आप भी कर सकते हैं अपने घर में यज्ञ

पं. लीलापत शर्मा-विभूति फीचर्स
गायत्री और यज्ञ एक-दूसरे के पूरक है, उन्हें अन्योन्याश्रित कहा गया है। सर्वविदित है कि गायत्री अनुष्ठानों की पूर्णता के लिए सतयुग में दशांश होम का विधान था और अब बदली हुई परिस्थितियों में शतांश का विधान है। आर्थिक, शारीरिक एवं परिस्थितिजन्य कठिनाइयों की स्थिति में भी ऋषि परंपरा यह है कि यज्ञ की न्यूनतम प्रतीक पूजा तो कर ही ली लेना जानी चाहिए। यहां तक कि मात्र लकड़ी के टुकड़े घी या सामग्री का स्थानापन्न मानकर हवन किया जा सकता है। सर्वथा विवश होने पर ब्रह्म रूपी अग्नि में श्रद्धा रूपी हविष्य होमने का ध्यान कर लेने से भी मानसिक यज्ञ हो सकता है। इन सब विधि परंपराओं का उद्देश्य मात्र एक ही है कि प्रमुख उपासना में यज्ञ प्रक्रिया को अनिवार्य रूप में सम्मिलित रखा जाए, भले ही उसका स्वरूप न्यूनतम ही क्यों न हो?
दैनिक उपासना के संबंध में भी यही बात है। गायत्री को गुरुमंत्र कहा गया है। वह वेदमाता और भारतीय संस्कृति की जननी है। दैनिक उपासना को संध्या कहा गया है और संध्या का प्राण गायत्री है। शिखा रूप में मस्तिष्क की विचारणा पर उसी की सर्वोच्चता का ध्वज फहराया जाता है। नित्य कर्म में गायत्री उपासना को जिस प्रकार जोड़कर रखा गया है ठीक उसी प्रकार यज्ञ की अनिवार्यता का भी प्रतिपादन है।
भारतीय धर्म की पवित्रता, उदारता और समर्थता का सर्वतोमुखी समन्वय, यज्ञ विज्ञान में कूट-कूट कर भरा है। गायत्री सद्बुद्धि की देवी अधिष्ठात्री है और यज्ञ सत्कर्म का प्रेरक प्रणेता। सावित्री और सविता की गायत्री और ब्रहा की युग्म विवेचना उपनिषद्कारों ने की है। यह सविता और ब्रहा प्रकारांतर से यज्ञ ही है। इसलिए नित्य उपासना में यज्ञ कर्म भी जुड़ा हुआ है।
यज्ञ का अर्थ है पुण्य परमार्थ। उच्चकोटि का स्वार्थ ही परमार्थ है। उससे लोक कल्याण भी होता है। और बदले में अपने को भी श्रेय सम्मान सहयोग आदि का लाभ होता है। गीताकार श्रीकृष्ण ने जीवन में यज्ञीय तत्वज्ञान के समावेश करने पर बहुत जोर दिया है और कहा है कि यज्ञ विद्या की उपेक्षा करने पर न लोक बनता है न परलोक। जो यज्ञ से बचा हुआ खाते हैं वे सब पापों से छूट जाते हैं और जो अपनी उपलब्धियों को अपने लिए खर्च कर लेते हैं वे पाप खाते हैं।
जिस प्रकार नित्य कर्मों में भोजन, स्नान, मल विसर्जन आदि को आवश्यकता है। इस संदर्भ में उपेक्षा बरती जाए तो समाज में दुष्प्रवृत्तियां बढ़ेंगी और उसका स्तर गिरेगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जिस समाज में वह रहता है उसके प्रभाव से बच नहीं सकता। इसलिए आत्म-कल्याण का प्रयोजन पूरा करने के लिए भी अपनी जीवनचर्या में यज्ञ विद्या को सम्मिलित रखकर चलना चाहिए और उसे यदा-कदा नहीं नित्य नियमित रूप से करना चाहिए।
दैनिक बलिवैश्य प्रक्रिया के पांच विभागों को पांच महायज्ञ कहा गया है। विशाल आकार प्रकार के अग्निहोत्रों को जहां मात्र यज्ञ नाम से पुकारा गया है वहां कुछ मिनटों में पूरी होने वाली क्रिया को महायज्ञ क्यों कहा गया? इसका सीधा सा उत्तर है कि बलिवैश्व को मात्र कृत्य ही नहीं जीवन नीति का आवश्यक अंग माना गया है और उसे कभी भी न छोडऩे के लिए कहा गया है, जब कि विशाल यज्ञ जब कभी ही होते है,और उनका प्रयोजन भी सामयिक समस्याओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होता है जबकि बलि-वैश्व को आवश्यक कत्र्तव्यों की श्रेणी में गिना गया है और उन्हें कर लेने के उपरांत ही भोजन ग्रहण करने का अनुशासन बनाया गया है। साथ ही उसकी परिणति का प्रतिफल भी बहुत आकर्षक बताया गया है।
दैनिक संध्या वंदन की तरह प्रात: सांय जो आहुतियां दी जाती हैं उन्हें आग्निहोत्र कहते हैं। प्रात: यज्ञ को सूर्योपासना और सायंकालीन को अग्रि साधना कहा गया है।
बलि-वैश्व की गणना दैनिक अग्निहोत्र में की गई है और हर व्यक्ति के लिए इसे अनिवार्य घोषित किया गया है। शास्त्रों के अनुसार –
प्रात: सूर्य के लिए सायंकाल भोजन से पहले बलिवैश्वदेव करना चाहिए अन्यथा पाप भाजन बनना पडता है। श्रुति का निर्देश है कि भोजन बनाकर केवल अकेले खाने वाला पाप ही खाता है।
शास्त्र तो यहां कहता है कि बलिवैश्वदेव करने तक की असमर्थता हो तो मात्र जल से हवन कर लेना चाहिए।
बलिवैश्वदेव की इस शास्त्रीय परंपरा के पीछे एक ही तथ्य समझ में आता है कि समाज में बहुत से प्राणी ऐसे है, जिन्हें अपने जीवन निर्वाह योग्य साधनों के लाले पड़े होते हैं। ऐसे प्राणियों की भोजन व्यवस्था हेतु साधन-संपन्नों को उदारता बरतनी पड़ती है। बलिवैश्वदेव द्वारा ऐसे ही निरीह प्रणियों को पोषण प्राप्त होता है। हवन के सूक्ष्म प्राण युक्त अंश से उन्हें पोषण मिलता है।
बलिवैश्व देव के पीछे उसके कर्ता के यही भाव दिखाई पड़ते हैं- जिनके माता-पिता या बंधु बांधव नहीं होते हैं या अन्न की व्यवस्था नहीं है, उन सबकी तृप्ति के लिए मैं अन्न प्रदान करता हूं बलि वैश्वदेव करता हूं।
प्रतिदिन आहुतियां देकर कत्र्तव्यों की पूर्ति करते रहने प्रतिज्ञा दुहराई जाती थी। पहले यज्ञ, परमार्थ पीछे निर्वाह स्वार्थ। यही रीति-नीति भारतीय संस्कृति के अनुयायियों की रही है। उसे विस्मृत न होने देंगे। नित्य, व्यवहार में लाने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए भी यह दैनिक अग्निहोत्र की प्रथा परंपरा है। उससे देव अनुग्रह और आत्म कल्याण का लाभ तो है ही।
पंच महायज्ञों में जिन ब्रहा देव, ऋषि आदि का उल्लेख है उनके निमित आहुति देने का अर्थ इन्हें अदृश्य व्यक्ति मानकर भोजन कराना नहीं वरन्ï यह है कि इन शब्दों के पीछे जिन देव वृत्तियों का सत्प्रवृत्तियों का संकेत है उनके अभिवद्र्धन के लिए अंश दान करने की तत्परता अपनाई जाए।
(1) ब्रहा यज्ञ का अर्थ है ब्रह्मï ज्ञान आत्म ज्ञान की पे्ररणा। ईश्वर और जीव के बीच चलने वाला पारस्परिक आदान-प्रदान।
(2) देव यज्ञ का उद्देश्य है पशु से मनुष्य तक पहुंचाने वाले प्रगति क्रम को आगे बढ़ाना। देवत्व के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव, का विकास विस्तार। पवित्रता और उदारता का आधिकाधिक संवर्धन।
(3) ऋषि यज्ञ का तात्पर्य है पिछड़ों को उठाने में संलग्र करूणार्द जीवन नीति। सदाशयता संवर्धन की तपश्चर्या।
(4) नर यज्ञ की प्रेरणा है – मानवीय गरिमा के अनुरूप वातावरण एवं समाज व्यवस्था का निर्माण। मानवीय गरिमा का संरक्षण। नीति और व्यवस्था का परिपालन, नर में नारायण का उत्पादन। विश्व मानव का श्रेय साधन।
(5) भूत यज्ञ की भावना है – प्राणी मात्र तक आत्मीयता का विस्तार। अन्याय जीवधारियों के प्रति सद्भावना पूर्ण व्यवहार। वृक्ष वनस्पतियों तक के विकास का प्रयास।
बलिवैश्व की पांच आहुतियों का दृश्य स्वरूप तो तनिक-सा है, पर उनमें जिन पांच प्रेरणा सूत्रों को समावेश है, उन्हें व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति का आधारभूत सिद्धांत कहा जा सकता है।
दैनिक उपासना में अकेला गायत्री जप ही पर्याप्त नहीं। उसके लिए अग्रिहोत्र भी साथ चलना चाहिए। यहां यह कठिनाई सामने आती है कि हवन में समय लगता है- वस्तुएं भी अनेक इकट्ठी करनी होती हैं। विधान से सभी अवगत नहीं होते, खर्च भी पड़ता है। इन चारों कठिनाइयों के लिए एक सुगम परंपरा बलि वैश्व की चली आती है। उसे इन दिनों विस्मृत एवं उपेक्षित कर दिया गया है। आवश्यकता इसकी है कि उसका भी महत्व समझा जाए और सभी परिवारों में उसे प्रचलित-पुनर्जीवित किया जाए।
बलि-वैश्व में दैनिक भोजन से पहले आहुतियां अग्रिदेव को दी जाती हैं। नमक मिर्च मसाले वाले पदार्थ नहीं होमे जाते। फीके मीठे पदार्थो के छोटे-छोटे चना मटर जैसे टुकड़े लेकर उनमें थोड़ा घी शक्कर मिलाकर आहुतियां दी जाती हैं।
पुरानी परंरपरा में तो कई आहुतियों के विधान में पांच बार गायत्री मंत्र से पांच आहुतियां देने से भी उसी परंपरा का प्रतीक निर्वाह हो सकता है। बलि वैश्व को पंच महायज्ञ भी कहते हैं। पांच यज्ञों में से एक-एक यज्ञ की प्रतीक एक-एक आहुति दी जा सकती है।
दैनिक यज्ञ का विधान सामान्य भोजन की पांच आहुतियां देने जैसा सरल कर देने पर भी उसके भले तत्व ज्ञान में कोई उच्चस्तरीय तत्वज्ञान का समावेश रहता है। बलि-वैश्व दैनिक यज्ञ के पीछे भी एक दर्शन है। वह यह कि परमार्थ प्रयोजन को जीवन चर्या में घुला कर रखा जाए। मात्र पेट के लिए ही न किया जाए। अपने श्रम, समय, ज्ञान मनोयोग जैसे साधन उतने ही निजी उपयोग में लिए जाएं जितना कि औसत भारतीय के निर्वाह में प्रयुक्त होता है। शेष को पिछड़ों को उठाने और सत्प्रयत्नों को आगे बढ़ाने में लगा दिया जाए। बलि वैश्व के दो पक्ष हैं। एक पक्ष में सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन, दूसरा पिछड़ों की सहायता। सहृदय सज्जनता के सामने यही दो उद्देश्य प्रधान रहते हैं। यही बलि-वैश्व के भी हैं।
अपने घरों में इस यज्ञ की परंपरा अवश्य प्रारंभ करा देनी चाहिए। (विभूति फीचर्स)

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