तीसरा कोई न हो

हमारे बीच में

– डॉ. दीपक आचार्य

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सफलता और सिद्धि पाने के लिए सबसे पहली और अनिवार्य शर्त यही है कि साधक और साध्य के बीच और कोई तीसरा नहीं होना चाहिए। बात अपने जीवन के सोलह संस्कारों की हो या फिर चारों पुरुषार्थों की, इन सभी में सफलता का अनुभव करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे और अपने लक्ष्य के बीच और कोई नहीं होना चाहिए।

इसी प्रकार भगवान की भक्ति और अनुष्ठानों की साधना भी तभी सफल है जबकि हमारे और भगवान के बीच और कोई तीसरा न हो। यह तीसरा न भौतिक रूप में होना चाहिए, और न ही किसी प्रकार से सूक्ष्म रूप में भी।  तभी दोनों ध्रुवों के मध्य निरन्तर सम्पर्क सूत्र बना  रहता है।

जितनी यह एकतानता चरम पर होगी, जितनी एकाग्रता और तीव्रता होगी उतनी साधक और साध्य के बीच दूरियां कम होंगी और साधना में सफलता मिलने की घड़ी नज़दीक होगी। जो लोग इस सूत्र को अंगीकार कर लिया करते हैं वे जीवन के लक्ष्य को पा लेते हैं और अपने आप में ऎसी खासियतें पा जाते हैं कि दूसरे लोग भी उनका अनुसरण करने और आनंद पाने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

लेकिन सामान्य तौर पर ऎसा करना या होना संभव नहीं है क्योंकि हम जिस समुदाय और क्षेत्र में रहते हैं वहाँ हम बाहरी चकाचौंध से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि एकाग्र नहीं हो पाते हैं। हमारी असफलता कासबसे बड़ा कारण यही है कि हम न साधना के प्रति ईमानदार हैं, न साध्य के प्रति वफादार और न खुद के प्रति।

यही कारण है कि हमारे जीवन की सारी की सारी साधनाओं में साध्य या लक्ष्य की बजाय लोक दिखाऊ स्वभाव हावी होता जा रहा है और ऎसे में हमारा ध्यान भटकने का स्वभाव हमारे लिए आत्मघाती हो चुका है।

बात धर्म, साधना और भक्ति की करें तो हम सभी लोग आजकल जो कुछ भी कर रहे हैं उसमें हमारे लिए असफलता का मूल कारण यही है कि हमारा ध्यान भटका हुआ है। हमने ईश्वर से ज्यादा महत्त्व इंसानाें को दे रखा है। हम मन्दिरों, साधना या यज्ञ मण्डपों और सत्संग-संकीर्तन, कथाओं से लेकर भगवान  की सेवा-पूजा आदि सभी कामों में ईश्वर के प्रति एकाग्र नहीं हो पा रहे हैं।

अपने आपको महान साधक और सिद्ध, संत, ध्यानयोगी, कथावाचक, मानसमर्मज्ञ, तपस्वी और ऋषि-महर्षि-ब्रह्मर्षि से लेकर जाने क्या-क्या महान मान बैठे हैं मगर हम सभी थोड़ी ईमानदारी से सोचें तो हमारी आत्मा अपने आप हमारी असलियत बता देगी। हम बात तो ईश्वर को पाने के लिए करते हैं लेकिन हमारा ध्यान जिंदगी भर उन लोगों में लगा रहता है जो हमारे लिए भौतिक सुख-सुविधाएं और भोग-विलासिताओं के लिए प्रबन्ध करते हैं।

मन्दिरों में हम पूजा करते हैं तब भी हमारा ध्यान आने-जाने वाले दूसरे दर्शनार्थियों की ओर होता है, ईश्वर के प्रति ध्यान एकाग्र करते हैं, वैदिक ऋचाओं,मंत्रों और स्तुतियों का गान करते हैं तब भी हमारा मोबाइल पूरी तरह जागृत रहते हैं और जैसे कि किसी इंसान का कॉल आता है, हम ईश्वर की पूजा-उपासना,भक्ति और साधना, यज्ञ-यागादि आदि सब छोड़कर मोबाइल पर बतियाने में व्यस्त हो जाते हैं।

इसी प्रकार हम अनुष्ठानों और कर्मकाण्ड या पूजा-पाठ के बीच भगवान के सामने औरों से बतियाते रहते हैं। हम जब भी ईश्वर का सामीप्य पाने की कोशिश करते हैं तब ईश्वर की दृष्टि हमारी तरफ रहती है लेकिन जैसे ही हम ईश्वर की अवज्ञा कर संसार से वार्तालाप में व्यस्त हो जाते हैं तब ईश्वर हम पर से अपनी दृष्टि हटा देता है और फिर दुबारा हमारी तरफ देखता तक नहीं।

ऎसे ही हम किन्ही औरके लिए अनुष्ठानों में व्यस्त होते हैं तब हमारी दृष्टि अपने यजमान पर केन्दि्रत होती है या किसी वीआईपी पर, जिनके आने पर हम अपने स्वर तेज कर देते हैं और मुद्राएं ऎसी कि जैसे दुनिया में हम जैसा कोई पण्डित या सिद्ध हो ही नहीं। हमारी सारी साधनाओं में सफलता इसीलिए संदिग्ध होती जा रही है क्योंकि हमारी दृष्टि ईश्वर या उनकी ओर बढ़ने के रास्तों की बजाय मानवी चकाचौंध पर केन्दि्रत हो गई है।

ईश्वर से हमारे बीच किसी भी प्रकार की कोई दूरी नहीं होती बल्कि ईश्वर को पाने की जितनी तीव्रता, एकाग्रता और तड़प होती है उतनी शीघ्रता से हमें उनकी प्राप्ति होती है। यही बात हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर लागू होती है। जहां हमारे और साध्य के बीच और कोई नहीं होगा वहाँ हमें सभी प्रकार की सफलताएं अपने आप प्राप्त होने लगती हैं जबकि जहाँ ईश्वर और हमारे बीच कोई तीसरा या दूसरे लोग या विचार आ जाते हैं वहाँ सफलता हमसे दूर होने लगती है।

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