सरदार भगत सिंह और स्वामी दयानंद – 1

भारत के स्वाधीनता आंदोलन को गांधीजी के नाम करने वाले कांग्रेसियों ने तो देश के इतिहास का विकृतिकरण किया ही है साथ ही उन वामपंथी इतिहासकारों ने भी देश के इतिहास के तथ्यों के साथ गंभीर छेड़छाड़ की है, जिन्होंने आर्य समाज जैसे क्रांतिकारी संगठन को पीछे धकेलने के उद्देश्य से प्रेरित होकर अपनी – अपनी धारणाओं को इतिहास में स्थान देने का काम किया है। इन लोगों को आर्य समाज का राष्ट्रवादी चिंतन और दृष्टिकोण पहले दिन से ही रास नहीं आया। यही कारण है कि इन वामपंथी इतिहासकारों ने पहले दिन से ही यह प्रयास किया कि भारत के ‘स्व’ को जगाने का काम करने वाले आर्य समाज और हिंदू महासभा जैसी राष्ट्रवादी संस्थाओं या संगठनों को पूर्णतया उपेक्षित किया जाए और इतिहास को साम्यवादी दृष्टिकोण से लिखा जाए।

करते रहे अवहेलना, मेरे देव के पुरुषार्थ की,
कहानियां लिख डालीं अपने निजी स्वार्थ की।
छल किया राष्ट्र से, ना आई तनिक लज्जा उन्हें,
कहानी सारी दी मिटा, मेरे देव के परमार्थ की।।

 इस दृष्टिकोण और उद्देश्य से प्रेरित होकर वामपंथी इतिहासकारों ने स्वामी दयानंद जी के भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में योगदान को पूर्णतया उपेक्षित किया है। यही कारण है कि किसी भी वामपंथी इतिहासकार के इतिहास लेखन में स्वामी दयानंद जी महाराज को वह सम्मान नहीं दिया गया जिसके वह पात्र थे।
 इन वामपंथी इतिहासकारों ने स्वामी दयानंद जी की विचारधारा से अत्यधिक प्रेरित होने वाले सरदार भगत सिंह को भी वेद विरोधी नास्तिक बनाकर साम्यवादी या वामपंथी बनाने तक का पाप किया है। यद्यपि  प्रसिद्ध वामपन्थी क्रान्तिकारी यशपाल ने अपने द्वारा लिखित पुस्तक 'सिंहावलोकन' में हमारे इस मत की पुष्टि की है। भगत सिंह के आर्य समाजी होने के पुख्ता और सटीक प्रमाण देते हुए उन्होंने लिखा है कि 'भगतसिंह के दादा सरदार अर्जुनसिंह क्रान्तिकारियों के कार्यालय में उससे मिलने आए। प्रात: यज्ञ किया और यज्ञकुण्ड मेज के नीचे रख दिया। यशपाल आए और मेज पर बैठकर कुछ लिखने लग गए। उन्हें पता नहीं था कि आज मेज के नीचे यज्ञकुण्ड रखा है। लिखते-लिखते जूता यज्ञकुण्ड पर रखा गया। वे लिखते रहे और अनजाने में जूते से यज्ञकुण्ड को रगड़ते रहे। दादा जी ने यह देखा तो आग-बगूला हो गए। यशपाल को पूछने पर अपना अपराध पता चला। माफी मांगी और कहा कि यह सब कुछ अनजाने में हुआ है। बहुत मुश्किल से दादा जी शान्त हुए। मिलने पर यशपाल ने सारी बात भगतसिंह को बताई। भगतसिंह ने कहा  कि "यशपाल ! तुम्हें नहीं पता कि दादा जी पक्के आर्यसमाजी हैं। प्रतिदिन यज्ञ करते हैं। सफर में भी यज्ञकुण्ड और हव्य-सामग्री साथ लेकर चलते हैं।'

वेद भक्त और यज्ञ प्रेमी मेरे अपने दादा हैं,
दुनिया में कहीं और कहां उनके जैसा दादा है ?
ईश कृपा हुई है मुझ पर मैं उनके कुल में जन्मा,
पोते रूप में आया हूं मैं , और वह मेरे दादा।।

भगत सिंह के आर्य समाजी होने के इतने पुख्ता प्रमाण होने के उपरांत भी कांग्रेसियों और वामपंथियों ने उनके साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया ? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि इन दोनों संगठनों का सामूहिक उद्देश्य भारत की आत्मा के साथ खिलवाड़ करने का रहा है । वेद और वैदिक संस्कृति से इनका कोई संबंध नहीं रहा । वैदिक संस्कृति को यह प्रारंभ से ही पाखंड और जड़ता का प्रतीक बताते रहे हैं। उनके दृष्टिकोण में सनातन भी जड़ता और यथास्थितिवाद का परिचायक है। यही कारण है कि वेद और वैदिक संस्कृति के साथ-साथ ये लोग सनातन को भी कोसते रहते हैं।
स्वाधीनता प्राप्ति के उपरांत जब इतिहास लेखन की जिम्मेदारी इनके हाथ में आई तो ये दोनों ही नहीं चाहते थे कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में स्वामी दयानंद जी महाराज और आर्य समाज के क्रांतिकारियों को उचित स्थान दिया जाए। वास्तव में कांग्रेसियों और वामपंथियों की विचारधारा भारत में तभी पनप सकती थी जब आर्य समाज या सत्य सनातन वैदिक धर्म को या तो खोखला किया जाए या उसे पूर्णतया उपेक्षित कर हाशिये पर धकेल दिया जाए। स्वामी दयानंद जी महाराज का आर्यराष्ट्र इन लोगों को क्यों पसंद आएगा इन्हें तो सावरकर जी का हिंदू राष्ट्र भी पसंद नहीं है। इन्हें तो खिचडी राष्ट्र अर्थात धर्मनिरपेक्ष हिन्दू विरोधी राज्य प्रिय है, जिसका सीधा सा अर्थ है कि भारत को वैचारिक धरातल पर कमजोर करके रखा जाए। जब संपूर्ण भूमंडल पर ईसाइयत और इस्लाम छा गए हों , तब उनकी चाटुकारिता कई लोगों को अच्छी लगती है । भारत विश्व में वैदिक सत्य सनातन धर्म को अर्थात सनातन को मानने वाला एकमात्र देश है। पिछली कई शताब्दियों की भांति यह धर्म आज भी विधर्मियों के निशाने पर है।

वैदिक सत्य सनातन का हम कभी नहीं अपमान करें।
जितना संभव हो सकता है, उतना हम यशोगान करें।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

लेखक की पुस्तक : आर्य समाज एक क्रांतिकारी संगठन से

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