ओ३म् “ईश्वर और वेद का परस्पर सम्बन्ध और वेदज्ञान की महत्ता”

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ईश्वर और वेद शब्दों का प्रयोग तो आर्यसमाज के विद्वानों व सदस्यों को करते व देखते हैं परन्तु इतर सभी मनुष्यों को चार वेदों और ईश्वर का परस्पर क्या संबंध है, इसका यथोचित ज्ञान नहीं है। इस ज्ञान के न होने से हम वेदों की महत्ता को यथार्थरूप में नहीं जान पाते। वेद अन्य सांसारिक ग्रन्थों के समान नहीं हैं। सभी सांसारिक ग्रन्थ अल्पज्ञ मनुष्यों वा विद्वानों की रचनायें हैं जिसमें ज्ञान की न्यूनता, अल्पता व ज्ञान के विपरीत अनेक बातें भी होती हैं। वेद ऐसे ग्रन्थ न होकर इस संसार के रचयिता सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सृष्टिकर्ता परमात्मा का अपना अनुभव सिद्ध अनादि व नित्य ज्ञान है। परमात्मा में वेदों में निहित ज्ञान कभी किसी समय विशेष पर उत्पन्न नहीं हुआ। परमात्मा ने इस ज्ञान को अपने किसी गुरु व माता-पिता से भी सीखा नहीं है। परमात्मा का न तो कोई गुरु है और न ही माता व पिता। वह एक स्वयंभू अनादि व नित्य सत्ता है। परमात्मा में जो ज्ञान व सामथ्र्य है वह भी अनादि व नित्य है। परमात्मा का ज्ञान सर्वथा सत्य, निर्भरान्त व संसार के सभी जीवों का हितकारी है। इस ज्ञान को प्राप्त होकर आचरण करने से जीवों का कल्याण होता है और इसकी उपेक्षा व इससे दूरी रखने से अपार हानि भी होती है जो ज्ञानी व अनुभव सिद्ध मनुष्य ही जान सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो सृष्टि के आरम्भ से अब तक 1 अरब 96 करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी हमारे पूर्वज इस वेदज्ञान की अपने प्राणों से भी प्रिय जानकर रक्षा नहीं करते। संसार में ज्ञान व संस्कृत भाषा का प्रकाश भी वेदों के प्रकाश से ही हुआ। यदि परमात्मा सृष्टि की आदि में उत्पन्न मनुष्यों सहित स्त्री व पुरुषों को वेदों का ज्ञान प्रदान न करते तो मनुष्य भाषा व ज्ञान की दृष्टि से सदैव अज्ञानी रहता। परमात्मा ने मनुष्यों को सृष्टि की आदि में वेदों का ज्ञान देकर सब मनुष्यों पर महती कृपा की है। हमें वेद ज्ञान के स्वाध्याय सहित उसके आचारण व प्रचार द्वारा उसकी रक्षा के समुचित प्रबन्ध करने चाहियें। जो मनुष्य ऐसा करते हैं व करेंगे वह ईश्वर की विशेष कृपाओं के पात्र होंगे। यदि वेद नहीं रहेंगे तो धरती पर मानवता भी नहीं रहेगी। वेदों से ही मानवता का प्रचार होता है। जिन ग्रन्थों में मानव हित की बातें हैं वह भी उनमें वेदों से ही पहुंची हैं, ऐसा विचार व चिन्तन करने पर स्पष्ट होता है। संसार के सभी ग्रन्थ वेदोत्पत्ति के बाद ही बने हैं। अतः सभी ग्रन्थों में जो सत्य व ज्ञान से युक्त सामग्री है उसका आधार व प्राप्ति का स्रोत वेदज्ञान ही हैं।

वेद परमात्मा का वह ज्ञान है जो वह मनुष्यों के हित करने के लिये उन्हें प्रदान करते हैं। परमात्मा को सृष्टि की रचना व पालन आदि का विशद ज्ञान व इसके निर्माण की सामथ्र्य है परन्तु उसने मनुष्यों को वेद के माध्यम से उतना ही ज्ञान दिया है जितना उनके लिये संभव, हितकर, लाभदायक एवं उपयोगी होता है। यदि हम वेद ज्ञान का अध्ययन, रक्षण एवं प्रचार करते हैं तो इससे हमें लाभ प्राप्त होता है। हम स्वयं ज्ञानी बनते हैं, सत्य व असत्य को जानने में समर्थ होते हैं, सत्य का पालन कर हम अपना व अन्यों पर उपकार करते हैं तथा इससे मानव जीवन शान्तिपूर्वक व्यतीत होने सहित आध्यात्मिक एवं सांसारिक उन्नति से युक्त होता है। ऐसा करने से सभी मनुष्य सुखी एवं आनन्द से युक्त रहते हैं। वह व्याधियों व रोगों से दूर तथा स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हुए शारीरिक, मानसिक एवं आत्मा की शक्तियों से युक्त होते हैं। अतः हमें वेदों का अध्ययन कर इनसे स्वयं लाभ उठाना चाहिये और दूसरों को भी वेदाध्ययन की प्रेरणा देकर उन्हें वेदमार्ग में अग्रसर तथा परोपकार में प्रवृत्त करना चाहिये।

वेद परमात्मा में निहित नित्य ज्ञान है। यह सदैव परमात्मा में विद्यमान रहता है। इस ज्ञान का अभाव परमात्मा में कभी नहीं होता। यह भी जानने योग्य है कि परमात्मा चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को ही देते हैं। उनके द्वारा वेदज्ञान ब्रह्मा जी को दिया जाता है और इनसे चार वेदों का ज्ञान इन पांच ऋषियों के समकालीन मनुष्यों एवं भावी सभी सन्ततियों को यथा पिता से पुत्र को व आचार्य से शिष्य को प्राप्त होता हुआ सृष्टि के उत्तर काल में विद्यमान रहता है। यदि हम वेदों की सावधानी पूर्वक रक्षा नहीं करेंगे तो यह विकृतियों को भी प्राप्त होकर समाज में अन्धविश्वास, पाखण्ड व कुरीतियों आदि को जन्म देता है। महाभारत काल के बाद हमने इसका अनुभव भी किया है। आज भी हम वेदों को प्राप्त होकर भी वेद-प्रचार में कठिनाईयां अनुभव कर रहे हैं। संसार में ऐसे मनुष्य व संगठन हैं जो ईश्वर प्रदत्त ज्ञान की उपेक्षा करते हैं और अपने मतों की अल्पज्ञता पर आधारित असत्य मान्यताओं व विचारों का ही प्रचार करते हैं। वह वेदों की परीक्षा नहीं करते और अपने मत पन्थ के ग्रन्थों की सत्यता की भी समीक्षा कर उसमें निहित सत्यासत्य की पहचान करने का प्रयत्न नहीं करते। ऐसे ही कारणों से वेदों का समुचित आदर नहीं हो पा रहा है। इससे मनुष्य जाति का जो कल्याण हो सकता है, उसमें बाधा उत्पन्न हो रही है।

ऋषि दयानन्द ने जीवन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों यथा ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा मृत्यु पर विजय आदि की खोज करते हुए वेदों के सत्यस्वरूप को प्राप्त किया था। वह वेदों के यथार्थ महत्व से परिचित हुए थे और ईश्वर की प्रेरणा से ही उन्होंने वेदों के सत्य अर्थों का प्रचार किया। इस कार्य को करने के लिये उन्होंने अपने जीवन का एक-एक क्षण व्यतीत किया। उन्होंने अपने अपूर्व वेदज्ञान के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, संस्कारविधि सहित ऋग्वेद एवं यजुर्वेद पर भाष्य भी लिखे। असामयिक मृत्यु के कारण वह अथर्ववेद एवं सामवेद का भाष्य पूर्ण नहीं कर सके थे। उनका ऋग्वेद का भाष्य भी पूर्ण नहीं हो सका। वेदभाष्य के इस शेष कार्य को उनके अनेक अनुयायियों व शिष्यों ने वेदार्थ की उनकी ही पद्धति के आधार पर पूरा किया जिससे आज चारों वेदेां के सभी मन्त्रों का विस्तृत भाष्य हमें प्राप्त होता है। वेदों से ही ईश्वर सहित जीव तथा प्रकृति का सत्यस्वरूप जाना जाता है। ईश्वर की उपासना की विधि का ज्ञान भी वेदों से होता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की उपासना की विधि भी वेदमन्त्रों के आधार पर बनाई है जिससे सभी मनुष्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर सहित इस समस्त सृष्टि को यथार्थरूप में जाना जा सकता है और ईश्वर को योग साधना द्वारा प्राप्त होकर उसका साक्षात्कार करने सहित मोक्ष, जो जन्म व मरण से अवकाश प्राप्त होना तथा ईश्वर के आनन्दस्वरूप में विचरण करना होता है, प्राप्त किया जा सकता है। यह लाभ वेद व ऋषि दयानन्द के वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन व उसमें बताये गये साधनों का अभ्यास करने से ही प्राप्त किये जा सकते हैं।

वेद ईश्वर में अनादि काल से निहित सत्यज्ञान है। वह अपने अनादि, नित्य व अनन्त ज्ञान, सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमानस्वरूप से सृष्टि की रचना व पालन करते हैं तथा सदैव आनन्द में रहते हैं। उनमें कोई अप्राप्त व अपूर्ण इच्छा नहीं है। सभी जीवात्मायें उनकी सन्तान व शिष्यों के समान हैं। वह सबके माता, पिता व आचार्य हैं। अतः सबको ज्ञानयुक्त करना उन्हीं का कर्तव्य व कार्य है। उन्होंने अपने इस कर्तव्य को सृष्टि के आरम्भ में ही पूरा किया था। आज भी वह हमें बुरा काम करने पर अन्तरात्मा में प्रेरणा कर उस बुरे काम को रोकने के लिये भय, शंका व लज्जा को उत्पन्न करते हैं। हम जब ज्ञान प्राप्ति, परोपकार, दान तथा निर्बलों की सेवा व सहायता आदि का काम करते हैं तो वह हमें उत्साह व आनन्द तथा निःशंकता की प्रेरणा करते हैं। वह हमारे सच्चे मित्र हैं। हमें अपने हृदय को विशाल बनाकर ईश्वर से प्राप्त वेदज्ञान की ऋषि दयानन्द की मान्यताओं के आलोक में परीक्षा कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये। इसी में हमारा हित व कल्याण है। यदि हम वेदज्ञान का आचरण व रक्षा नहीं करेंगे तो इससे हमारी भावी पीढ़ियां वंचित हो जायेंगी जिसका अपकृत्य हम पर होगा। हम वेदज्ञान को प्राप्त होकर व उसका पालन एवं प्रचार कर अपने इस जीवन सहित भविष्य में भी सुरक्षित व कल्याण को प्राप्त रहेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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