महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय – १५ ख इंद्रदेव और ऋषि कुमार का संवाद

  यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हें ईश्वर ने गीदड़ ,चूहा ,सांप, मेंढक जैसी योनियों में पैदा नहीं किया। आप जानते ही हैं कि इन सब योनियों में किसी भी प्राणी को हाथ नहीं होते। मुझे कीड़े मकोड़े खाते रहते हैं जिन्हें निकाल फेकने की शक्ति मेरे में नहीं है। हाथ न होने के कारण मैं जिस दुर्दशा को प्राप्त हो गया हूं उसे आप प्रत्यक्ष देख सकते हैं ।
 मेरी दीन- हीन दशा का अनुमान लगाकर "हे ब्राह्मण! तुम्हें आत्महत्या जैसे पाप से अपने आप को बचाना चाहिए। क्योंकि आत्महत्या करने से बढ़कर संसार में कोई पाप नहीं है। आत्महत्या करने से बेहतर है कि आप पुरुषार्थी बन उद्यम करने का संकल्प लें। पुरुषार्थी मनुष्य ही संसार में चमत्कार कर सकता है। पुरुषार्थ से पीठ फेरना अपने सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल देने के समान होता है। मुझे देखिए, मैं आत्महत्या करने को पाप मानकर शरीर का दुरूपयोग करने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकता। मुझे डर है कि आत्महत्या करके मैं इससे भी बढ़कर अन्य किसी पाप योनि में जा सकता हूं। तब क्या होगा ?"

“तुमको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा अजर और अमर है। तुम इस शरीर का नाश कर सकते हो परंतु आत्मा का नाश नहीं कर सकते। जिसका नाश नहीं हो सकता उसे तुम मिटा हुआ जान रहे हो या ऐसा मान कर आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हो कि तुम्हारे ऐसा करने से अमर आत्मा का नाश हो जाएगा, तो यह तुम्हारी अज्ञानता है।”
हे ब्राह्मण! इस संसार में कुछ प्राणी जन्म से ही सुखी होते हैं , जबकि संसार में कुछ प्राणी ऐसे भी होते हैं जो जन्म लेते ही अपने आपको दु:खी अनुभव करने लगते हैं। मैंने आज तक कहीं कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जिसको केवल सुख ही सुख प्राप्त हों। संसार में सभी प्रकार के लोग हैं। जो सुख आज है वह कल नहीं रहेगा । तुम्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो दु:ख आज आपको दिखाई दे रहा है उसका भी कल नाश होना निश्चित है । इस चलायमान संसार में सब कुछ अस्थिर है।”
जब मनुष्य धनी हो जाता है तो वह राज्य प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित हो जाता है। जब राज्य प्राप्त कर लेता है तो फिर देवत्व की इच्छा करने लगता है और जब देवत्व को भी प्राप्त कर लेता है तो उसके पश्चात उसके भीतर इंद्र का पद प्राप्त करने की इच्छा पैदा हो जाती है। यह कुछ वैसा ही है जैसे जब हम पहाड़ पर चढ़ते हैं तो एक चोटी को विजय करने के बाद दूसरी चोटी दिखाई देने लगती है। इसी को तृष्णा कहते हैं। कामनाओं का अनंत स्वरूप भी इसी उदाहरण से समझा जा सकता है।
विवेकशील मनुष्य को इस प्रकार की वृत्तियों से अपने आपको बचाना चाहिए।
सियार ने ब्राह्मण से कहा कि यदि आप धनी हो जाएं तो भी ब्राह्मण होने के कारण कभी राजा नहीं हो सकते और यदि कभी राजा हो भी गए तो देवता नहीं हो सकते । देवता और इंद्र का पद भी पा जाएं तो आप उससे संतुष्ट नहीं हो सकेंगे। इस प्रकार कामनाओं का यह अंतहीन सिलसिला है। जिसने आपको जकड़ लिया है। इसका कभी अंत नहीं होता। जब व्यक्ति को मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाती है तो भी उसकी तृप्ति नहीं होती। इसके बाद भी उसके भीतर और पाने की अभिलाषा बनी रहती है। इस तृष्णा को कभी जल से बुझाया नहीं जा सकता। यह और अधिक पाने की इच्छा रखकर उसी से इंधन लेकर जलने वाली अग्नि के समान और भी अधिक भड़क उठती है।
हे ब्राह्मण! संसार में कितने ही मनुष्य बारंबार जन्म – मरण के क्लेश को भोगते रहते हैं। परंतु वे भी कभी आत्महत्या करने के विचार से प्रेरित नहीं होते । इसके स्थान पर वह आपस में मनोरंजन करते रहते हैं और उसी में आनंदित होते हैं, हंसते हैं और मस्त रहते हैं। तुम्हें भी ऐसे ही लोगों का अनुकरण करना चाहिए। देखो ! चांडाल भी अपने शरीर को त्यागना नहीं चाहता, वह अपनी इस योनि से संतुष्ट रहता है।”
” काश्यप ! कुछ मनुष्य लूले और लंगड़े होते हैं। कुछ को लकवा मार जाता है। कुछ मनुष्य रोगी ही बने रहते हैं , परंतु इसके उपरांत भी वे आत्महत्या का विचार कभी नहीं करते। तुम्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि तुम्हारा शरीर रोगरहित है। आपके सभी अंग ठीक हैं और शरीर के किसी अंग में किसी भी प्रकार का कोई विकार नहीं है। इसलिए अपने आपको संसार में धिक्कार का पात्र समझने की भूल मत करो। तुम्हें अपने धर्म पालन के लिए उठ खड़ा होना चाहिए और परमपिता परमेश्वर द्वारा दिए गए इस जीवन का अपमान करने के भाव से मुक्त होना चाहिए। समझिए कि परमपिता परमेश्वर की आप पर कृपा है , जिसने आपको यह मानव शरीर प्रदान किया है। इसे त्यागने के भाव को छोड़कर परमपिता परमेश्वर के दिए वरदान का स्वागत कीजिए और इसके लिए ईश्वर का ही धन्यवाद भी कीजिए । यदि आप मेरे वचनों को सुनेंगे और उन पर श्रद्धा करेंगे तो आपको वेदों के द्वारा बताए गए धर्म के पालन का ही प्रधान फल प्राप्त होगा।”
“मुने! संसार में रहकर मनुष्य को स्वाध्याय ,अग्निहोत्र, सत्य और दान धर्म का पालन करना चाहिए । किसी से बेकार की प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए। प्रतिस्पर्धा करने से अपनी ऊर्जा का विनाश होता है । बेकार का तनाव पैदा होता है, जिससे शरीर की सकारात्मक शक्ति का नाश होता है। हमारी सृजनशीलता तनाव ग्रस्त होकर कुंठित हो जाती है । हमारी मानसिकता पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।
पूर्व जन्म में मैं पंडित था और कुतर्क का आश्रय लेकर वेदों की निंदा किया करता था। प्रत्यक्ष के आधार पर अनुमान को प्रमुखता देने वाली थोथी तर्क विद्या पर ही उस समय मेरा अधिक भरोसा था। मैं नास्तिक था। सब पर संदेह करने वाला और मूर्ख होकर भी अपने आपको पंडित मानता था।
“हे द्विज ! सियार की यह योनि मुझे मेरे उसी कुकर्म के परिणाम स्वरुप मिली है। अब इस योनि को प्राप्त कर मैं चाहे जितने उपाय कर लूं पर शायद मनुष्य योनि पाने में फिर सफल नहीं हो पाऊंगा। जिस मनुष्य योनि में संतुष्ट और सावधान रहकर यज्ञ , दान और तप अनुष्ठान में लगा रह सकूं, जिसमें मैं जानने योग्य वस्तु को जान लूं और त्यागने योग्य वस्तु का त्याग कर दूं, वह योनि मुझे इस गीदड़ की योनि में प्राप्त होनी असंभव दिखाई देती है।
भीष्म जी ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि “राजन ! गीदड़ ने अपनी इस प्रकार की बातों से काश्यप मुनि की आंखें खोल दी। काश्यप मुनि ने अपनी ज्ञानचक्षुओं से देखा कि उन्हें उपदेश देने वाले साक्षात इंद्र ही थे। तब उन्होंने उनकी आज्ञा लेकर आत्महत्या का विचार त्याग दिया और अपने घर को लौट आए।”

कहानी की शिक्षा है कि जो लोग आत्महत्या के भाव से प्रेरित होते हैं, वह कायर होते हैं। संसार समर में रहकर समस्याओं का समाधान खोजने में ही समझदारी और बहादुरी है। आत्महत्या के पाप से भी जीवात्मा अनेक प्रकार के कष्टों को भोगता है। अतः जो कुछ भी सामने है, उसका तत्काल सामना करना ही मनुष्य के लिए उसका धर्म निश्चित किया गया है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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