हिंदू राष्ट्र स्वप्न दृष्टा : बंदा वीर बैरागी

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अध्याय — 12

तान कर सीना चला

एक पुजारी कई दिनों से यज्ञ कर रहा था , किंतु उसे अपने इष्टदेव के दर्शन नहीं हो रहे थे। इसी बीच राजा विक्रमादित्य वहां से निकले जा रहे थे । उन्होंने पुजारी की ओर देखा तो उसके चेहरे पर छाए भावों को देखकर उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि पुजारी इतना दुखी क्यों है ? विक्रमादित्य आगे बढ़े और पुजारी को समझाते हुए बोले कि यज्ञ ऐसे नहीं किया जाता , जैसे तुम कर रहे हो ।

इसके पश्चात राजा ने अपना मुकुट उतारकर भूमि पर रख दिया और संकल्प लिया कि यदि आज शाम तक अग्निदेव प्रकट नहीं हुए तो आज से मैं भविष्य में कभी भी राजमुकुट धारण नहीं करूंगा , चाहे राज्य में जितना भी अनाचार फैल जाए। प्रजा वत्सल अग्निदेव चिंतित हुए । वे सायंकाल होने से पहले ही प्रकट हो गए । पुजारी ने आगे बढ़कर देव को प्रणाम किया और बोले – ” देव ! मैंने इतना प्रयत्न किया , पर आप प्रकट नहीं हुए । जबकि राजा ने केवल मुकुट उतार देने का संकल्प किया और आप साक्षात आ गए । अंततः ऐसा क्यों ? इस पर अग्निदेव ने उस पुजारी को समझाते हुए कहा कि वास्तव में राजा ने जो किया दृढ़ संकल्प से किया। दृढ़ संकल्प जब कोई भी धारण कर लेता है तो उसके समक्ष मेरा उपस्थित होना अनिवार्य हो जाता है। दृढ़ संकल्प से किया कार्य सदा शीघ्र परिणाम देता है । यही कारण है कि मैं तत्काल प्रकट हो गया। पुजारी को संकल्प के बल का पूर्ण अनुभव हो गया ।

हमें कहानी की सच्चाई पर या वैज्ञानिकता पर कुछ भी नहीं कहना । यहां पर सोचने की बात केवल इतनी है कि विकल्पविहीन संकल्प जब धारण कर लिया जाता है और उसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं रह जाता है तो उसके बड़े शुभ परिणाम आते हैं। बंदा वीर बैरागी के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा था। बंदा वीर बैरागी निरंतर अपनी सफलता की ओर बढ़ता जा रहा था तो उसका एकमात्र कारण यही था कि उसके संकल्प में पूर्णता थी कहीं से भी कोई छिद्र नहीं था।

हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों ।

ज्ञान देता हूं बराबर , भोग्य पा सब नेक हों ।।

मनुष्य अपने संकल्प से समाज को तभी बांध सकता है जब उसके हृदय और मन का समीकरण बन जाता है । यदि उसके अपने हृदय और मन में विषमता है या मन में कुटिलता का वास है तो ऐसी स्थिति में संकल्प प्रबल नहीं हो सकता। जब हृदय और मन में सामंजस्य स्थापित हो जाता है अर्थात दोनों एक होकर कार्य करने लगते हैं तो उस पवित्र स्थिति का समाज पर प्रभाव पड़ता है । तब व्यक्ति का निजी संकल्प समाज का संकल्प बन जाता है। समाज का संकल्प बनते ही व्यक्ति उन्नति और सफलता की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। क्योंकि उस समय उसके संकल्प को समाज अपना संकल्प मानकर शिरोधार्य कर लेता है। जितने अधिक लोग उस संकल्प के साथ जुड़ते जाते हैं , उतनी ही उस व्यक्ति की उन्नति होती जाती है । बंदा वीर बैरागी ने जिस संकल्प को धारण किया था – उसे जनमत का बहुमत प्राप्त हो चुका था। यही कारण था कि वह अब जो कुछ भी कह रहा था , देश का बहुमत उसे स्वीकार कर रहा था ।

बंदा वीर बैरागी ने अपने साथ लोगों को जोड़ने के लिए एक नई योजना पर कार्य करना आरंभ किया। उसने यह घोषणा करा दी कि उसके राज्य में जो भी मनुष्य सिक्ख बनना स्वीकार करेगा , उससे किसी प्रकार का कोई कर नहीं लिया जाएगा । इस आदेश को सुनकर लोगों में सिख बनने की होड़ पैदा हो गई। बहुत से जाट जमींदार सिक्ख बन गए । प्रतिदिन बड़ी संख्या में लोग सिक्ख धर्म में दीक्षित होने लगे । इस प्रकार बंदा वीर बैरागी ने बौद्धिक चातुर्य दिखाते हुए एक विशाल सेना संगठित करने में सफलता प्राप्त की। अब उसके राज्य की सीमाएं एक ओर यमुना नदी से तो दूसरी ओर रावी से जा मिलीं । इस प्रकार उसकी बढ़ी हुई शक्ति का शत्रु के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

साधु होकर देश की रक्षार्थ किया संकल्प था ,

तानकर सीना चला निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प था ।

शत्रु सर्वथा भयभीत था नहीं सूझता कोई मार्ग था ,

साधु की रणनीति से भाव विभोर सारा देश था ।।

बैरागी साधु होकर भी क्षत्रिय शक्ति से संपन्न था। उसके शौर्य का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वह जब युद्ध में उपस्थित हो जाता था तो युद्ध का परिणाम उसके अनुकूल आना निश्चित हो जाता था। वह जिस प्रकार का घमासान युद्ध करता था , उसे देखकर शत्रु उसके सामने टिक नहीं पाते थे। अपनी वीरता की धाक जमाने के लिए बंदा वीर बैरागी ने अंधविश्वासी और पाखंडी मुसलमानों के भीतर यह धारणा स्थापित करने में भी सफलता प्राप्त कर ली थी कि सारे जिन्न और भूत उसके नियंत्रण में हैं ।

यही कारण था कि जब बंदा वीर बैरागी युद्ध क्षेत्र में घमासान मचा रहा होता था तो उसके सामने से मुसलमान इसलिए भी भागते थे कि अब वह जिन्न और भूतों को वश में करके लड़ रहा है और यदि जिन्न व भूत बिगड़ गए तो उनका सर्वनाश कर देंगे।

मुस्लिम काल में अधिकतर पहाड़ी राजा ऐसे रहे जो अपने आप को सुरक्षित किये रहे । उनके दुर्गम किलों पर पहुंचना का जोखिम किसी भी मुगल बादशाह ने नहीं लिया। देश के शेष हिंदू राजाओं या हिंदू प्रजा के साथ इन राजाओं का व्यवहार भी अहंकारपूर्ण होता था । ये राजा देश की जनता से अपने आपको कुछ अलग दिखाने का प्रयास करते थे और किसी भी प्रकार के संकट या दुख – दर्द में काम न आने में ही अपना भला देखते थे। अपनी इसी मानसिकता के चलते उन्होंने एक बार गुरु गोविंद सिंह के द्वारा सहायता मांगे जाने पर भी उन्हें सहायता देने से इनकार कर दिया था । जिससे गुरु गोविंदसिंह जी को निराश होकर लौटना पड़ा था । यद्यपि गुरु गोविंदसिंह चाहते थे कि यह राजा उन्हें सहायता करें और भारतवर्ष से मुगल सत्ता को उखाड़ने में सहभागी बनें ।

बैरागी ने भी अपने जीवन में एक बार इन राजाओं को अपने साथ मिलाकर मुगल सत्ता को उखाड़ कर हिंदू राज्य स्थापित करने के लिए इनका सहयोग प्राप्त करना चाहा था । अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वैरागी ने जेजों कैलोर के राजा अजमेरचंद के नाम एक पत्र लिखा । जिसमें राजा को बड़े विनम्र शब्दों में संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि यद्यपि आपने पूर्व में गुरु गोविंद सिंह जी का साथ नहीं दिया था , परंतु इसके उपरांत भी मैं उस समय की बात को भुलाकर आपसे फिर एक बार सहयोग की अपेक्षा करता हूं और चाहता हूं कि आप देशहित में हमारा साथ दें। जिससे कि मुगल सत्ता को देश से समाप्त करने में हमें सहायता मिले। देशहित से पूर्णतया उदासीनता का प्रदर्शन करते हुए इस राजा ने बंदा बैरागी के पत्र का भी पूर्ण अहंकार के साथ उत्तर दिया। उसने स्पष्ट कर दिया कि जैसे तुम्हारे गुरु को हमने उस समय भगा दिया था , वैसे ही हम तुम्हें भी भगा देंगे ।

कहा जाता है कि ‘ विनाशकाले विपरीत बुद्धि: ” – और राजा अजमेरचंद के साथ संभवत: कुछ ऐसा ही हो रहा था । उसे यह पता नहीं था कि गुरु गोविंदसिंह और बंदा बैरागी में बहुत भारी अंतर है । बंदा बैरागी उस आग के गोले का नाम है जो एक बार जिसकी ओर मुड़ जाता है उसका पूर्ण विध्वंस करके ही रुकता है।

अजमेर चंद के मूर्खतापूर्ण उत्तर को पढ़कर बंदा बैरागी का पारा चढ़ गया । उसने अपने सैनिकों को आदेशित किया कि इस राजा के किले पर हमला कर दिया जाए । सैनिकों ने अपने महाराज का आदेश प्राप्त करते ही अजमेरचंद के किले पर हमला बोल दिया । यद्यपि बंदा बैरागी के बहुत से सैनिक इस युद्ध में मारे गए , परंतु सैनिकों ने बहुत ही सरलता से किले की एक दीवार को गिराकर उस पर अपनी विजय पताका फहराते इस एक युद्ध में ही पहाड़ी राजाओं के अहंकार को समाप्त कर दिया। इसके पश्चात उन राजाओं ने दिल्ली की ओर देखना बंद कर दिया और मुगलों से अपने संबंध विच्छेद कर खिराज देना भी बंद कर दिया । सभी राजाओं ने बैरागी के अधीन रहना स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं 1710 ईसवी में मंडी नरेश सुधरसेन ने बैरागी को अपने राज्य में ले जाकर उसका वहां स्वागत सत्कार किया और उसे अपना गुरु बना लिया । उसकी प्रजा भी बंदा बैरागी को इसी प्रकार का सम्मान देने लगी। यहां पर आकर बैरागी भी अब कुछ राजसिक सुख वैभव प्राप्त करने की चाहत रखने लगा था । वह सिर पर कलंगी लगाने लगा था । यहीं रहते हुए उसने एक राजपूत सुंदरी के साथ विवाह भी कर लिया था । जिससे उसे एक पुत्र भी प्राप्त हुआ । यद्यपि इसके पश्चात कुछ लोगों ने उसके विरुद्ध अफवाह भी उड़ानी आरंभ की कि अब वह भोगों में फंस गया है , और संत नहीं रहा है।

मंडी के बाद बैरागी एक बार घूमने के लिए कुल्लू गया। कहा जाता है कि वहां के राजा ने उसे पकड़ कर जेल में डाल दिया । इतना ही नहीं उसने गद्दारी करते हुए बैरागी की गिरफ्तारी का समाचार दिल्ली सम्राट को भी लिखकर भेज दिया । इस समाचार को प्राप्त करते ही मुसलमानों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई , जबकि हिंदुओं में शोक व्याप्त हो गया। जब यह समाचार बैरागी को मिला तो उसे भी बहुत अधिक कष्ट हुआ । वह किसी प्रकार अपने बौद्धिक चातुर्य से उस राजा की जेल से निकलकर बाहर आने में सफल हो गया । यद्यपि इस घटना का उसके विरोधी अंधविश्वासी मुसलमानों ने यह कहकर प्रचार किया कि उसने भूतों से कारावास का पिंजरा उठवाकर मंडी ला खड़ा किया था। वहाँ से वह होशियारपुर आया और यहां पर उसने अपना एक और विवाह किया । इसके पश्चात उसने साधु बनकर कश्मीर , अमरनाथ व नेपाल की यात्रा की।

राजसी वृत्ति में फंसकर सात्विकता त्याग दी ।

सुख भोगने हेतु एक राजकुमारी ग्रहण की ।।

कृत्य की निन्दा हुई , अहो ! यह क्या हो गया ,

साधना को त्याग कर यह साधु क्या हो गया ?

1707 ई0 में जब औरंगजेब की मृत्यु हुई तो उसके साथ उसका एक महान सपना उसकी कब्र में दफन हो गया था । उसका सपना था कि संपूर्ण भारतवर्ष इस्लाममय हो जाए और उसकी पीढ़ियां भारत पर अनंतकाल तक शासन करती रहें । भारत के जिन महान योद्धाओं ने उसके सपने को उसके साथ कब्र में दफन किया उनमें बंदा बैरागी का नाम सबसे आगे है। यह बहुत बड़ी बात थी कि जो साम्राज्य ने सारे भारत को लूट- लूट कर अपने खजानों में इसलिए भर लिया था कि भारत के धन से ही भारत का न केवल धर्मांतरण किया जाएगा अपितु इस पर पीढ़ियों तक शासन भी किया जाता रहेगा , उसको साधनहीन और संसाधनों से पूर्णतया खाली लोग मिटाने के लिए उठ खड़े हुए । जिनके पास न राजवंश की परंपरा थी और न ही बड़ी-बड़ी सेनाएं थीं , न ही उनके पास खजाने भरे पड़े थे। यह सारे के सारे योद्धा केवल अपने आत्मबल के आधार पर खड़े हुए थे । निसंदेह बैरागी ऐसे ही एक योद्धा थे।

औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात जिस प्रकार मुगल साम्राज्य बहुत शीघ्रता से छिन्न भिन्न हुआ , उससे यह पता चलता है कि बड़े-बड़े समृद्धि उस समय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं जब शासक वर्ग जनहितकारी नीतियों से मुंह फेर कर अन्याय अत्याचार पर खड़े हो जाते हैं। भारी – भारी सेनाएं जहां विदेशी शत्रुओं से सुरक्षा के लिए तैयार की जाती हैं और राज्य के भीतर शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए जहां सुरक्षा बल राजा तैयार करता है , वहीं अकूत संपदा से भरे राजकोष शासन को जनहितकारी नीतियों को लागू करने के लिए भरे जाते हैं । जब इनका उद्देश्य दोषपूर्ण हो जाता है तो बड़े-बड़े साम्राज्यों के राजभवनों को भरभराकर गिरने में देर नहीं लगती । बस , मुगल साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने का कारण यही था।

हमारे विद्वानों का मानना है कि ” देव को धारण करने के लिए देव बनना पड़ता है । राष्ट्र धारण करने के लिए भी उतना सामर्थ्य चाहिए , जितना भगवान को धारण करने के लिए । स्वार्थ त्याग से ऊपर उठकर सर्वहित साधन के भाव से प्रेरित होकर जो जन राष्ट्र कार्य करते हैं , वही राष्ट्र धारण कर सकते हैं ।” जिनकी सोच में स्वार्थ भरा होता है और सर्वहित साधन को जो शासक उपेक्षित करके चलता है , उसका विनाश निश्चित है । उसकी भारी भारी सेनाएं और अकूत संपदा से भरे राजकोष भी उसका बचाव करने में असफल हो जाते हैं।

मुगल साम्राज्य को उखाड़कर भारत में हिंदू राज्य स्थापित करना बैरागी का एकमात्र सपना था। इस योद्धा के बारे में डॉक्टर ओम प्रकाश ने एक शोध लेख तैयार किया और उसमें इलियट एंड डॉउसन , विलियम इरविन , जेडी कनिंघम , जेसी आर्चर , हरिराम गुप्त , इंदु भूषण बनर्जी , तेजासिंह और गंडा सिंह आदि विद्वान इतिहासकारों के परिश्रम का निचोड़ प्रस्तुत किया है। वह लिखते हैं: — ” उसने अर्थात बैरागी ने भारत में हिंदू राज्य स्थापित करने का लक्ष्य अपने सामने रखा था । मुगल राज्य की नींव अभी काफी मजबूत थी । एक निर्भीक व्यक्ति जनता में साहस की तो भावना भर सकता है , किंतु वह किसी शक्तिशाली साम्राज्य को उखाड़ कर नहीं फेंक सकता । इसीलिए वीर सेनानी बंदा अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहा , किंतु उसके साहसी कार्य जब तक भारत राष्ट्र जीवित है , भविष्य में सदा ही राष्ट्रीय वीरों को प्रेरणा प्रदान करते रहेंगे । उसका बलिदान व्यर्थ नहीं हुआ। उसने भारतीय जनता में अत्याचार का प्रतिरोध करने की भावना कूट-कूट कर भर दी। जब उपयुक्त अवसर आया तो कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे राष्ट्र कवियों ने इस वीर सेनानी का गुणगान किया और जनता को राष्ट्र रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की शिक्षा दी ।”

हिंदू राष्ट्र उसका लक्ष्य था ,

संशय नहीं कोई शेष था ।

वह सोचता बहुत उच्च था,

और करता सदा विशेष था ।।

बंदा बैरागी को लेकर इस बात पर इतिहासकारों में मतभेद रहा है कि वह पंजाब के सिक्खों का ही नेता था या उसका लक्ष्य संपूर्ण हिंदू जाति की रक्षा करना था ? जिन लोगों ने भारतीय इतिहास के साथ विकृतिकरण का पाप किया है , उनकी दृष्टि में बंदा बैरागी न तो राष्ट्रीय सोच का व्यक्ति था और न ही वह भारतीय इतिहास का नायक ही हो सकता है ।मैकालिफ , कनिंघम खफी खान जैसे इतिहासकारों का मानना है कि :- ” बैरागी का उद्देश्य संपूर्ण हिंदू जाति को स्वतंत्र कराना था । वह पूर्णतया राष्ट्रीय सोच का व्यक्ति था । ” मैकालिफ़ ने लिखा है :– ” वास्तव में बंदा का उद्देश्य समस्त हिंदू जनता को मुगल दासता से मुक्त करना था । उसने अपने आंदोलन को व्यापक रूप देने के लिए अपना युद्ध का नारा ” वाहे गुरु की फतह ” के स्थान पर “फतह धर्म ” या ” फतेह दर्शन ‘ घोषित किया ।”

हमें आज के अपने इतिहास में मैकालिफ़ की इसी सोच , चिंतन और बंदा बैरागी के बारे में उनके निष्कर्ष को स्थान देना चाहिए ।

केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय के व्यवस्थापक वीरेंद्र कुमार कुलश्रेष्ठ ने बंदा बैरागी के बारे में बहुत सुंदर लिखा है । उनका निष्कर्ष है कि :– ” समाना के निवासी जलालुद्दीन ने गुरु तेग बहादुर का वध किया था , इसलिए 26 नवंबर 1709 को सवेरे बंदा ने समाना पर हमला करके शहर को धराशायी कर दिया। इस लड़ाई में लगभग 10000 मुसलमान मारे गए और अपार धन बंदा के हाथ लगा । कपूरी का शासक कदमुद्दीन अपनी विलासी प्रवृत्ति के कारण हिंदू जनता को सता रहा था । बंदा ने उसके भवन को वशीभूत करके उसकी सारी दौलत अपने साथियों में विभाजित कर दी । साढोरा का मुस्लिम शासक वहां की हिंदू जनता को उनके धार्मिक संस्कार नहीं करने देता था । यह शिकायत बंदा के पास पहुंची तो उसने साढोरा को लूट लिया । वहां पर काफी मुसलमान मारे गए । इसे आजकल कतल गढ़ी कहते हैं।”

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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