महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय – १० ख भीष्म पितामह का प्रेरणास्पद जीवन
भीष्म जी के भीतर अपार धैर्य था । उन्होंने कई प्रकार की पीड़ाओं को सहन करते हुए भी कहीं पर भी असंयत भाषा का प्रयोग नहीं किया । उनकी बात को धृतराष्ट्र ने भी स्वीकार नहीं किया, परंतु इसके उपरान्त भी से उसके प्रति सद्भाव बनाए रखने में सफल रहे। एक प्रकार से उनके भीतर उन महात्माओं के लक्षण दिखाई देते हैं जो सांसारिक एषणाओं से ऊपर हो जाते हैं और जिनके भीतर जितेंद्रियता का भाव आ जाता है।
उनके विरोधियों ने भी उन पर कभी यह आरोप नहीं लगाया कि उन्होंने अपनी भीषण प्रतिज्ञा का कहीं उल्लंघन किया है या किसी नारी के प्रति आसक्ति का भाव प्रकट किया है। ब्रह्मचर्य के प्रति उनके भीतर श्रद्धा एक दीवानगी तक थी , इसके प्रति वह आजीवन निष्ठावान बने रहे। अपने ब्रह्मचर्य व्रत को उन्होंने अपने लिए कभी अभिशाप नहीं माना अपितु उसके प्रति जीवन भर श्रद्धा के पुष्प अर्पित करते रहे। इसी से उनका जीवन सब के लिए प्रेरणास्पद बना रहा और वह एक श्वेतवस्त्रधारी महात्मा के रूप में सबके लिए श्रद्धा के पात्र बने रहे।
भीष्म पितामह ने एक अच्छे संरक्षक की भूमिका निभाते हुए धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर का निर्माण करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। उनसे पहले चित्र, विचित्रवीर्य के प्रति भी उन्होंने अपने इसी दायित्व का निर्वाह किया। इसी प्रकार उन्होंने दुर्योधन आदि कौरवों और धर्मराज युधिष्ठिर आदि पांडवों के प्रति भी अपने इसी प्रकार के आत्मीय स्नेह भाव का प्रदर्शन करते हुए उनके निर्माण में भी अपने आपको सच्चे मन से समर्पित कर दिया। इसके उपरांत भी दुर्योधन यदि अनीति पर आगे बढ़ गया तो यह उसका अपना प्रारब्ध माना जाना चाहिए।
उन्होंने महाभारत के भयंकर और विनाशकारी युद्ध को टालने का हर संभव प्रयास किया। अपनी भूमिका को पूर्णतया संतुलित रखते हुए उन्होंने नीति और धर्म की स्थापना करने पर आजीवन बल दिया। पर जब युद्ध अनिवार्य हो गया तो उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह किसी भी पांडु पुत्र का वध नहीं करेंगे। ऐसा करके भी उन्होंने न्यायपूर्ण आचरण ही किया था। क्योंकि भीष्म जी के लिए पांडु और कौरव दोनों एक समान थे। वह किसी एक के प्रति समर्पित होकर अपने को पक्षपाती घोषित नहीं करना चाहते थे। युद्ध की अनिवार्यता हो जाने पर उन्होंने हस्तिनापुर के सेनापति के दायित्व का निर्वाह किया। व्यक्तिगत शत्रुता पर उतरकर उन्होंने किसी न्यायपूर्ण पात्र के साथ अन्याय करना स्वीकार नहीं किया।
तनिक कल्पना कीजिए कि यदि भीष्म पितामह कौरवों की ओर से युद्ध करते हुए पांडवों का वध कर देते तो क्या होता? कहा जा सकता है कि ऐसी परिस्थितियों में सारी घटनाओं के लिए, सारे अधर्म और सारी अनीति के लिए पूरी महाभारत में केवल भीष्म पितामह ही जिम्मेदार माने जाते। उन्होंने पांडवों का वध न करने की बात कहकर अपने आपको इतिहास के न्यायालय में संतुलित पात्र के रूप में प्रस्तुत किया । जिससे इतिहास ने भी उनके प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया और उन्हें उन सारी घटनाओं , अन्याय ,अनीति और अधर्म की सारी षड्यंत्रात्मक नीतियों से बरी कर दिया जो उस काल में रची जा रही थीं। यदि वे स्वयं एक पक्ष बनकर पांडवों का विनाश करते तो दुर्योधन की सारी अनीति उन पर भारी पड़ जाती। उन्होंने सहज रूप में अपना बलिदान दे दिया पर अनीति और अधर्म से समझौता नहीं किया।
भीष्म जी ने शकुनि के निंदित आचरण की सदा आलोचना की। उसे इस बात के लिए भरी सभाओं में धमकाया भी कि वह उनके परिवार में आग लगा रहा था। इसी प्रकार कर्ण की दूषित मानसिकता और गलत नीतियों का भी वह जमकर विरोध करते रहे। पर इसके उपरांत भी उन्हें किसी षड़यंत्र के अंतर्गत मारने या उन्हें उत्पीड़ित कर भगा देने की सोच को उन्होंने अपने निकट फटकने भी नहीं दिया। उनके इस प्रकार के आचरण से हमारे उच्च राजनीतिक मूल्यों और आदर्शों की जानकारी होती है। अपने विरोधी के प्रति भी सह्रदय बने रहना उनके आचरण से सीखा जा सकता है।
महर्षि दयानन्द जी व्यवहारभानु नाम की एक लघु पुस्तिका में है कि कैसे मनुष्य विद्या की प्राप्ति कर सकते हैं (विद्यार्थी) और करा (आचार्य व शिक्षक आदि) सकते हैं? इसका उत्तर देते हुए वह महाभारत के निम्न श्लोकों को प्रस्तुत करते हैं :-
ब्रह्मचर्य च गुणं श्रृणु त्वं वसुधाधिप। आजन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह।।1।।
न तस्य कित्र्चिदप्राप्यमिति विद्धि नरारधिप। वहव्यः कोट्यस्त्वृधीणां च ब्रह्मलोके वसन्त्युत।।2।।
सत्ये रतानां सततं दान्तानामूध्र्वरेतसाम्। ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम्।। 3।।
इन श्लोकों में बालब्रह्मचारी व लगभग 200 वर्ष से अधिक आयु के श्री भीष्म जी राजा युधिष्ठिर से कहते हैं कि –‘हे राजन्! तू ब्रह्मचर्य के गुण सुन। जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेकर मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी होता है उसको कोई शुभगुण अप्राप्य नहीं रहता। ऐसा तू जान कि जिसके प्रताप से अनेक करोड़ों ऋषि ब्रह्मलोक, अर्थात् सर्वानन्दस्वरूप परमात्मा में वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते हैं।1व2। जो निरन्तर सत्य में रमण करते (अर्थात् विचार व चिन्तन करते रहते हैं), जितेन्द्रिय, शान्त-आत्मा, उत्कृष्ट शुभ-गुण-स्वभावयुक्त और रोगरहित पराक्रमयुक्त शरीर, ब्रह्मचर्य, अर्थात् वेदादि सत्य-शास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यासादि कर्म करते हैं, वे सब बुरे काम और दुःखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और सब सुखों की प्राप्ति करानेहारे होते और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं।।3।।
इससे यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मचर्य के सेवन से सभी शुभगुणों की प्राप्ति होती है । भीष्म जी के भीतर वे सभी शुभ गुण विराजमान थे जो ब्रह्मचर्य के सेवन से स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं। उनके जीवन से आज की पीढ़ी को यही शिक्षा लेनी चाहिए कि वह जीवनी शक्ति अर्थात वीर्य का नाश नहीं करेंगे और राष्ट्र, समाज तथा मानवता के भले के कार्य करते हुए अपनी जीवनी शक्ति का उसमें सदुपयोग करेंगे।
राष्ट्र का निर्माण संस्कारों से होता है, यह बात अपने आप में पूर्णतया सत्य है, पर हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संस्कारित महामानवों के जीवन के संस्मरण, उनका आचरण, उनका व्यवहार और उनकी कार्य शैली भी नई पीढ़ी को सुसंस्कृत और सुसंस्कारित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। भीष्म पितामह का महान व्यक्तित्व इस दिशा में निश्चित रूप से हमारे लिए आज भी प्रेरणास्पद हो सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)