डाॅ. राकेश राणा

किसी भी समाज में मीडिया और राजनीति का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था से गहरा संबंध होता है। मीडिया विशेषतः विकास-संचार और लोकतांत्रिक सहभागिता का काम देखता है। विकास और स्वतंत्रता अंर्तसंबंधित है। जिनका पहिया स्वतंत्र मीडिया की धुरी पर घूमता है। राजनीतिक व्यवस्थाएं मीडिया की इसी स्वतंत्रता को कुतरती रहती है, जो संकट पूरे वैश्विक परिदृश्य पर है। यह कोरी कल्पना होगी कि कभी मीडिया और राज्य एक आदर्श स्थिति का निर्माण करेंगे? सत्ता तो समाज और मीडिया को अधिकाधिक नियंत्रित करना चाहती ही है पर अपनी नीति और नीयत के चलते मीडिया भी समझौते को अभिशप्त है। मीडिया पर सबसे ज्यादा नियंत्रण तो वामपंथी सरकारों के दौरान दिखा है, जो खुद को जन-सरोकारी कहते नहीं थकते।

लोकतंत्र के विकास की दिशा में समाज, सरकार और मीडिया तीनों के एजेंडा में जबतक तारतम्य नहीं है तबतक कोई सुखद परिणाम आ ही नहीं सकता है। मीडिया की भूमिका सत्ता पक्ष के गुण और दुर्गण तटस्थ और स्वतंत्र ढंग से सबके सामने लाने की है। पर नव उदारवाद के दौर की नयी राजनीति ने मीडिया की भूमिका बदल दी। आज मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए जो युद्ध चल रहा है वे सत्ता का आक्रमण तय करते हैं कि बहस के केंद्र में कौन-सा मुद्दा आए। किन चिंताओं पर लोग चिंतन करें और अपना मत जाहिर करें। जैसे प्रतिनिधित्व वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव एक अवसर होता है जब लोगों से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श होता है। सरकार को कुछ कसौटियों पर कसने की कोशिशें होती हैं कि किन मसलों पर सरकार का क्या रुख है? चुनावी माहौल से यह सब धीरे-धीरे गायब हो रहा है। सामूहिक विमर्श का भाव पूरी तरह नदारद है। मीडिया जन-विमर्श के मुददों को कुचलकर सत्ता-विमर्श में मगशूल है। यह उन मुद्दों को बीच बहस से उड़ा देता है जो किसी क्षेत्र विशेष के प्रदर्शन पर विमर्श को सीमित करते हों और जन-संघर्षों को अर्थ प्रदान करते हों।

भूमंडलीकरण के दौर में मीडिया के केंद्रीकरण ने इसकी भूमिका और स्वरूप को ज्यादा ही बिगाड़ दिया। मीडिया जनमत के बजाए पूंजीपति-वर्ग और राजनीति का हथियार बनकर रह गया है। परिणाम मीडिया की संकुचित भूमिका के चलते विकासशील समाज की सही तस्वीर सामने नहीं आ पा रही है। आज विकासशील देश सूचना साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की चपेट में है। जिनपर मजबूत राष्ट्र निरन्तर सांस्कृतिक आक्रमण कर रहे हैं। ऐसे में एक वैकल्पिक मीडिया ही समाज को संबल प्रदान कर सकता है। विकासशील देशों को अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को मजबूत करना होगा, जिसमें मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेगा। जिसके लिए जरूरी है मीडिया का लोकतांत्रिकरण और विकेंद्रीकरण हो। विकास को गति लोकतांत्रिक सहभागिता से मिलती है। हमारा देश विविधताओं से भरा है, सबके साथ और सबके विकास के लिए विभिन्न स्तरों पर सही प्रतिनिधित्व हेतु सामुदायिक मीडिया का सशक्त होना आवश्यक है। ताकि समग्र विकास के सही और संतुलित कदम उठाये जा सकें। इससे मीडिया के केंद्रीकरण का खतरा भी कम होगा और मीडिया जमीनी यथार्थ से जुड़ेगा, उसको समझेगा। अपरिपक्व मीडिया किसी भी समाज को जोखि़म में डाल सकता है, अपने समाज को अराजक स्थिति में पहुंचा सकता है। जन-दबाव ही मीडिया का भी सेफ्टी-वाल्व होता है जिसके अभाव में सत्ता का हलकारा उसकी मजबूरी बन जाती है। इसलिए मीडिया यह न भूले कि उसकी रक्षा-सुरक्षा सत्ता नहीं समाज में निहित है।

समाज के विकास में मीडिया अहम है। विकास-संचार की भूमिका विशुद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में निखरकर सामने आती है। एक सफल लोकतंत्र के लिए भी मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक अपरिहार्य शर्त है। विकासशील समाज में मीडिया की भूमिका कुछ अतिरिक्त उत्तरदायित्व निभाने की है। ताकि विकास-संचार एक सृजनात्मक माहौल की समाजार्थिक और राजनैतिक स्थितियां बना सके। सुधारों के लिए भी जनमानस को बदलकर सकारात्मक राष्ट्र निर्माण की मानसिकता का विकास कर सके। समाज को विकास के लिए प्रेरित कर सके, लोगों को स्वःस्फूर्त ढंग से नवाचारों और नये संपर्कों के लिए उद्वेलित रख सके। सामाजिक समरसता की मनो-संरचना के साथ शांति की संस्कृति के निर्माण में आगे बढ़कर काम करना ही मीडिया की केन्द्रीय भूमिका बनती है। ताकि लोकतंत्र मजबूत बन सके और एक सुखी, समृद्ध, समरस, न्यायपूर्ण और शांतिपूर्ण अहिंसक मानवीय समाज का निर्माण हो सके।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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