हिंदू राष्ट्र स्वप्न द्रष्टा बंदा वीर बैरागी

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अध्याय — 19

स्वतंत्रता हमसे दूर चली गई

वीर सावरकर ने लिखा है कि :— ” 17 वीं शताब्दी के प्रारंभ से अर्थात प्राय: शिवाजी के जन्म से ही हिंदू मुसलमानों के संघर्ष में रणदेवता के निर्णय में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन देखा जाने लगा । पहले जहां हिंदू मुस्लिम संघर्ष में अंतिम पराजय हिंदुओं की हुआ करती थी , अब उसके विपरीत अंतिम पराजय मुसलमानों की और अंतिम विजय हिंदुओं की देखी जाने लगी।”
हिंदुओं की इस अंतिम विजय को सुनिश्चित करने वाले महान योद्धाओं में से एक बंदा वीर बैरागी भी था । यद्यपि अब बंदा वीर बैरागी अपने जीवन के जिस पड़ाव में प्रवेश कर चुका था उसमें कहानी कुछ दूसरी ओर घूमती जा रही थी । फर्रूखसियर के द्वारा रचे गए षड़यंत्र के कुचक्र में अनजाने में ही हमारा यह शेर फंसता सा जा रहा था।
भाई परमानंद जी ने लिखा है कि : – ” गुरुओं ने अपना कार्य धार्मिक रूप में करना आरंभ किया । उनके धर्म की उन्नति इस्लाम की उन्नति की विरोधिनी थी । इस्लाम एक राजशक्ति थी । इस शक्ति के घमंड के विरुद्ध तथा धार्मिक स्वतंत्रता के आंदोलन में गुरुओं ने महान कुर्बानियां दीं और अंत में प्रजा पीड़कों की राजनीतिक शक्ति को नष्ट करने का निश्चय कर लिया । यह बात पूर्ण होने को थी कि एक धार्मिक अड़चन खड़ी कर दी गई कि बैरागी का साथ तब तक न दो जब तक वह अमृत चखकर नियमत: सिक्ख न बन जाए । इससे प्रकट होता है कि चाहे बैरागी की इच्छा थी या न थी , उसकी श्रद्धा थी या न थी , उसका अमृत चखना इतना आवश्यक था कि उसके मुकाबले पर सिक्ख आंदोलन का नाश भी कुछ अर्थ नहीं रखता था । छोटी सी विभिन्नता को सामने लाकर बने बनाए काम को नष्ट कर दिया गया ।परंतु दोष किसका ? – इस देश में लोगों की बुद्धि उल्टे काम करती रही है । उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं कि मानव स्वतंत्रता और समता विचार जातीय जीवन की जड़ है। अन्य विषयों में मन की विभिन्नता इसके आगे कुछ महत्व भी नहीं रखती । इस विभिन्नता के मामले में प्रत्येक अपने आप को ठीक और दूसरों को गलत समझता है । इसमें किसी का न कुछ बनता है और न बिगड़ता है , परंतु जो लोग इस मतभिन्नता पर समाज के प्रति पवित्र नियम ‘ मनुष्य की स्वतंत्रता ‘ की बलि चढ़ा देते हैं वे अपने देश के नाश के उत्तरदायी होते हैं। इसके साथ वे अपने आपको ही नष्ट कर लेते हैं । इसी कारण देश के साथ धोखा करने वाले का अपराध अक्षम्य होता है । चाहे धार्मिक दृष्टि से वह मनुष्य कितना ही उच्च क्यों न हो ? ”
भाई परमानंद जी ने जो कुछ लिखा है वह उचित ही लिखा है। सचमुच एक छोटी सी बात को इतना बड़ा बना लेना सिक्खों की अज्ञानता और दुराग्रहपूर्ण बुद्धि का ही प्रतीक था । राष्ट्रनायक के रूप में उभरे बंदा वीर बैरागी के विरुद्ध ऐसा परिवेश सृजित कर देना कि लोग उससे घृणा करने लगें , अपने ही राष्ट्रवाद को अपने आप ही अपने ही पैरों से रौंद देने की मूर्खतापूर्ण नीति का परिचायक था।

जब होती बुद्धि दुराग्रहपूर्ण,
सूझता नहीं कोई सन्मार्ग ।
किंकर्तव्यविमूढ़ बना मानव ,
खोजता निज उन्नति का मार्ग ।।
अपने रचे खेल को मानव,
निज पैरों से जब देता रौंद ।
तब समझो अब पतन निकट है ,
नियति भी नहीं सकती रोक ।।

इस सब के उपरांत भी बंदा वीर बैरागी अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक विदेशी सत्ताधीशों से युद्ध करने के लिए संकल्पित था । वह यह भली प्रकार जानता था कि इन परिस्थितियों में उसका पीछे हटना संपूर्ण हिंदू समाज की अस्मिता पर कलंक लगाना होगा । वह वीर था और वीर की भांति अंतिम क्षणों तक मां भारती की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का संकल्प ले चुका था । यही कारण रहा कि उसने किसी भी प्रकार के विश्वासघात या अपने ही लोगों द्वारा किए जा रहे षड्यंत्र अथवा छलों की चिंता नहीं की और विदेशी शासक शत्रुओं से निरंतर अपना संघर्ष करता रहा । इतिहास को परिवर्तन की ओर ले जाना उसके जीवन का उद्देश्य था । वह युग निर्माता था और अपने इसी शिवसंकल्प को पूर्ण करने के लिए आगे बढ़ रहा था। उसका संकल्प वसुधैव कुटुंबकम के प्रति समर्पित था। वह चाहता था कि भारत के मानवतावाद के नीचे संपूर्ण हिंदू समाज उठे और फिर अपने विश्वगुरु के गौरवमयी अतीत को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने लगे ।
लाहौर में जब फर्रूखसियर की सेना से बंदा वीर बैरागी का सामना हुआ और उसमें फर्रूखसियर की सेना ने ततखालसा या तख्तखालसा को बंदा वीर बैरागी के सामने कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की चाल चली तो ततखालसा के ऐसे आचरण को देखकर बंदा वीर बैरागी भीतर से टूट गया था , पूर्णतया हिल गया था । उसने अभी तक पराजय नाम की चिड़िया का नाम तक नहीं सुना था । पर आज उसे पराजय की पीड़ा ने भीतर तक छलनी कर दिया था । इसके पश्चात बंदा वीर बैरागी ने ततखालसा के लिए पत्र लिखा था । उस पत्र से यद्यपि कुछ लोगों का हृदय परिवर्तन भी हुआ । पर बात जिस प्रकार बननी चाहिए थी वैसे नहीं बनी । बैरागी का सारा प्रयास ही विफल हो गया । यद्यपि वह मतभेदों को मिटाने के लिए अपनी ओर से सहृदयतापूर्ण प्रयास कर रहा था , परंतु उसके प्रयासों को गंभीरता से नहीं लिया गया। जिसके पश्चात उसने ‘ एक नया राज्य और एक नया भारत बनाने ‘ का संकल्प लिया ।

संकल्पित हो बढ़ चला , नया बनाने देश ।
आजादी लेकर रहूं मिट जाएं सकल क्लेश ।।

अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए बैरागी ने कलानौर के नवाब को परास्त किया । उसके पश्चात सियालकोट की ओर बढ़ा । स्यालकोट में उसका विरोध करने का साहस किसी को ना हुआ । बैरागी ने गुजरात और वजीराबाद की ओर बढ़ने का भी साहसिक प्रयास किया । बैरागी की इन विजयों को देखकर फर्रूखसियर असहनीय पीड़ा अनुभव कर रहा था। ऐसी परिस्थितियों में बादशाह ने बैरागी का अंत करने के लिए 1716 ई0 में अब्दुल समन्द को 30000 की सेना के साथ दिल्ली से भेजा । उसने दूसरे अधिकारियों को भी निर्देशित किया कि वह अपनी सेना बैरागी के विरुद्ध भेजें । अब्दुल समन्द खान ने बैरागी को छल से अपने अधीन करने का नाटक किया । उसने अपने लोगों से बैरागी के पास संदेश भेजा कि वह उसका चेला बनना चाहता है। बैरागी को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। बादशाही सेना ने गुरदासपुर के पास अपना डेरा डाल दिया । उसके साथ जालंधर से भी सेना आकर मिल गई । अब शहर को चारों ओर से घेर लिया गया। सैनिकों के लिए अन्न आदि की आपूर्ति पूर्णरूपेण बाधित कर दी गई । किले के भीतर बंद बैरागी के सैनिकों में भूख के मारे असंतोष उत्पन्न होने लगा। कहा जाता है कि एक दिन किसी प्रकार 500 सैनिक किले से बाहर निकलकर भोजन आदि का प्रबंध करने के लिए कुछ दूरी पर जाने में सफल हो गए । जब उनके इस दुस्साहस की सूचना शत्रु पक्ष को मिली तो उसने बड़ी प्रबलता से सैनिकों पर प्राणघातक आक्रमण कर दिया । जिसमें सभी 500 योद्धा भारत माता के लिए बलिदान हो गए।
इस घटना का वर्णन करते हुए भाई परमानंद जी ने बड़ा सजीव चित्रण किया है । उन्होंने लिखा है कि :– ” जब अंदर वाले भूख से तंग आ गए तो बैरागी के विरुद्ध शिकायत करने लगे । इस प्रकार 4 माह गुजर गए । लाहौर के शासक ने आज्ञा घोषित की कि जो सिक्ख शाही पताका के नीचे आ जाएंगे , उन्हें अभयदान दे दिया जाएगा । कुछ सिक्ख शत्रु से जा मिले । परंतु उन्हें कैद कर लिया गया । लड़कर मर जाना सरल है किंतु भूखे रहकर मरा नहीं जाता । बैरागी ने अंतिम बार अपने साथी एकत्र किए और आक्रमण कर दिया , परंतु इतनी बड़ी सेना के सामने उनकी एक नहीं चली । जब वह भूख से विवश हो गए तब बैरागी के सामने याचना करने लगे । उसने सांत्वना देते हुए शांतिपूर्वक उत्तर दिया — स्मरण रहे संसार में सुख और दुख दोनों मनुष्य के लिए हैं । सुख के साथ दुख सहना भी अनिवार्य है । मैं भी तुम्हारे साथ हूं । जब तक तुम भूखे हो मैं एक दाना तक मुंह में नहीं डालूंगा । किले के भीतर के मनुष्यों की यातनाओं का अनुभव नहीं किया जा सकता था । सब भूखे एक-दूसरे की ओर देखते थे । कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता था । इस असहाय अवस्था में शत्रु कड़ी परीक्षा में डाल रहा था कि बहुत से योद्धा बाहर आ गए , परंतु उन्हें शत्रु के वचन पर विश्वास नहीं था । जब अधीनता को छोड़ अपने बचने का और कोई उपाय नहीं रहा तो विवश होकर किले के दरवाजे खोल दिए गए । मुसलमानी सेना ने भीतर प्रवेश किया । बैरागी भूख के मारे अस्थि पंजर हो गया था । परंतु किसी सैनिक का साहस न हुआ कि उसके पास जाए । मरते हुए सिंह के समीप भी जाते हुए भय लगता है । अंत में बैरागी ने देख लिया कि होनी होकर रहेगी ।होनी के सामने हुज्जत करना व्यर्थ है। तब उसने अपने आप ही धनुषबाण रख दिया और मुसलमान सैनिकों से कहा कि उसे निसंकोच गिरफ्तार करें । उन्होंने उसे जंजीरों से बांध लिया। अब्दुल समन्द खान को इस विजय से बड़ी प्रसन्नता हुई । यह समाचार सुनकर सब जगह मुसलमान सुख की नींद सोए । हिंदुओं की आशाओं पर पानी फिर गया । उनके घरों में शोक होने लगा । स्त्रियां भी फूट-फूट कर रोती थीं कि उनका एकमात्र सहारा चला गया। बैरागी एक उज्ज्वल तारे के समान चमकता रहा और 14 वर्ष पर्यंत अपने प्रकाश से संसार को प्रकाशित करके धूमकेतु के समान टूट गया ।”

अस्थि पंजर शेष था
सूख गए थे तन के प्राण ।
तो भी शेर को कपड़े कौन ?
शत्रु स्वयं भी था निष्प्राण ।।

वास्तव में यह पतन बंदा वीर बैरागी का पतन नहीं था , यह पतन भारत की अस्मिता और स्वाभिमान के लिए संघर्ष कर रहे एक योद्धा का पतन था । यह पतन किसी हाड़ मांस के पुतले का भी नहीं था , यह पतन भारत के धर्म और संस्कृति का पतन था । यह पतन किसी साधु सन्यासी का पतन भी नहीं था , अपितु यह पतन हिंदू समाज के चोटी और जनेऊ का पतन था । यह पतन किसी विशाल डीलडौल वाले व्यक्ति का पतन भी न्हीं था , अपितु यह पतन हमारी मूर्खता और परस्पर एक दूसरे की टांग खींचने की आत्मघाती प्रवृत्ति का स्वाभाविक परिणाम था। जिन माताओं ने मुगल साम्राज्य की ओर से दी जा रही कुछ सुविधाओं और चंद चांदी के सिक्कों के कारण हमारे इस महानायक को इस अपमानजनक और दुखदायक स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया था , आज उनके उस आचरण पर सभी दिशाएं शोक मना रही थीं । जिन लोगों ने इस महामानव और महायोद्धा के संकल्प पर विश्वास नहीं किया , और इसे मुगल सैनिकों के द्वारा गिरफ्तार होने देने की परिस्थितियां बनाने में अपना सहयोग दिया , उन लोगों की उस बुरी भावना पर भी देश के गंभीर और देशभक्त लोग शोक व्यक्त कर रहे थे।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि जिस शेर को फर्रूखसियर के पूर्वज नहीं परास्त कर सके , उसे फर्रूखसियर जैसा दुर्बल बादशाह यदि गिरफ्तार कराने में सफल हुआ तो उसका कारण केवल और केवल हमारी अपनी मूर्खता ही थी । इसमें शत्रु की वीरता नहीं , अपितु हमारी अपनी धूर्तता प्रमुख कारण बनी।
बंदा बैरागी के रूप में एक व्यक्ति जो बहुत नीचे के स्तर से चला और चलते – चलते संपूर्ण भारतवर्ष के राजनीतिक गगनमंडल पर चमक उठा , वह व्यक्ति से विचार और विचार से संपूर्ण भारत का संकल्प कब बन गया , और क्यों बन गया ? इस पर इतिहासकारों ने कोई शोध नहीं किया । इसे किसी ने समझा ही नहीं । किसी भी व्यक्ति का उत्थान को प्राप्त होना बड़ी बात नहीं है , बड़ी बात यह है कि वह व्यक्ति कब व्यक्ति से विचार और विचार से राष्ट्रीय संकल्प में परिवर्तित या परिणत हो जाता है ? बंदा वीर बैरागी के विषय में हमें इसी बात पर चिन्तन करना चाहिए । जब कोई राष्ट्र अपने संकल्प की हत्या करने पर उतारू हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि वहां पर काम कर रहे ‘ बंदा बैरागी ‘ को गिरफ्तार होना ही पड़ता है । माना कि भारत अपने संकल्पों और अपने मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष करता रहा , परंतु इसके विषय में यह भी सत्य है कि यहां पर ‘ जयचंद की परंपरा ‘ भी साथ – साथ चलती रही । जिसने एक नहीं अनेकों अवसरों पर हमारे अनेकों ‘ बंदा बहादुरों ‘ का विनाश कराने में अपना दानवीय योगदान दिया। इन ‘ जयचंदों ‘ ने भारत की पराजय पर बार-बार विजय के उत्सव मनाए हैं। ऐसा ही दृश्य अब उपस्थित हो चुका था । बंदा वीर बैरागी को फर्रूखसियर की मुगलिया सेना ने जब गिरफ्तार किया तो ‘ जयचंद की परंपरा ‘ में विश्वास रखने वाले लोगों ने उत्सव मनाकर अपनी देशद्रोही भावना का परिचय दिया।

डाह , ईर्ष्या और अविश्वास
नागफनी बन खड़े हुए ।
हमारे चरितनायक के
रास्ते में यह अड़े हुए ।।
जितना आगे बढ़ता था ,
उतना दलदल में धंसता था ।
अपनों के बुने जाल में
शेर स्वयं ही फंसता था ।।

परंपरागत डायन ईर्ष्या , डाह और अविश्वास की भावना ने हमें एक बार फिर अपनी ही परीक्षा में असफल सिद्ध कर दिया । अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर ‘ जयचंद ‘ ने अपनी पराजय पर ही उत्सव मनाया । भारत की वीरता पर कृतघ्नता का जंग लगाना यह भारत की वह जयचंदी परंपरा रही है जिसने हमारे देश के महान योद्धाओं के पराक्रम को कई बार अंतिम क्षणों में पराजय प्राप्त कराने में घातक भूमिका निभाई । दुर्भाग्य रहा बैरागी का और सबसे बढ़कर मां भारती का कि हम एक बार फिर परास्त हो गए । स्वतंत्रता आते-आते हमसे दूर चली गई ।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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