देश को गांधी के “कबूतरी धर्म” की नहीं , सावरकर के साफ-सुथरे राष्ट्र धर्म की आवश्यकता है

सावरकर जी की पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष

इससे पूर्व कि अखंड भारत के साधक और भारतीय राजनीतिक के सबसे दुर्गंधित पक्ष इस्लामिक सांप्रदायिकता के तीव्र विरोधी , सबके साथ समान व्यवहार करने के पक्षधर वीर सावरकर जी की पुण्यतिथि के संदर्भ में उनके जीवन पर हम कुछ प्रकाश डालें , यह बताना उचित समझते हैं कि स्लोवाकिया में इस्लाम पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है जबकि श्रीलंका में बुर्का को प्रतिबंधित कर दिया गया है । यह हम इसलिए बता रहे हैं कि हमारे लेख से कई लोगों को अनावश्यक बेचैनी अनुभव होगी । अपनी बेचैनी को थोड़ा शांत करने के लिए वह गंभीरता से यह विचार करें कि यदि भारत में सावरकर जी जैसे लोगों के चिंतन से इस्लामिक सांप्रदायिकता बढ़ी थी तो इन अन्य देशों में ऐसा क्या हो रहा है कि वहां की सरकारों को भी इस्लाम के जेहाद और अलगाववादी दृष्टिकोण से दुखी होकर उस पर प्रतिबंध लगाना पड़ रहा है ?
आज सावरकर जी की पुण्यतिथि है आज ही के दिन 1966 में मां भारती के इस सच्चे सपूत ने इहलोक से प्रयाण किया था । सावरकर जी मां भारती के एक ऐसे सच्चे सपूत और महान चिंतक थे जिन्होंने इस्लाम के अलगाववाद और पृथकतावादी दृष्टिकोण के साथ साथ उसकी परराष्ट्र निष्ठा पर आक्रमण किया था । उनके इस प्रकार के दृष्टिकोण और चिंतन से मुस्लिम तुष्टीकरण में विश्वास रखकर उनकी चापलूसी करने वाले कांग्रेसियों को वह कभी रास नहीं आए । यद्यपि सावरकर जी का दृष्टिकोण व्यावहारिक था । उन्होंने मुसलमानों के साथ मौलिक अधिकारों के संदर्भ में किसी भी प्रकार के पक्षपात करने का कभी समर्थन नहीं किया। बस , उन्होंने एक ही शर्त रखी कि भारत को अपनी पितृ भूमि और पुण्य भूमि स्वीकार करो।
सावरकर जी के इन स्पष्टवादी विचारों के आधार पर कांग्रेस ने पहले दिन से उन्हें सांप्रदायिक सिद्ध करने का प्रयास किया । आज भी कांग्रेस अपनी इस परंपरा से बाज नहीं आ रही है । अब विचार करने योग्य बात यह है कि यदि वे सांप्रदायिक होते तो 1909 में लिखे गए अपने ग्रन्थ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में वे बहादुरशाह जफ़र, अवध की बेगमों, अनेक मौलाना तथा फौज के मुस्लिम अफसरों की बहादुरी का मार्मिक वर्णन नहीं करते। उन्होंने भारत के सामाजिक परिवेश को और भी अधिक समरस बनाने के दृष्टिकोण से इसी ग्रंथ की भूमिका में यह भी लिखा है कि अब शिवाजी और औरंगजेब की शत्रुता के दिन लद गए। यदि सावरकर जी मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह ग्रस्त होते और उनकी सोच सांप्रदायिक होती तो वह शिवाजी और औरंगजेब की शत्रुता को हिलाने की अपील कभी भी भारत के दोनों समुदायों से नहीं करते । हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि सावरकर संकीर्ण व्यक्ति होते तो लंदन में आसफ अली, सय्यद रजा हैदर, सिकन्दर हयात खाँ, मदाम भिकायजी कामा जैसे अ-हिन्दू लोग उनके अभिन्न मित्र नहीं होते। आसफ अली ने अपने संस्मरणों में सावरकर को जन्मजात नेता और शिवाजी का प्रतिरूप कहा है।
सावरकर जी के इस चिंतन पर प्रकाश डालते हुए वेद प्रताप वैदिक जी लिखते हैं कि – सावरकर ने हिन्दू महासभा के नेता के रूप में मुस्लिम लीग से टक्कर लेने की जो खुली घोषणा की थी, उसके कारण स्पष्ट थे। पहला, महात्मा गाँधी द्वारा चलाया गया खिलाफत आन्दोलन हिन्दू-मुस्लिम एकता का अपूर्व प्रयास था, इसमें शक नहीं लेकिन उसके कारण ही मुस्लिम पृथकतावाद का बीज बोया गया। 1924 में खुद तुर्की नेता कमाल पाशा ने खलीफा के पद को खत्म कर दिया तो भारत के मुसलमान भड़क उठे। केरल में मोपला विद्रोह हुआ। भारत के मुसलमानों ने अपने आचरण से यह गलत प्रभाव पैदा किया कि उनका शरीर भारत में है लेकिन आत्मा तुर्की में है। वे मुसलमान पहले हैं, भारतीय बाद में हैं। तुर्की के खलीफा के लिए वे अपनी जान न्यौछावर कर सकते हैं लेकिन भारत की आजादी की उन्हें ज़रा भी चिन्ता नहीं है। इसी प्रकार मुसलमानों के सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली द्वारा अफगान बादशाह को इस्लामी राज्य कायम करने के लिए भारत पर हमले का निमंत्रण देना भी ऐसी घटना थी, जिसने औसत हिन्दुओं को रुष्ट कर दिया और गाँधी जैसे नेता को भी विवश किया कि वे मोहम्मद अली से माफी मँगवाएँ। एक तरफ हिन्दुओं के दिल में यह बात बैठ गई कि मुसलमान भारत के प्रति वफादार नहीं हैं और दूसरी तरफ मुस्लिम संस्थाओं ने यह मान लिया कि अगर अंग्रेज चले गए तो मुसलमानों को हिन्दुओं की गुलामी करनी पड़ेगी।

इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों को भारत से भगाने की बजाय उनसे अपने लिए रियायतें माँगना शुरू कर दिया। यदि जनसंख्या में उनका अनुपात 20 से 25 प्रतिशत तक था तो वे राज-काज में 33 से 50 प्रतिशत तक प्रतिनिधित्व माँगने लगे। अपनी प्रकम्पकारी पुस्तक ‘पाकिस्तान पर कुछ विचार’ में डाॅ0 आम्बेडकर ने इसे हिटलरी ब्लेकमेल की संज्ञा दी है। उन्होंने लोगों के बलात् धर्म-परिवर्तन, गुण्डागर्दी और गीदड़भभकियों की भी कड़ी निन्दा की है। सावरकर ने अपने प्रखर भाषणों और लेखों में इसी ब्लेकमेल के खिलाफ झण्डा गाड़ दिया। उन्होंने 1937 के अपने हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में साफ़-साफ़ कहा कि काँग्रेस की घुटनेटेकू नीति के बावजूद भारत में इस समय दो अलग-अलग राष्ट्र रह रहे हैं। यह भारत के लिए खतरे की घंटी है। यदि पाकिस्तान का निर्माण हो गया तो वह भारत के लिए स्थायी सिरदर्द होगा। भारत की अखंडता भंग होने को है। उसे बचाने का दायित्व हिंदुओं पर है। इसीलिए ‘राजनीति का हिंदूकरण हो और हिंदुओं का सैनिकीकरण हो।’ अहिंसा जहाँ तक चल सके, वहाँ तक अच्छा लेकिन उन्होंने गाँधी की परमपूर्ण अहिंसा को अपराध बताया। जुलाई 1940 में जब सुभाष बोस सावरकर से बंबई में मिले तो उन्होंने सुभाष बाबू को अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की प्रेरणा दी
अपने अनेक भाषणों और लेखों में सावरकर ने साफ़-साफ़ कहा कि हिन्दू लोग अपने लिए किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते। वे एक संयुक्त और अखंड राष्ट्र बनाकर रह सकते हैं बशर्ते कि कोई भी समुदाय अपने लिए विशेषाधिकारों की माँग न करे। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा ”भारतीय राज्य को पूर्ण भारतीय बनाओ।
मताधिकार, सार्वजनिक नौकरियों, दफ्तरों, कराधान आदि में धर्म और जाति के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए। किसी आदमी के हिन्दू या मुसलमान, ईसाई या यहूदी होने से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। ….जाति, पंथ, वंश और धर्म का अन्तर किए बिना ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ का नियम राज्य का सामान्य आधार होना चाहिए।“ क्या यह घोषणा सांप्रदायिक है ?
लगभग 10 हजार पृष्ठ के समग्र सावरकर वाडमय (प्रभात प्रकाशन) में ढूँढने पर भी कहीं ऐसी पंक्तियाँ नहीं मिलतीं, जिनमें मुसलमानों को सताने, तंग करने या दंडित करने की बात कही गई हो। ‘हिन्दुत्व’ नामक अत्यंत चर्चित ग्रंथ में तत्कालीन मुसलमानों की ‘राष्ट्रविरोधी गतिविधियों’ पर अपना क्षोभ प्रकट करते हुए सावरकर लिखते हैं कि उन्होंने हिंदुत्व का नारा क्यों दिया था।– ” अपने अहिन्दू बंधुओं अथवा विश्व के अन्य किसी प्राणी को किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाने हेतु नहीं अपितु इसलिए कि आज विश्व में जो विभिन्न संघ और वाद प्रभावी हो रहे हैं, उनमें से किसी को भी हम पर आक्रांता बनकर चढ़ दौड़ने का दुस्साहस न हो सके।
“उन्होंने आगे यह भी कहा कि ” कम से कम उस समय तक “ हिन्दुओं को अपनी कमर कसनी होगी” जब तक हिन्दुस्थान के अन्य सम्प्रदाय हिन्दुस्थान के हितों को ही अपना सर्वश्रेष्ठ हित और कर्तव्य मानने को तैयार नहीं हैं …। “वास्तव में भारत की आज़ादी के साथ वह समय भी आ गया । यदि 1947 का भारत सावरकर के सपनों का हिन्दू राष्ट्र नहीं था तो क्या था ? स्वयं सावरकर ने अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले 1965 में ‘आर्गेनाइज़र’ में प्रकाशित भेंट-वार्ता में इस तथ्य को स्वीकार किया है। सावरकर ने मुसलमानों का नहीं, बल्कि उनकी तत्कालीन ब्रिटिश भक्ति, पर-निष्ठा और ब्लैकमेल का विरोध किया था। क्या स्वतंत्र भारत में यह विरोध प्रासंगिक रह गया है ?
इस विरोध का आधार संकीर्ण साम्प्रदायिकता नहीं, शुद्ध बुद्धिवाद था। यदि वैसा नहीं होता तो क्या हिंदुत्व का कोई प्रवक्ता आपात् परिस्थितियांे में गोवध और गोमांस भक्षण का समर्थन कर सकता था ? स्वयं सावरकर का अन्तिम संस्कार और उनके बेटे का विवाह जिस पद्धति से हुआ, क्या वह किसी भी पारम्परिक हिन्दू संगठन को स्वीकार हो सकती थी ? सावरकर ने वेद-प्रामाण्य, फलित ज्योतिष, व्रत-उपवास, कर्मकांडी पाखंड, जन्मना वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता, स्त्री-पुरूष समानता आदि प्रश्नों पर इतने निर्मम विचार व्यक्त किए हैं कि उनके सामने विवेकानंद, गाँधी और कहीं-कहीं आम्बेडकर भी फीके पड़ जाते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उनसे सहमत होना तो असंभव ही था। सावरकर के विचारों पर अगर मुल्ला-मौलवी छुरा ताने रहते थे तो पंडित-पुरोहित उन पर गदा-प्रहार के लिए कटिबद्ध रहते थे। जैसे कबीर और दयानंद की स्वीकृति कहीं भी सहज नहीं है, वैसे ही सावरकर की भी नहीे हैं।
मित्रों भारत में उपचार करने वाले वैद्य को लात मारने की प्रवृत्ति बाहरी देशों से कुछ अधिक है । पता नहीं हम क्यों बचपने की सी इस हरकत को अपने राष्ट्रीय चरित्र का एक आवश्यक अंग बनाए हुए हैं ? तथ्य और सत्य तो कुछ यही स्पष्ट कर रहे हैं कि सावरकर जी जो कुछ कह रहे थे वह सही था और गांधीजी अनावश्यक मुस्लिम तुष्टीकरण को इस देश का राष्ट्रीय चरित्र बनाकर बीमारी को बीमारी बनाए रखकर उसकी ओर से आंख फेर कर बैठे रहने के उसी धर्म का निर्वाह कर रहे थे जिसे कबूतर बिल्ली को आते देख कर अपनी आंखें बंद कर यह समझ कर निर्वाह करता है कि शायद बिल्ली अब तुझे नहीं देख रही ? और कबूतर अपनी इसी भूल में अपने प्राण गंवा बैठता है। बात स्पष्ट है कि राष्ट्रीय संदर्भ में हमें इस ‘कबूतरी धर्म’ का निर्वाह करना है या सावरकर जी के साफ-सुथरे राष्ट्र धर्म का निर्वाह करना है , जिसके अंतर्गत सभी देशवासियों को मौलिक अधिकार समान रूप से प्राप्त हों परंतु राष्ट्र सबके लिए प्रथम हो , यह इस देश के हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य कर दिया जाए।

(ऊपर दिए गए फोटोज में मेरा एक फोटो पिछले माह 19 जनवरी का है , जब मैं अखिल भारत हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित नंदकिशोर मिश्र जी के साथ मुंबई स्थित वीर सावरकर जी के स्मारक पर पहुंचा था )

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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