इस लेख को आगे बढ़ाने से पहले हम एक छोटी सी कहानी से अपनी बात आरम्भ करेंगे । एक बार एक युवक एक ऋषि के आश्रम में पहुंचकर उनसे आत्मसाक्षात्कार करने का सरल उपाय पूछने लगा। महर्षि ने उस युवक के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि – ‘पुत्र आत्म साक्षात्कार करने का मार्ग तो बहुत कठिन है । तुम नहीं जानते कि इसकी प्राप्ति या सिद्धि के लिए कितनी बड़ी – बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?’ युवक ने कहा -‘ महर्षे ! मैं सभी कठिनाइयों का सामना करने को मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार हूँ । आप मुझे आत्मसाक्षात्कार का मार्ग बताने का कष्ट करें ।’
ऋषि ने कहा – :जंगल में जाकर एक वर्ष तक गायत्री मंत्र का जाप करो । इसके बीच में किसी भी प्रकार का व्यवधान तथा बाधा नहीं करनी है । एक वर्ष के पश्चात तुम मेरे पास इसी दिन आना । तब मैं तुम्हें बताऊंगा किआत्मसाक्षात्कार कैसे होता है ? ‘
युवक ने गुरुदेव से आज्ञा लेकर जंगल में एक वर्ष तक बिना किसी से बातचीत किए गायत्री मंत्र का जाप करने का निश्चय कर लिया और ऋषि की आज्ञा लेकर वहां से चला गया । युवक ने तपस्या एवं संयम पूर्वक एक वर्ष तक निर्बाध रूप से गायत्री मंत्र का जाप किया । एक वर्ष पूर्ण होने के पश्चात युवक आश्रम में पहुंचा । परंतु उसके आने से पहले ही गुरुजी ने अपने आश्रम की सफाई करने वाली एक युवती से कह दिया था कि जैसे ही वह युवक आज आश्रम में प्रवेश करे तो तुम अपनी झाड़ू से उसके ऊपर अधिक से अधिक धूल झाड़ देना । जैसे ही युवक ने आश्रम में प्रवेश किया तभी उस युवती ने अपनी झाड़ू से उसके ऊपर धूल झाड़ दी । युवक क्रोधित होकर उसे मारने के लिए दौड़ा । फिर स्नान करके तथा साफ-सुथरे वस्त्र पहनकर आश्रम में ऋषि जी के पास पहुंचा। ऋषि ने युवक को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा तुम तो क्रोधित होकर सांप की तरह काटने के लिए झपटते हो । जाओ फिर से एक वर्ष तक जंगल में गायत्री का जप करो । अभी तुम्हारी परीक्षा पूर्ण नहीं हुई ।
युवक आज्ञा का पालन करते हुए जंगल में जाकर गायत्री मंत्र का जाप करने लगा । एक वर्ष समाप्त होने के बात वह बहुत प्रसन्न हुआ । आज उसे पूर्ण विश्वास था कि गुरु जी इस बार तो उसे जरूर ही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग बता देंगे । युवक आश्रम की ओर चल दिया ।उधर महर्षि ने सफाई करने वाली युवती से फिर कह दिया कि इस बार जैसे ही वह युवक आश्रम के द्वार पर पहुंचे तभी उसकी छाती पर अपनी झाड़ू सटा देना । युवती ने आज्ञा का पालन करते हुए युवक की छाती पर झाड़ू सटा दी । युवक इस बार उसे मारने तो नहीं दौड़ा , पर क्रोधित होकर गालियां देते हुए बाहर चला गया स्नान करके नए वस्त्र पहनकर गुरुजी के पास पहुंचा ।
गुरुजी ने कहा – ‘युवक इस बार तुम क्रोधित होकर सांप की तरह काटने के लिए तो नहीं दौड़े पर सांप की तरह तुमने फुफकार लगाई थी । यदि तुमको आत्मसाक्षात्कार करना है तो फिर से जंगल में जाकर एक वर्ष तक फिर गयात्री मंत्र का जाप करना होगा।’ गुरु की आज्ञानुसार युवक फिर जंगल में जाकर एक वर्ष तक गायत्री मंत्र का जाप करने लगा । एक वर्ष की समाप्ति पर वह उसी दिन आश्रम में लौटने के लिए तैयार हुआ । इस बार उसे फिर आशा थी कि वह आत्मसाक्षात्कार का मार्ग प्राप्त कर लेगा । उधर गुरूजी ने सफाई वाली युवती से कह दिया – ‘इस बार युवक जैसे ही आश्रम में प्रवेश करे तभी उसके ऊपर कूड़े का भरा टोकरा उड़ेल देना ।’ युवती ने आज्ञा का पालन करते हुए युवक के ऊपर कूड़े का टोकरा उड़ेल दिया । इस बार युवक क्रोधित नहीं हुआ बल्कि हाथ जोड़कर कहने लगा – ‘माता ! तुम महान हो । तुम 3 वर्षों से मेरे दुर्गुणों का आभास मुझे कराती रही हो। मैं आपका यह उपकार कभी नहीं भूल सकता । आगे भी मेरा उद्धार इसी प्रकार करते रहना । युवा स्नान करके तथा वस्त्र पहनकर गुरुजी के पास पहुंचा। गुरुजी ने मुस्कुराते हुए कहा – ‘बेटा ! आज तुम आत्मसाक्षात्कार के योग्य हो गए हो।’
पाठकवृन्द ! इतिहास लेखन भी आत्म साक्षात्कार के समान ही है । इसमें अपने साथ भी न्याय करना होता है , समाज के साथ भी न्याय करना होता है और पाठक के साथ ही न्याय करना होता है । इसमें अतीत के साथ भी न्याय करना होता है , वर्तमान के साथ भी न्याय करना होता है और भविष्य के साथ भी न्याय करना होता है । यह सचमुच एक कठिन मार्ग है। जिसमें परीक्षाएं कभी कूड़ा लेकर खड़ी होती हैं , कभी झाड़ू लेकर खड़ी होती हैं तो कभी कुछ और ऐसी ही चीज लेकर हमारा स्वागत करती हैं जो हमारे धैर्य व संयम को भटकाने का काम करती हैं। भारतीय इतिहास में प्रदूषण के कूड़े का ढेर लगा पड़ा है। मित्रो ! बहुत सावधानी से इसको साफ करना है , तभी हम ‘राष्ट्रीय आत्मसाक्षात्कार’ कर सकेंगे।

भारतीय इतिहास परम्परा और बणिया लोग

भारतवर्ष में एक बंजारा जाति है । अब तो इसको बंजारा जाति के नाम से जानते हैं परंतु प्राचीन काल में यह व्यापार करने वाले लोगों का एक घुमन्तु दल हुआ करता था । जो देश – विदेश में घूमते हुए अपना व्यापार किया करता था । व्यापार को संस्कृत में ‘पण’ कहते हैं । पणजी शहर इसी ‘पण’ से ही बना है । जिसका अर्थ है कि यह शहर हमारे पूर्वजों ने व्यापार के केंद्र के रूप में स्थापित किया था। ‘विपणन’ जैसे शब्द भी इसी ‘पण’ से उत्पन्न हुए हैं । जो व्यक्ति ‘पण’ करे या व्यापार से जिसका सम्बन्ध हो , वह ‘पणज’ ( जिसका जन्म व्यापार से होता है ) करने वाला बना ,और ‘पणज’ से बणज करने वाला बणिया या बनिया हो जाता है । इस प्रकार प्राचीन काल के संस्कृत के ‘पण’ शब्द से आज का ‘बनिया’ शब्द बन गया । इसी प्रकार जो घूम – घूम कर अपने व्यापार का काम करता था उसको ‘पणजारा’ बणजारा या बंजारा कहा जाने लगा । आज हम हूण लोगों के बारे में बात करेंगे । इन हूणों के बारे में भी इतिहासकारों का यही मत है कि यह खानाबदोश अथवा बंजारा किस्म के लोग थे।
पश्चिम के इतिहासकारों और लेखकों की एक विशेषता है कि वह भारत से अलग अन्य देशों के लोगों के किसी भी शौक को बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत करते हैं , यहां तक कि उनकी कमियों को भी उनके एक अच्छे गुण के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास इनके द्वारा किया जाता है। इसके विपरीत हमारे पूर्वजों के किसी महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण कार्य या जीने की उत्तम से उत्तम प्रणाली को भी पश्चिम के ये भारतद्वेषी इतिहासकार महामूर्खता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं । फलस्वरूप वे हमारे पूर्वजों को घुमन्तु, यायावर , खानाबदोश , जंगली आदि का नाम दे देते हैं । जिससे ऐसा लगता है कि यह लोग बिना किसी उद्देश्य के जंगली रूप में यूं ही घूमते थे । जिनका कोई स्थाई निवास नहीं था और जिन्हें जीवन जीने का कोई अनुभव नहीं था । जिन्हें न सभ्यता का कुछ ज्ञान था और ना ही जिनके पास संस्कृति का कोई बोध था । हमें संसार के बारे में भी कुछ ऐसा ही आभास कराया जाता है कि यह सब अचानक और बेतरतीब ढंग से पैदा हो गया था । लोग बहुत देर तक यूं ही बेतरतीब घूमते रहे। सभ्यता और संस्कृति ने धीरे-धीरे जन्म लिया और यह उपकार पश्चिम के लोगों का रहा जिन्होंने इस बेतरतीब घूमते संसार को जीना सिखाया।
हमें वेद के दृष्टिकोण से यह नहीं समझाया जाता है कि संपूर्ण संसार का अस्तित्व में आना एक महान घटना थी , एक व्यवस्था थी और इस व्यवस्था को स्थापित करने वाला एक व्यवस्थापक था । जिसने सुव्यवस्थित ढंग से संसार को पहले दिन से चलना सिखाया। आर्यों के संपूर्ण भूमण्डल पर शासन करने के स्वर्णिम काल को पश्चिम के इतिहास लेखकों ने धूमिल करने का प्रयास अपनी इसी भारतद्वेषी भावना के कारण किया है। फिर भारत के उस गौरवपूर्ण अतीत से भारतीयों का सम्बन्ध समाप्त करने का प्रयास किया । इसके पश्चात आर्यों को ही भारत पर एक आक्रामक दिखाया है । जिस पर हम पूर्व में प्रकाश डाल चुके हैं।

हमारे यहाँ कबीला संस्कृति नहीं थी

यहाँ पर हम इतना कहना चाहेंगे कि हमारे देश भारतवर्ष में कबीलाई संस्कृति कभी नहीं थी । लोग सुव्यवस्थित ढंग से अपने व्यापार के लिए देश- विदेश का दौरा करते थे और बहुत अच्छे ढंग से अपना व्यापार सम्पूर्ण संसार में चलाते थे । यह सब कुछ सुव्यवस्थित और अनुशासित ढंग से होता था । जो पूर्णतया एक केन्द्रीय राजनीतिक शासन व्यवस्था से संचालित होता था । प्रत्येक व्यक्ति अपना व्यापार स्वतन्त्रता से चला सके और प्रत्येक व्यक्ति को अपने शारीरिक , सामाजिक और राजनीतिक विकास के सभी अवसर बड़ी सहजता से उपलब्ध हों , इसके लिए पूरी एक सुव्यवस्था कार्य करती थी। यह व्यवस्था बंजारा लोगों को भी सुरक्षा प्रदान करती थी और सम्पूर्ण भूमण्डल पर वह निष्कंटक आ जा सकते थे। तनिक कल्पना करें कि जिस समय आजकल जैसी न तो रेलें थीं , न ही यातायात के अन्य साधन थे , ना ही समुद्री यात्राओं का आज जैसा पूरा एक बेड़ा देश के पास था । जिन से व्यापार करने में सुविधा होती । उस समय भी देश-विदेश से व्यापार चलाने का पूरा एक तन्त्र हमारे पास विकसित हो गया था । उस सारे तन्त्र को देखने का काम यह बंजारा लोग ही करते थे । इस प्रकार उन बंजारा लोगों के ऊपर देश का पूरा का पूरा व्यापार निर्भर करता था । स्पष्ट है कि देश की आर्थिक स्थिति इन बंजारा लोगों के अधीन ही काम करती थी या कहिए कि इन्हीं के ऊपर निर्भर थी । तब इनको पूरी सुरक्षा दिया जाना शासन का प्रमुख उद्देश्य होता था । ऐसे में इन लोगों को घुमन्तु कहना या निरुद्देश्य घूमने वाली एक यायावर , खानाबदोश जाति कहना उनका तो अपमान करना ही है साथ ही अपने देश के प्राचीन प्रशासनिक तन्त्र की सफलता को नकारना भी है।
पश्चिम के इतिहासकार या लेखक हमारे इस प्रशासनिक तन्त्र और हमारी उन्नत सामाजिक , आर्थिक और व्यापारिक स्थिति पर कोई प्रकाश न डालकर उनके द्वारा हमें इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे हम यह सब कार्य जंगलीपन के अधीन होकर कर रहे थे।
जब किन्हीं कारणों से आर्यों का साम्राज्य संसार के विभिन्न क्षेत्रों से सिमटने लगा तो कुछ उपद्रवी लोगों ने इधर-उधर अपने-अपने राज्य स्थापित करने आरम्भ किए । इन लोगों में अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए परस्पर संघर्ष आरम्भ हुए । यह संघर्ष साधारण संघर्ष न होकर खूनी संघर्ष हुआ करते थे । जिसमें एक कबीला दूसरे कबीले को समाप्त कर देने के लिए हर प्रकार की दानवता का हथकंडा अपनाता था । संसार भर में हो रहे इन उपद्रवों की इस कबीलाई संस्कृति को भारत ने कभी स्वीकार नहीं किया । यह कबीलाई संस्कृति संसार में उस समय उत्पन्न हुई जब भारत पतन की ओर चलने लगा था । जो लोग इस कबीलाई संस्कृति को भारत की संस्कृति के साथ जोड़कर देखते हैं या भारत के लोगों में भी ऐसे ही अवगुण खोजने की कोशिश करते हैं , वह सचमुच इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय करते हैं ।
संसार में उपद्रव और अव्यवस्था का क्रम यहीं से आरम्भ हुआ । इसी से बाद में ईसाइयत और इस्लाम ने ऊर्जा प्राप्त की और उन्होंने भी ‘उपद्रव’ को ही राजनीति का मुख्य कार्य मानकर उसी रूप में प्रस्तुत किया । भारत के दृष्टिकोण से इस ‘उपद्रवी संस्कृति’ का नाम इतिहास नहीं है। भारत के दृष्टिकोण से यदि इतिहास को देखा जाएगा तो ‘उपद्रवियों का विनाश’ करना इतिहास है और उपद्रव करने की कभी मनुष्य सोचे तक भी नहीं , उसे ऐसा बना देना भारत की संस्कृति है। संपूर्ण मानवता के इतिहास को इसी भारतीय दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है। यदि इतिहास लेखक इस प्रकार के दृष्टिकोण को अपनाकर इतिहास लेखन के कार्य को करेंगे तो इतिहास सही स्वरूप में स्थापित होगा और इतिहास का अर्थ तथा महत्व भी बढ़ जाएंगे।

हूण कौन थे ?

संसार भर के किसी भी क्षेत्र से जब भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था शिथिल पड़ी या वहां पर भारतीयों का शासन ऐसे लोगों के हाथों में चला गया जो समाज विरोधी लोगों के या तो संरक्षक थे या स्वयं ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहित करके सत्ता पर काबिज हुए थे तो उस समय उन लोगों के लिए विशेष मुसीबत खड़ी हो गई जिन्हें भारतीय शासक पूरी सुरक्षा देकर उनका व्यापार आदि चलवाते थे । ऐसे असामाजिक राजाओं के शासनकाल में मूल रूप से भारतीय रहे यह व्यापारी या बंजारा प्रवृत्ति के लोग या किसी भी कारण से दूर देशों में जाकर काम करने वाले लोग अपने आपको फंसा हुआ अनुभव करते थे । हमारा मानना है कि हूण लोग भी इसी प्रकार की मुसीबत में फंसे हुए लोग थे।
जब आर्यों का साम्राज्य संसार भर से या तो सिमट रहा था या किन्हीं भी कारणों से पतन की अवस्था को प्राप्त हो रहा था तब हूण और मंगोल एक ही स्थान पर रहते थे। इतिहासकारों की मान्यता है कि हूण मूल रूप से (1400 से 200 ईसा पूर्व ) तक मध्य एशिया के खानाबदोश ( इस खानाबदोश शब्द के स्थान पर अपने इन सम्मानित भाइयों को बंजारा या किसी अन्य ऐसे ही सम्मानित शब्द से संबोधित किया जाना उचित होगा ) प्रजाति समूह की एक जाति के रूप में वहां पर निवास करते थे । कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि मंगोलिया , मंचूरिया तथा इसके उत्तर के साइबेरिया के भूभाग उनकी जन्मभूमि थे । हमारा मानना है कि यह लोग मूल रूप में भारतीय आर्यों की ही सन्तान थे । जो हूण प्रदेश में रहकर अपना व्यापार कर रहे थे । हूण देश के होने के कारण यह हूण कहलाए । हूण कोई जाति नहीं थी बल्कि इसे वैसे ही समझा जा सकता है जैसे आज महाराष्ट्र के लोग मराठा , पंजाब के पंजाबी व बंगाल के बंगाली कहे जाते हैं । हूण लोगों का दक्षिण के चीनी गांवों और नगरों पर आक्रमण करना , उन्हें लूटना और उसी से अपनी जीविकोपार्जन करना एक प्रकार से मुख्य व्यवसाय था । इनको इतिहासकारों ने लड़ाका और बर्बर योद्धा माना है । हमारा मानना है कि हूण लोगों के बारे में यह धारणा भी तब स्थापित की गई होगी जब उनको उनके मूल स्थान से या तो भगा दिया गया होगा या पराजित कर दिया गया होगा । क्योंकि इतिहास पराजित का नहीं बल्कि विजेता का गुणगान करता है।

हूण देश की स्थिति

कश्मीर के उत्तर में यारकंद और खिवा के क्षेत्रों को मिलाकर तुर्किस्तान का एक भाग प्राचीनकाल में हूण देश के नाम से प्रसिद्ध था। यारकंद वास्तव में ‘आर्यखंड’ से बिगड़ कर बना हुआ शब्द है। ‘आर्यखंड’ से ही स्पष्ट है कि यह कभी आर्यों का ही राज्य था। महाराजा रघु एशिया महाद्वीप के राजाओं को विजय करता हुआ कभी इस देश में पहुंचा था । यहां पर दीर्घकाल तक अनेकों आर्य राजाओं का शासन रहा है। जिनसे पता चलता है कि यहां के लोग आर्यों की ही सन्तानें रहे हैं।
‘आर्यवर्त्त का प्राचीन इतिहास ‘ – नामक पुस्तक में ठाकुर नगीना राम परमार से हमें पता चलता है कि 4200 ई0 पूर्व से आरम्भ होकर 599 ईसवी तक हूण देश में 4800 वर्ष तक एक ही वंश का शासन रहा।
हूणों की लूटपाट से दु:खी होकर चीन के तत्कालीन शासक चिन राजवंश के संस्थापक चिन – शी – हवडती ने 253 ईसा पूर्व में अपने देश की रक्षा करने के उद्देश्य से चीन की महान दीवार का निर्माण करवाया था । इस दीवार की लम्बाई 21196 किलोमीटर और 20 फीट की चौड़ाई है।
इतिहास के बारे में हमें सदा यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि यह विजेता का गुणगान करने वाला होता है । सामान्य रूप से वही इतिहास प्रचलन में आता है या उसी इतिहास लेखक के लेखों को प्रमाणिक माना जाता है जो विजेता का गुणगान करने वाला हो। पराजित लोगों को इतिहास हेय दृष्टि से देखता है और उनके बारे में ऐसी धारणा स्थापित करता है कि जैसे वह नितान्त मूर्ख , अज्ञानी और जंगली थे । उनका कोई उद्देश्य नहीं था और विजेता ही सर्वतोभावेन ठीक था। जबकि हम आजकल के समाज में भी ऐसा होते हुए देखते हैं कि जो लोग जालिम किस्म के चतुर और चालाक होते हैं , वह समाज में पंच – पंचायतों में भी एक अच्छे व्यक्ति के सामने जीत जाते हैं और कोर्ट – कचहरियों में भी जीत जाते हैं । इतना ही नहीं कई बार लट्ठ पिटाई में भी जीत जाते हैं । जबकि समाज यह सब कुछ जानता है कि सच क्या है ? जीत कौन से की होनी चाहिए और कौन से की हार होनी चाहिए – यह भी समाज को पता होता है , परंतु सब कुछ जान कर भी लोग चुप रहते हैं । इतिहास जीतने वाले का बन जाता है । कोई यह नहीं सोचता कि जो हारा है वह भी किन्हीं मूल्यों को लेकर खड़ा हुआ था । उसके वे मूल्य कौन से थे ? उसकी सोच कौन सी थी ? जिसके लिए वह एक बेईमान व्यक्ति के सामने लड़ने के लिए उठा था। इन प्रश्नों पर कोई ध्यान नहीं देता । जब हमारे सामने इतिहास इस प्रकार दम तोड़ता दिखाई देता है तो हमारे राष्ट्रप्रेमी व धर्म प्रेमी पूर्वजों को हराने वाले इतिहास में दर्ज उन बेईमानों के बारे में हम यह कैसे मान लें कि उन्होंने इतिहास लिखवाने में पूर्ण ईमानदारी का परिचय दिया होगा ? इतिहास के इस सत्य को समझ कर एक जिज्ञासु और गंभीर पाठक को पराजित व्यक्ति के बारे में एक बार नहीं कई बार सोचना चाहिए । उसके बारे में यह तथ्य खोजना चाहिए कि उसका उद्देश्य क्या था और उसे पराजित क्यों होना पड़ गया ?

इस दृष्टिकोण से सोचने पर हूणों को एक ही बार में ‘खानाबदोश’ नहीं कहा जा सकता । बहुत सम्भव है कि यह स्वयं को आर्यों के वंशज या उत्तराधिकारी समझकर उनके खोए हुए साम्राज्य को स्थापित करने के लिए चीनी शासकों या कबीलों के सरदारों से संघर्ष करते रहे हों । निश्चित रूप से चीन में उस समय तक स्थापित हो गए राजवंश को हूण लोगों का आर्यों का साम्राज्य खड़ा करने का प्रयास अनुचित ही लगता होगा । फलस्वरूप संघर्ष होना निश्चित था । चीन ने अपनी सुरक्षा के लिए एक लम्बी दीवार खड़ी कर ली और स्वयं को हूणों के सामने विजेता भी सिद्ध कर दिया , तब अपने साम्राज्य का सपना संजोने वाले हूणों को खानाबदोश , लुटेरा आदि यदि उनके इतिहासकार कहते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है ।
चीनी इतिहासकारों की दृष्टि में हूण लोग विदेशी थे क्योंकि वह भारतीय आर्यों की सन्तान थे।
भारत में जातीय वैमनस्य उत्पन्न करने के दृष्टिकोण से कुछ इतिहासकारों की मान्यता रही है कि जिस प्रकार हूणों ने भारत में आक्रमण कर यहाँ की धन-संपत्ति को लूटा, उसी प्रकार मंगोलों ने भी किया। कुछ विद्वान मानते हैं कि मंगोल ही हिन्दूकुश के आसपास मंघोल हुए और बाद में वे मुगल कहलाने लगे। बौद्ध धर्म का अनुयायी चंगेज खां एक मंगोल था। चंगेज खान ने अपने समय में इस्लाम के निरंकुश और क्रूर तानाशाह या डाकुओं का विरोध करने के लिए अपनी सेना तैयार की । उसने मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से मानवता को मुक्त करने के लिए उनके राज्यों को उखाड़ने का ऐतिहासिक कार्य किया । फलस्वरूप चंगेज खान ने अपने पराक्रम से मध्य एशिया में मुस्लिम साम्राज्य को लगभग नष्ट ही कर दिया था। बाद में उसके कबीले के लोगों ने इस्लाम अपना लिया था।
हमारा मानना है कि चंगेज खान पर भी फिर से शोध हो उसे पश्चिम के इतिहासकारों के दृष्टिकोण से देखने की प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए । विचार करना चाहिए कि उसने हिंसा में लिप्त रहे मुस्लिम राज्यों का विरोध क्यों किया और उसने इस्लाम को ही उखाड़ने का संकल्प क्यों लिया ? जबकि प्रेम , अहिंसा और शान्ति के धर्म बौद्ध धर्म को उसने अपने लिए क्यों उचित माना ?
इतिहास का यह एक सर्वमान्य सत्य है कि गुर्जर , प्रतिहार, परमार, भोज आदि योद्धाओं ने पश्‍चिम भारत में विदेशी आंक्राताओं से लड़ाई की और भारत को कई सदियों तक विदेशी आक्रान्ताओं से सुरक्षित रखा। हूण इन्हीं गुर्जरों की एक शाखा के लोग रहे हैं।
भारतीय इतिहासकार मानते हैं कि कॉकेशस से हूणों ने अपना विजय अभियान आरम्भ किया । यहाँ से निकलकर वह मध्य और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में फैलते चले गये। जब चीन की राजसत्ता का पलड़ा भारी हो गया तो उसने 176 या 174 ईसा पूर्व में हूणों को अपने यहाँ से भागने के लिए विवश कर दिया। जिस कारण ये लोग पश्चिमी पड़ोसी मंगोलिया के समीप कांसू प्रान्त में रह रही यूची जाति की ओर बढ़े। उस पर आक्रमण कर उसे वहाँ से भागने के लिए विवश कर दिया। इस समय हूणों का राजा चू – चेन था।

भारत में हूण शासक

450 ईसवी के लगभग हूण गांधार क्षेत्र के शासक के रूप में कार्य कर रहे थे । उस समय उन्होंने सिंधु घाटी प्रदेश को अपने आधिपत्य में कर लिया था। इसके पश्चात वह निरन्तर अपने साम्राज्य विस्तार की योजना पर कार्य करने लगे । जिसका परिणाम यह हुआ कि कुछ समय पश्चात ही उन्होंने मारवाड़ और पश्चिमी राजस्थान के कुछ क्षेत्रों को भी जीत लिया । 495 ईसवी के लगभग उन्होंने अपने शासक तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तों से पूर्वी मालवा छीनकर अपने अधिकार में कर लिया। एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं । जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था । यह पवैय्या नगरी आज के ग्वालियर के पास स्थित थी ।
तोरमाण की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना । मिहिरकुल तोरमाण भी अपने पिता की भान्ति एक अच्छा शासक सिद्ध हुआ। वह स्वयं अपने पिता के साथ कई विजय अभियानों में साथ रहा था । उसके शासन काल का एक अभिलेख ग्वालियर के सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ है । जिससे पता चलता है कि हूणों ने मालवा क्षेत्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी । उसने गुप्त राजाओं को भी कर देने के लिए बाध्य कर दिया था । मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बना कर वहीं से शासन करना आरंभ किया । मिहिरकुल हूण एक कट्टर शैव था । उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मन्दिर बनवाये ।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारे हिंदू शासकों को इतिहास में अक्सर शिव भक्त कहकर या वैष्णवी या ब्राह्मण धर्म का अनुयायी कहकर संबोधित किया जाता है । इस प्रवृत्ति को इतिहास में विदेशी लेखक इसलिए अपनाते हैं कि इससे वह शासक हिंदू शासक या आर्य शासक न दीखकर शैव , वैष्णव या ब्राह्मण या किसी और जाति का दिखाई देने लगे । इसका उन्हें लाभ यह होता है कि पाठक के ह्रदय में उस शासक के बारे में यह विचार बनता है कि यह तो अमुक जाति का शासक था हमारा या मेरा शासक नहीं । अतः हमको अपने किसी भी आर्य राजा या हिन्दू शासक के बारे में पढ़ते समय यह विचार करना चाहिए कि वह यदि मन्दिर बना रहा था या भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए कोई भी ऐसा कार्य कर रहा था जिससे लोगों को हमारी संस्कृति की महानता का बोध होता हो तो उसे आर्य राजाओं की परम्परा का ही राजा मानना चाहिए । हम मन्दिर संस्कृति के कहीं समर्थक या विरोधी हो सकते हैं , परन्तु इसके उपरान्त भी हमें यहाँ पर इस बहस में ना पड़कर यह विचार करना चाहिए कि पराभव के उस काल में भी यदि वह व्यक्ति भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित होकर कुछ कार्य कर रहा था तो हमें उसका सम्मान करना चाहिए।

मिहिरकुल के बारे में

मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व तोरमाण ने भगवान स्थाणु (शिव) के अतिरिक्त किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था । मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा है । मिहिरकुल के सिक्कों पर ‘जयतु वृष’ लिखा है जिसका अर्थ है – जय नंदी । वृष शिव कि सवारी है जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं ।
कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस एक यात्री जो मिहिरकुल के शासनकाल में भारत आया था , ने“क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी” नामक अपने ग्रन्थ में लिखा है कि हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं,उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता है , वह भारत का स्वामी है । मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग 629 ईसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ “सी-यू-की” में लिखता है कि सैकड़ों वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था । वह कहता है कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था।
ह्वेनसांग हमें बताता है कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी हानि पहुंचायी । वह कहता है कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से बौद्ध धर्म के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की । परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास,किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने के स्थान पर एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में भेज दिया ।मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह क्रोध में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश की राजाज्ञा जारी कर दी । उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध बौद्ध मठों को तोड़ने का आदेश दे दिया और भिक्षुओं का सामूहिक संहार करा दिया। ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौद्धों का सर्वनाश ही कर दिया था ।
गान्धार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण,उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर,उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया । किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा । कल्हण ने बारहवीं शताब्दी में “राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा है। उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया है । वह कहता है कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड़ से गिरते हुए हाथी की चिंघाड से आनन्दित होता था। उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे।। उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया । कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मन्दिर बनवाया था।उसने गान्धार क्षेत्र में 700 ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे ।।कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं ।
मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे ।हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है । कहा जाता है कि इसे हूण भट ने बनवाया था ।यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भट का अर्थ योद्धा होता है । उन शासकों के इस प्रकार के कार्यों से उनकी हिंदू निष्ठा का बोध होता है और पता चलता है कि वह भारतीय संस्कृति के प्रति कितने समर्पित थे ? जो लोग इसके उपरान्त भी उन्हें विदेशी मानते हैं उन्हें अपनी धारणा पर अवश्य ही विचार करना चाहिए।

कोटा बूंदी का हाड़ौती क्षेत्र

हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता है । राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था ।आज भी इस क्षेत्र में हूण गोत्र के गुर्जरों के अनेक गांव आज भी हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना है ।इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं । बूंदी क्षेत्र में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं । बिजौलिया, चित्तौड़गढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहाँ हूणों ने तिलस्वा महादेव का मन्दिर बनवाया था । यह मन्दिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है । कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हूण और उनका राजा मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं ।
गुर्जर इतिहास के जानकारों अनुसार हूण गुर्जर लोगों का एक वंश था । जिनका मूल स्थान वोल्गा के पूर्व में था। उन्होंने 370 ईस्वी में यूरोप में विशाल साम्राज्य खड़ा किया था। कहते हैं कि हूणों की दक्षिणी शाखा को हारा-हूण कहते थे। संभवत: हारा-हूण से ही हारा/हाडा गोत्र की उत्पत्ति हुई। हमारा मानना है कि उत्पत्ति होने का अभिप्राय यह नहीं है कि वह सृष्टि प्रारंभ से वहीं रहते आ रहे थे और इस रूप में वह भारतीय आर्यों से अलग हैं । जब मूल रूप से भारत के त्रिविष्टप अर्थात आज के तिब्बत से मानव उत्पत्ति होकर इधर-उधर गई तो ये लोग भारतीय आर्यों की ही संतानें थे । कुछ देर वहाँ बसे होने के कारण उन्हें वहाँ का निवासी माना जा सकता है , परंतु आर्यावर्तकालीन भारत में वह देर तक भारत के ही साथ रहे । इसलिए भारत के साथ रहने की उनकी स्मृतियां निश्चय ही भारत का ऋणी बनाती रहीं ।
हमारा यह भी मानना है कि कालान्तर में हूण प्रान्त में बसे होने के कारण यह हूण कहलाए , जिसका स्पष्टीकरण हम ऊपर दे आए हैं।

हुंडी और हूण का मेल

भारत में एक शब्द प्रचलित है ‘हुंडी’। सेठ-साहूकारों के पास प्राचीनकाल में हुंडी पत्र होता था। हुंडी एक लिखित विपत्र है जिस पर लिखने वाले के हस्ताक्षर होते हैं और उसमें किसी व्यक्ति को बिना-शर्त आदेश दिया हुआ होता है कि इस विपत्र के धारक को या उसमें अंकित व्यक्ति को उसमें अंकित धनराशि दे दी जाए। आजकल तो चेक होता है। हुंडी में केवल दो पक्षकार होते थे। चेक में अब बैंक भी सम्मिलित हो गया। यह ‘हुंडी’ शब्द कैसे प्रचलन में आया ?
धार्मिक इतिहासकार श्रीबालमुकुंद चतुर्वेदीजी के अनुसार श्रीकृष्ण के काल में उत्तर भारत में एक प्रभावशाली धनेश्वर हुंडिय की बड़ी प्रसिद्धि थी। इसी के नाम पर लेन-देन के अभिलेख का प्रयोग होने लगा जिसे ‘हुंडी’ कहा जाने लगा। इसका स्वर्ण सिक्का हुन्न कहलाता था। हूण इसी हुंडिय शाखा के लोग थे, जो चीन के हुन्नान में बसे थे। आजकल चीन में इस जाति के लोगों को हयान या हान कहा जाता है।
इससे पता चलता है कि हूण कोई विदेशी जाति नहीं थी ,अपितु मूल रूप में भारतीयों की ही एक शाखा थी। जो देश , काल , परिस्थिति के अनुसार हूण देश की होने के कारण हूण कहलाई और जब वह भारत में आकर यहाँ के समाज में मिली तो आज तक वह गुर्जरों के एक गोत्र के रूप में अपने अस्तित्व को बचाए हुए है। गुर्जर क्योंकि क्षत्रिय वर्ण के प्रतिनिधि के रूप में उस समय विश्व भर में काम कर रहे थे , या कहिए कि इस रूप में वह अपना सम्मान पूर्ण स्थान प्राप्त करने में सफल हो गए थे , इसलिए स्वाभाविक रूप से हूण जाति क्षत्रिय वर्ण के प्रतिनिधि गुर्जर समुदाय में अपने आप सम्मिलित हो गई। उस समय शासक होने का अभिप्राय था क्षत्रिय होना और क्षत्रिय होने का अभिप्राय था गुर्जर होना ।
अतः स्वाभाविक रूप से हूणों ने अपने आपको गुर्जरों के साथ समाविष्ट कर लिया या कहिए कि गुर्जरों को ही अपना पूर्वज स्वीकार कर अपने आपको क्षत्रियों की एक शाखा मानकर क्षत्रियों के प्रतिनिधि गुर्जर समाज के साथ स्वयं को समाविष्ट किया।
वास्तव में हुंडिय एक यक्ष था। उस काल में यक्षों का मूल स्थान तिब्बत और मंगोल के बीच का स्थान था। कुबेर वहीं का राजा था। माना जाता है कि यह हुंडिय जैन धर्म का पालन करता था। कई ऐसे यक्ष थे, जो चमत्कारिक थे। उस काल में यक्षों-यक्षिणिनियों की लोकपूजा भी होती थी। यह वेद विरुद्ध कर्म था।
गुर्जरों के इतिहास अनुसार वे भारतीय ही थे और उन्होंने मध्य एशिया से होते हुए योरप में अपना परचम लहराया था और वे बाद में चीन में बस गए थे। फिर उनके ही कुछ वंशज लौटकर आए और वे यहाँ आकर बस गए। उन्होंने राजस्थान, मालवा और पंजाब में कई शिव मंदिरों का निर्माण किया है। उन्हीं ने नारा दिया था- हर हर महादेव। जिसे भारत में आज भी लोग बड़े उत्साह के साथ बोलते हैं।

संदर्भ और साभार : भगवतशरण उपाध्याय की बृहत्तर भारत, केसी ओझा की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ फॉरेन इन एनशिएंट इंडिया, इलाहाबाद 1968 और श्रीबालमुकुंद चतुर्वेदीजी की पुस्तक ‘मथुरा का इतिहास’ आदि।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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