जो करना है खुद करें,औरों के भरोसे न रहें

– डॉ. दीपक आचार्य

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हममें से कई लोगों की आदतों में आजकल खूब सारी बुराइयाँ आ गई हैं जिनकी वजह से हमारे कामों की गति प्रभावित होने के साथ ही ढेरों समस्याएँ सामने आ रही हैं। हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में कई सारे काम ऎसे होते हैं जिनको करने में हम समर्थ हुआ करते हैं लेकिन अक्सर हम खुद मेहनत नहीं करते हुए किसी और को इन कामों का जिम्मा सौंप देते हैं और फिर दूसरों से यह अपेक्षाएँ पाल लेते हैं कि वे हमारे काम प्राथमिकता के साथ पूरे करें।यहीं से शुरू होती हैं हमारी समस्याएं। जिन कामों को करना हमारे बूते में होता है उन कामों में हमें खुद को ही करना चाहिए, इन कामों को किसी और को सौंपना नहीं चाहिए।chin

यों देखा जाए तो हमारे जीवन के जो काम हम औरों को सौंपने की आदत बना डालते हैं वे काम हम स्वयं कर लें तो इनसे जुड़े ढेरों काम अपने आप आसान होते चले जाते हैं और दूसरों पर आश्रित रहने की पराधीनता या निर्भरता भी समाप्त हो जाती हैअपने कामों का बोझ औरों पर डालना और दूसरों से काम करवाने की प्रवृत्ति अपनाना हमारे अहंकार या निर्भरता दोनों में से एक को दर्शाता है। ऎसे में अहंकार भी छोड़ने की जरूरत है और अधिनायकवादी मानसिकता भी।आम तौर पर होता यह है कि हम अपने सामथ्र्य वाले कामों को प्राथमिकताहीन करार देते हैं और इसी वजह से टालमटोल की मानसिकता अपना लेते हैं। और ऎसे में अपने पास आने वाले हरेक काम को किसी ओर की तरफ ‘खो’कर देते हैं।यह काम अपने भी हो सकते हैं और उन लोगों के भी, जो हमें योग्य समझकर हमारे पास आते हैं। ये दोनों ही स्थितियों अपने आप में गंभीर तथा नकारात्मक मानसिकता को परिपुष्ट करती हैं।अपने कामों के लिए औरों के भरोसे रहना हमारे व्यक्तित्व की वह सबसे बड़ी कमजोरी है जो जीवन भर हमारा पीछा नहीं छोड़ती है। और इस वजह से हमारे कई अमूल्य और महत्त्वपूर्ण काम अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पाते व इस कारण से हमारे जीवन लक्ष्यों की प्राप्ति में आशातीत सफलता हमसे दूर ही रहा करती है।यह बात भी हमें अच्छी तरह याद रखनी चाहिए कि हमारे अपने कामों के पीछे हमारा तीव्र और भाव-प्रगाढ़ता से भरा संकल्प और कर्म होता है तथा जो अपने काम हैं  वे हमारे अपने हाथों से संपादित होने पर हमारे शरीरस्थ चक्रों, ज्ञानेन्दि्रयों और कर्मेन्दि्रयों की ऊर्जा का प्रवाह भी सकारात्मक प्रभाव सृजित करता है और इससे अपने लक्ष्यों को नई गति प्राप्त होती है तथा कार्य सिद्धि में आशातीत सफलता मिलती रहती है।हमारा कोई सा काम हो, उसे स्वयं करने पर हमारी इच्छाशक्ति, मन का प्रवाह, संकल्प और कर्म के प्रति अगाध आस्था भाव मिलकर सफलता को शत-प्रतिशत सफलता देते ही हैं। औरों के माध्यम से कार्य संपादन होने की स्थिति में कार्यसिद्धि के प्रति तीव्र लगन और आसक्ति का भाव नहीं होता बल्कि उस अवस्था में शुष्क रूप में कार्य संपादन की तात्कालिक भावना समाहित होती है और इस कर्म में न आत्मीय जुड़ाव होता है और न ही एकनिष्ठता।इसके साथ ही संसार में हर प्रकार के कार्य व्यक्ति विशेष के हाथों ही संपादित होना लिखा होता है और यही कारण है कि कई सारे काम वर्षों से लंबित होते हैं लेकिन जब कोई परिवर्तन होता है, वे सारे काम तत्काल होने शुरू हो जाते हैं।इसे देखते हुए यह जरूरी है कि अपने से संबंधित समस्त प्रकार के कार्यों का संपादन खुद करें, जो अपने स्तर पर कर सकते हैं। ऎसे कामों के लिए औरों का सहारा न लें। मानसिक और शारीरिक श्रम से कन्नी न काटें बल्कि अपने मन-मस्तिष्क और शरीर सभी को अपने कार्य संपादन के लक्ष्य के प्रति एकाग्र करें और सफलता को प्राप्त करें।कई बार जब हम अपने लायक कामों को भी दूसरों के भरोसे छोड़ देते हैं तब औरों के दुर्भाग्य से भी कार्यसिद्धि नहीं हो पाती और ये काम आधे-अधूरे ही पड़े रह जाते हैं। कई लोगों के हाथ ऎसे दुर्भाग्यशाली होते हैं कि उनके हाथों को छू लेने के बाद कोई काम कभी पूरा हो ही नहीं सकता। जीवन का ध्येय बना लें। अपने प्रत्येक कर्म को अपने द्वारा ही पूर्ण करें, औरों के भरोसे न रहें।

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