश्व की इस दुर्दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए और उसे इस दुर्दशा से उबारने के लिए ही कहा गया है :-

यावत्स्यथमिदम् शरीरमरू जं यावज्जरा दूरतो,
यावच्चेन्द्रियशक्तिर प्रतिहता यावत्क्षयो नायुष:।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान
प्रोददीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:।।

(वै. श. 75)

कहा गया है कि-”हे मनुष्य ! जब तक तेरा भगवान का दिया हुआ शरीर स्वस्थ है, इसमें कोई रोग नहीं है-किसी भी कार्य के करने में और प्रभु भजन में जब तक इसे कोई कष्ट नहीं हो रहा है, अर्थात जब तक इससे वृद्घावस्था पूर्णत: दूर है, अथवा जब तक यह बुढ़ापे के आक्रमण से अपने आपको सुरक्षित अनुभव कर रहा है, जब तक तेरी इंद्रियों की शक्ति भी बनी हुई है और तेरे नियंत्रण में है, आयु का किसी भी प्रकार से क्षय नहीं हुआ है, तब तक संसार के किसी भी बुद्घिमान व्यक्ति को चाहिए कि आत्मकल्याण का उपाय करे, ऐसा मार्ग अपनाये जो अपना और संसार का कल्याण कराये।” संसार में आकर जोडऩे-जोडऩे की आत्मघाती नीति का परित्याग करे और ‘छोडऩे-छोडऩे’ की आत्मकल्याणी और सर्वकल्याणी नीति अर्थात इदन्नमम् की नीति का पालन करे जीवन को सार्थक बनाये, नहीं तो घर जल जाने पर कुआं खोदने से क्या लाभ होगा।
जो लोग सार्थक जीवन जीते हैं वे संसार में हर क्षण प्रसन्नता को खरीदते-बांटते रहते हैं। उनका व्यापार हो जाता है-खुशियां खरीदना और बांटना। व्यापार भी कैसा लेते हैं- बड़ा मूल्य देकर और बांटते हैं नि:शुल्क। पर फल पाते हैं-अप्रत्याशित लाभ का। एक विद्वान या ब्राह्मण जीवन भर नि:स्वार्थ भाव से ज्ञान बांटता रहा, पर ज्ञान बांटने से पूर्व ज्ञान प्राप्ति का अथक परिश्रम किया और जब अपनी झोली पूर्णत: भर गयी तो फिर उसे बांटने लगा, बांटता गया, बांटता गया, ज्ञान था कि समाप्त ही नहीं हो रहा था..मानो वह ऐसा कुंआ बन गया था जो नीचे सीधे समुद्र से जुड़ गया था।
अब ज्ञान की जितनी बाल्टी खींचता जाता था कुंआ उतना ही भरता जाता था। वह ज्ञान बांटता गया और विद्यादान से बहुतों के जीवन में ज्ञान प्रकाश करता गया। उधर ईश्वर प्रसन्न होते गये-इस भक्त के इस ‘इदन्नमम्’ रूपी सार्थक जीवन पर। वह उस पर कृपालु होते गये-और अंत में उस साधक की जीवनमरण से मुक्ति हो गयी। कितना बड़ा पुरस्कार मिला? हमारे भारतवर्ष में जीवन की अंतिम गति या जीवन का अंतिम पड़ाव या जीवन का उद्देश्य यही मुक्ति रहा है। पर यह ध्यान देने की बात है कि यह मुक्ति उन्हीं को सुलभ होती है जो ‘इदन्नमम्’ के उपासक होते हैं।  
जिन महानुभावों ने संसार में रहकर भी संसार से दूरी बनाकर रखी, वे ‘इदन्नमम्’ के पुजारी बन कर जीवन के सही मार्ग को प्राप्त कर गये और मोक्ष पद के अभिलाषी अधिकारी बन गये। ‘इदन्नमम्’ की इस परंपरा के लिए यह आवश्यक नहीं कि जब आप संन्यासी हो जाएंगे तो उस समय ही आपको मोक्ष मिलेगा। मोक्ष घर में रहकर भी मिल सकता है और कदाचित यही कारण है कि एक गृहस्थी से ही यज्ञ में ‘इदन्नमम्’ बार-बार कहलवाया जाता है। यह तो एक साधना है जिसे घर में रहकर भी यदि सही भावना से किया जाए तो इसके शुभ परिणाम आते हैं।


डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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