भारत की 17 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 3 तीसरी लोकसभा – 1962 – 1967

नेहरू जी के अश्वमेध के घोड़े को कोई रोक पाने की क्षमता नहीं रखता था। उन्होंने अपने राजनीतिक चातुर्य और बुद्धि बल से अपने आप को पूर्णत: निष्कंटक बना लिया था। यही कारण था कि अब वह अजेय नेहरू के रूप में शासन कर रहे थे। भारत से बाहर भी उन्होंने सम्मानपूर्वक कदम बढ़ाए और अनेक प्रकार के सम्मान लेकर स्वदेश लौटे। उन्होंने अपने समय में कई ऐसे विश्व नेताओं के साथ मित्रता पूर्ण संबंध स्थापित किये जिनका समकालीन विश्व राजनीति में विशेष महत्व था। नेहरू जी के इस प्रकार के वैश्विक व्यक्तित्व का भारत के समकालीन समाज पर भी प्रभाव पड़ रहा था। यही कारण था कि लोग उनके साथ जुड़े हुए थे। राजनीति में यह एक बहुत बड़ा गुण माना जाता है कि कोई राजनेता देश के जनमानस को देर तक अपने साथ जोड़े रखे। निस्संदेह देश के पहले प्रधानमंत्री इस विशेष कसौटी पर खरे उतर रहे थे।

तीसरी लोकसभा और चीन का आक्रमण

भारत की तीसरी लोकसभा के लिए 1962 में चुनाव संपन्न कराए गए। इस लोकसभा का कार्यकाल 1967 तक रहा। यह लोकसभा कई अर्थों में बहुत महत्वपूर्ण रही। इसी लोकसभा के कार्यकाल के दौरान भारत को चीन के साथ 1962 में युद्ध करना पड़ा। जिसमें तत्कालीन नेतृत्व की गलतियों के कारण देश की पराजय हुई। अभी देश को स्वाधीन हुए मात्र 15 वर्ष हुए थे, इतने समय में ही विदेशी आक्रमणकारी का भारत पर आक्रमण करना और उसमें भी देश को हार का सामना करना यह उस अहिंसावादी नीति की पोल खोल देती है जिसको लेकर यह मिथक गढ़ा गया कि भारत ने अहिंसा के बल पर स्वाधीनता प्राप्त की थी।1962 में मिली इस पराजय ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि देश अहिंसा के बल पर आजाद हो सकता है और ना ही आजादी की रक्षा कर सकता है। आजादी पाने के लिए भी और आजादी की रक्षा करने के लिए भी इसे खून से खींचना ही पड़ता है। 1962 में जब देश के अनेक वीरों ने मातृभूमि के लिए बलिदान देकर आजादी को अपने खून से सींचा तो तत्कालीन नेतृत्व को यह आभास हुआ कि वास्तव में ही आजादी को खून से ही सींचा जाता है।

तीसरी लोकसभा और नेहरू जी का देहांत

   इसके साथ ही साथ 27 मई 1964 को पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का देहांत हो गया। उनके निधन के पश्चात देश के राजनीतिक गगनमंडल पर एक गहरा शून्य बन गया।
उस समय की राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोग हुआ करते थे, जो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर बात करना जानते थे। नेहरू जी की मृत्यु के 2 दिन पश्चात अर्थात 29 मई 1964 को देश की संसद में उनकी मृत्यु से बने इस शून्य की ओर संकेत करते हुए अटल जी ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि , “आज एक सपना खत्म हो गया है, एक गीत खामोश हो गया है, एक लौ हमेशा के लिए बुझ गई है। यह एक ऐसा सपना था, जिसमे भूखमरी, भय डर नहीं था, यह ऐसा गीत था जिसमे गीता की गूंज थी तो गुलाब की महक थी।

….यह चिराग की ऐसी लौ थी जो पूरी रात जलती थी, हर अंधेरे का इसने सामना किया, इसने हमे रास्ता दिखाया और एक सुबह निर्वाण की प्राप्ति कर ली। मृत्यु निश्चित है, शरीर नश्वर है। वह सुनहरा शरीर जिसे कल हमने चिता के हवाले किया उसे तो खत्म होना ही था, लेकिन क्या मौत को भी इतना धीरे से आना था, जब दोस्त सो रहे थे, गार्ड भी झपकी ले रहे थे, हमसे हमारे जीवन के अमूल्य तोहफे को लूट लिया गया।
अटल जी मानो पूरे राष्ट्र की ओर से अपने दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि दे रहे थे। उन्होंने बड़े भावपूर्ण शब्दों में आगे कहा “आज भारत माता दुखी हैं, उन्होंने अपने सबसे कीमती सपूत खो दिया। मानवता आज दुखी है, उसने अपना सेवक खो दिया। शांति बेचैन है, उसने अपना संरक्षक खो दिया। आम आदमी ने अपनी आंखों की रौशनी खो दी है, पर्दा नीचे गिर गया है। दुनिया जिस चलचित्र को ध्यान से देख रही थी, उसके मुख्य किरदार ने
अपना अंतिम दृश्य पूरा किया और सर झुकाकर विदा हो गया।’

तीसरी लोकसभा और शास्त्री जी

पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में गुलजारीलाल नंदा ने 27 मई 1964 से 9 जून 1964 तक कार्यभार संभाला। तत्पश्चात देश को अगला प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के रूप में मिला। जब लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने तो उनके समय में भी पाकिस्तान के साथ देश को मात्र 3 वर्ष पश्चात ही 1965 में एक दूसरे युद्ध से गुजरना पड़ा। देश की अर्थव्यवस्था यद्यपि उस समय किसी भी प्रकार के युद्ध को झेलने की अनुमति नहीं दे रही थी, परंतु देश की तीसरी लोकसभा के कार्यकाल में देश को दो अवांछित युद्धों का सामना करना पड़ा। वास्तव में उस समय पाकिस्तान को यह भ्रम हो गया था कि यदि भारत को चीन पीट सकता है तो वह भी इस काम को कर सकता है। भारत पर आक्रमण करने के लिए उसे चीन ने भी अपना समर्थन दिया। आजादी के बाद उभरते हुए भारत को तुरंत कुचल देने का यह अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र था। जिसमें पाकिस्तान का साथ चीन के साथ-साथ अमेरिका जैसे देश भी दे रहे थे। 
नेहरू जी के विपरीत शास्त्री जी बहुत ही यथार्थवादी दृष्टिकोण के नेता थे। वह उस समय बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं थे। कई लोग ऐसे थे जो उनके नेतृत्व पर शंकाएं व्यक्त कर रहे थे। उनको लेकर लोगों को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह संकट के काल में देश का नेतृत्व कर पाएंगे। पर शास्त्री जी ने अपनी मजबूत संकल्प शक्ति से यह स्पष्ट कर दिया कि वह जितने शांत और विनम्र हैं, उतने ही क्रांतिकारी भी हैं। वह शांति काल में ही नहीं युद्ध काल में भी देश का नेतृत्व कर सकते हैं। 1965 में भारत ने जीत प्राप्त की और अपने इस नेता के माध्यम से सारे संसार को यह संकेत और संदेश दे दिया कि 1962 के युद्ध से भारत ने बहुत कुछ सीखा है और अब लोगों को भारत को नए दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। 

लाल बहादुर शास्त्री जी कद में छोटे थे परंतु संकल्प शक्ति में उनके कद का नेता उस समय कोई नहीं था। उन्होंने संकल्प लिया कि देश को जिताना है और यही हुआ। उनकी संकल्प शक्ति की विजय हुई। देश ने अपने नेता की संकल्प शक्ति को प्रणाम किया। भारत ने अपना विजय उत्सव मनाया।

ताशकंद में शास्त्री जी का हुआ देहांत

 1965 के युद्ध के पश्चात सोवियत संघ ने भारत और पाकिस्तान दोनों को अपनी धरती पर समझौते के लिए आमंत्रित किया। दोनों देशों के नेताओं को रूस ने अपने ताशकंद शहर में वार्ता की मेज पर बैठाने का निर्णय लिया। दोनों देशों के नेताओं ने वहां पर वार्ता को धीरे-धीरे आगे बढ़ाया। इस वार्ता में तैयार हुई संधि की सबसे बड़ी और दु:खद शर्त यह थी कि भारत को पाकिस्तान का जीता हुआ क्षेत्र लौटाना पड़ेगा। दोनों देश वहीं लौट जाएंगे, जहां युद्ध से पूर्व उनकी सेनाएं थीं। इस शर्त को शास्त्री जी मानने के लिए तैयार नहीं थे। पर उन पर दबाव बनाकर इस संधि समझौते पर हस्ताक्षर करवाये गये। जिससे शास्त्री जी अत्यंत दु:खी हुए। फलस्वरुप रूस के इसी ताशकंद में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का 11 जनवरी 1966 को संदिग्ध परिस्थितियों में देहांत हो गया। ऐसा भी कहा जाता है कि शास्त्री जी की यह स्वाभाविक मौत नहीं थी।

शास्त्री जी ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में देश को नेतृत्व देकर अपना नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखवाने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए काम किया और जब देश में अन्न की कमी हुई तो उन्होंने लोगों को सप्ताह में एक दिन व्रत रखने का संकल्प दिलाया। लोगों ने अपने नेता की बात को मानकर ऐसा करके भी दिखाया। उन्होंने युद्ध काल में जिस प्रकार देश का नेतृत्व किया उससे उनकी लोकप्रियता बहुत अधिक बढ़ गई थी। वह तो संसार से चले गए पर उनके जाने के पश्चात पूरे देश में मातम की लहर दौड़ गई।
इस प्रकार इस तीसरी लोकसभा ने देश के दो प्रधानमंत्री मात्र 2 वर्ष के अंतराल पर ही खो दिए थे।

इंदिरा गांधी बनीं देश की प्रधानमंत्री

शास्त्री जी के असमय ही संसार से चले जाने के पश्चात गुलजारीलाल नंदा को फिर कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्होंने 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966 तक इस पद पर कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। तत्पश्चात भारतवर्ष की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनीं। वह देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। इस प्रकार मात्र 2 वर्ष के अंतराल पर ही तीसरी लोकसभा ने अपने कार्यकाल में तीसरी प्रधानमंत्री को शपथ लेते हुए देखा।
  तीसरी लोकसभा के लिए भी कुल 508 सीटों पर चुनाव हुआ। तीसरे आम चुनाव में भी कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। इस समय तक पार्टी में आंतरिक उमस बढ़ गई थी। जिससे सत्ता में बैठे लोगों के बीच मतभेद गहरे होते चले गए थे। यद्यपि कांग्रेस के भीतरी मतभेदों को अभी जनता ने पूरी तरह समझा नहीं था। वैसे भी देश की जनता उस समय तक भी शिक्षा के गहरे भंवरजाल से बाहर नहीं निकली थी। उनके लिए नेहरू सचमुच 'बेताज का बादशाह' बन चुके थे। कांग्रेस ने किस प्रकार देश के क्रांतिकारी बलिदानियों, वीर वीरांगनाओं के साथ अत्याचार करते हुए उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया था ? या ऐसी ही और कौन-कौन सी घटनाएं हो चुकी थीं, इसकी जानकारी देश के जनमानस को नहीं थी। 

कांग्रेस ने जीता तीसरा चुनाव

जिस समय देश में तीसरी लोकसभा के चुनाव हुए उस समय राम मनोहर लोहिया को पी0एस0पी0 छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। देश के इस महान नेता ने तब निर्णय लिया कि सोशलिस्ट पार्टी के झंडे तले जाकर चुनाव लड़ा जाए। इसी प्रकार दक्षिणपंथी गुटों ने भी स्वतंत्र पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक बार फिर शानदार प्रदर्शन करते हुए 44.72% मत प्राप्त कर लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 9.94% और स्वतंत्र पार्टी ने अपना पहला चुनाव लड़ते हुए 7.89% मत प्राप्त किए। इस समय तक आते-आते कांग्रेस के प्रति लोगों में दूरी बनने का भाव पैदा होता हुआ देखा गया।                राष्ट्रीय स्तर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देने वाला कोई राजनीतिक दल उस समय देश में नहीं था, परंतु क्षेत्रीय स्तर पर कुछ राजनीतिक दल उभरते हुए दिखाई दिए । जिन्होंने जनमत को अपनी ओर मोड़ने में सफलता प्राप्त की । कालांतर में इन क्षेत्रीय दलों ने देश की राजनीति को कई प्रकार से प्रभावित करना आरंभ किया। उन्होंने सत्ता में भागीदारी प्राप्त करने की शर्तें लगाईं और एक 'दबाव गुट' के रूप में अपनी कार्य शैली को विकसित कर देश की राजनीति को प्रभावित किया। बाद में जब 1977 में कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने में देश का विपक्ष सफल हुआ तो एक प्रकार से उसकी कहानी का शुभारंभ पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय संपन्न हुए लोकसभा के तीसरे चुनाव के समय ही हो चुका था ,जब देश के लोगों ने क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस के मुकाबले पसंद करने का संकेत दिया था।

नेहरू नहीं रह पाए पंथनिरपेक्ष

 पंडित जवाहरलाल नेहरू पहले दिन से ही अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि पर विशेष ध्यान देते आ रहे थे। उन्होंने जम्मू कश्मीर की रियासत और सियासत को सोने की थाली में सजाकर अपने मित्र शेख अब्दुल्ला के सामने परोस दिया था। वहां पर जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां बनाई गईं कि प्रजा परिषद पार्टी को चुनाव से हटना पड़ा और शेख अब्दुल्ला के लिए मुख्यमंत्री बनने का रास्ता प्रशस्त हो गया।
    प्रजा परिषद पार्टी ने नेहरू के इस प्रकार के पक्षपाती दृष्टिकोण का भरपूर विरोध किया, परंतु नेहरू सत्ता के मद में चूर थे। उन पर प्रजा परिषद पार्टी के इस प्रकार के आंदोलन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। नेहरू अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि के दृष्टिगत मुसलमानों के तुष्टीकरण के लिए निरंतर कार्य करते रहे। पंडित जवाहरलाल नेहरू गुटनिरपेक्षता के नाम पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने आप को प्रमुखता से स्थापित करते रहे। दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि वह अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तो गुटनिरपेक्षता की बात कर रहे थे, पर देश में वह अपने आप को गुटनिरपेक्ष (अर्थात पंथनिरपेक्ष शासन के रूप में) नहीं रख पाए। सत्ता में रहकर पंथनिरपेक्ष भाव अपना कर शासन करने में वह असफल रहे। उनका झुकाव मुस्लिम पक्ष की ओर बना रहा। 
दुःख की बात यह रही कि उन्होंने कई अवसरों पर देश के हितों की उपेक्षा करते हुए भी अपने आप को अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करना अधिक उपयुक्त माना। अपनी इसी सोच के चलते वह उचित समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में न तो अपने लिए स्थायी सीट ले सके और न ही कश्मीर समस्या को जोरदार ढंग से संसार के नेताओं के समक्ष उठा सके।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन और नेहरू जी

उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राज्यों का एक ऐसा समूह बनाने का प्रयास किया जो औपचारिक रूप से किसी प्रमुख शक्ति गुट के साथ या उसके विरुद्ध नहीं हो। इसके उपरांत भी वह साम्यवादी रूस के प्रति झुके रहे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन भारत के प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर व युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति डाॅ सुकर्णो एवं घाना – क्वामें एन्क्रूमा के संयुक्त प्रयासों का परिणाम था। इन नेताओं के आंदोलन और विचारों का तत्कालीन विश्व समाज पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से उनके प्रयासों ने तत्कालीन विश्व समाज को अपनी ओर आकर्षित और प्रेरित किया था। कुल मिलाकर इन सभी नेताओं की सोच बहुत अच्छी थी। यह सभी मिलकर संसार को शांति का संदेश देना चाहते थे। इनकी सोच थी कि युद्ध को सदा सदा के लिए विदा कर दिया जाए। मानवता अपने हितों की रक्षा के लिए शांतिपूर्ण प्रयासों के माध्यम से काम करना सीखे। सब देश एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना सीखें और एक दूसरे की संप्रभुता को आदर देना अपना स्वभाव बना लें। निश्चित रूप से बहुत बड़ी बातें थीं। पर छल कपट की राजनीति में व्यस्त रहने वाले विश्व नेताओं को नेहरू समेत इन सभी नेताओं की ऐसी बातें उपहासास्पद ही लगती थीं।
उस समय का विश्व समाज दो बड़ी शक्तियों अर्थात अमेरिका और रूस की प्रतिद्वंदिता के चलते शीत युद्ध की अंधेरी सुरंग में फंसा हुआ था। जिससे युद्ध की संभावनायें कभी भी उभर आती थीं। जिससे छोटे देशों की चिंताएं बढ़ जाती थीं। उन चिंताओं को एक नेतृत्व देने का काम इस गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने किया। इसके उपरांत भी नेहरू के लिए अपने देश के हितों की उपेक्षा कर जाना या अपने लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अनुकूल परिस्थितियां न बनाकर सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट प्राप्त करने से बचना उचित नहीं था। शांति प्रयास बहुत ही अच्छे होते हैं, पर ये अपने देश के हितों की कीमत पर नहीं होने चाहिए।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना अप्रैल,1961में हुई थी।इस संगठन का उद्देश्य गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता, सार्वभौमिकता, क्षेत्रीय एकता एवं सुरक्षा को उनके साम्राज्यवाद, औपनिवेशिकवाद, जातिवाद, रंगभेद एवं विदेशी आक्रमण, सैन्य अधिकरण, हस्तक्षेप आदि मामलों के विरुद्ध सुरक्षात्मक परिस्थितियों सृजित और सुनिश्चित करना था।

नेहरू जी का खोखला आदर्शवाद

पंडित जवाहरलाल नेहरू वैसे तो स्वतंत्रता से पूर्व 2 सितंबर 1946 को देश के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे , पर 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक वह प्रधानमंत्री बने रहकर निरंतर देश का नेतृत्व करते रहे। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में देश की सुरक्षा को चुनौती देते हुए चीन ने भारत पर आक्रमण किया। नेहरू जी की देश की सुरक्षा के प्रति बरती गई शिथिलता पूर्ण नीतियों के चलते चीन ने इस युद्ध में भारत को पराजित किया। इतना ही नहीं, वह पूर्व में अरुणाचल प्रदेश की ओर से भारत का बहुत बड़ा क्षेत्र छीनकर भी ले गया। नेहरू जी आदर्श की खोखली बातों में विश्वास करते रहे। वह गांधी जी के अहिंसावादी सिद्धांत को राजनीति में लागू करने का बेतुका प्रयास करते रहे। नेहरू जी यह भूल गए कि गांधी जी स्वयं अहिंसा के मोर्चे पर असफल सिद्ध हो चुके थे। तब उनकी अहिंसावादी नीति को छल, कपट, बेईमानी , मक्कारी और कूटनीति से भरी वैश्विक राजनीति में कैसे लागू किया जा सकता था ?
‘अस्तित्व के लिए संकट’ में कभी भी आदर्शवादी खोखली राजनीति और राजनीति की नीतियां सफलता नहीं दिलाती हैं ,वहां पर ‘जैसे को तैसा’ का व्यवहार करना पड़ता है। ‘अस्तित्व के लिए संकट’ की स्थिति में ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’ का सहारा लेना पड़ता है। ध्यान रहे कि संघर्ष किसी प्रकार के आदर्श से नहीं निकलता है बल्कि वह शस्त्र से ही निकलता है। इस प्रकार अस्तित्व की रक्षा के लिए ही शस्त्र की आवश्यकता पड़ती है। ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’ की स्थिति में शस्त्र से बचना आत्महत्या करने के समान होता है।
1962 के युद्ध का परिणाम देश के लिए निराशाजनक था । चारों ओर निराशाजनक परिस्थितियां निर्मित हो गई थीं। नेहरू स्वयं अब टूट चुके थे। उनके अंतिम दिनों में उन्हें अधरंग मार गया था।
1962 के युद्ध में मिली हार के सदमे से वह उभर नहीं पाए और 27 मई 1964 को उनका देहांत हो गया। इसके बारे में हम ऊपर ही प्रकाश डाल चुके हैं।
उस समय देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे।

तीसरी लोकसभा के चुनाव के आंकड़े

जब देश में तीसरी लोकसभा के चुनाव हुए तो इन चुनावों के समय से ही पहली बार मतदान प्रक्रिया में अमिट स्याही का प्रयोग किया जाना आरंभ हुआ। के.वी.के. सुन्दरम ही इस समय भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। इस चुनाव में कुल मतदाता 21 करोड़ 64 लाख के लगभग थे। जबकि कुल खर्च 7.3 करोड रुपए आया था। 1957 के दूसरे लोकसभा चुनाव की अपेक्षा इस चुनाव में थोड़ा खर्च बढ़ा, यद्यपि वह लोकसभा के पहले चुनाव से फिर भी कम था। इस लोकसभा का कार्यकाल 2 अप्रैल 1962 से 3 मार्च 1967 तक रहा। इस लोकसभा के 14 सदस्य राज्यसभा के लिए भी चुन लिए गए थे। लोकसभा के अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह ( 17 अप्रैल 1962 से 16 मार्च 1967 तक ) रहे। जबकि उपाध्यक्ष एसवी कृष्णमूर्ति राव ( 23 अप्रैल 1962 से 3 मार्च 1967 तक) रहे। प्रधान सचिव के रूप में एमएन कौल 27 जुलाई 1947 से 1 सितंबर 1964 तक और एसएल शकधर 2 सितंबर 1964 से 18 जून 1977 तक कार्य करते रहे। इस लोक सभा के कार्यकाल के दौरान देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे।

तीसरी लोकसभा के कार्यकाल में देश में तीसरी पंचवर्षीय योजना कार्य कर रही थी। देश की तीसरी पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल 1961 से 1966 तक का था। इस योजना के माध्यम से देश ने स्व – स्फूर्त अर्थव्यवस्था की स्थापना करना रखा। देश की सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए देश के राजनीतिक नेतृत्व ने कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की। साथ ही आधारभूत उद्योगों के विकास पर भी ध्यान दिया गया। यद्यपि चीन और पाकिस्तान से युद्ध होने , साथ ही सूखा की स्थिति पैदा हो जाने के कारण यह योजना अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाई। फलस्वरुप ‘योजना अवकाश’ की नीति अपनाई गई और देश की चौथी पंचवर्षीय योजना 3 वर्ष के विलंब से अर्थात 1969 से लागू हुई।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)

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