देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -11( क ) सावरकर की सबसे बड़ी कमजोरी

राव साहब कसबे (अनुवाद मनोहर गौर ) अपनी पुस्तक ‘हिंदू राष्ट्रवाद : सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के पृष्ठ संख्या 449 पर लिखते हैं कि जिन्नाह 1919 में जब पार्लियामेंट्री सिलेक्ट कमेटी के समक्ष गवाही दे रहे थे तो उनसे एक प्रश्न किया गया था कि क्या आपको लगता है कि हिंदू और मुसलमानों के राजनीतिक भेद पूरी तरह से नष्ट होने चाहिए ? तब तक मोहम्मद अली जिन्नाह के विचारों में भारत के प्रति कुछ लगाव था। उनके भीतर का हिंदू उस समय तक जीवित था। यही कारण था कि उन्होंने इस प्रश्न का जवाब देते हुए स्पष्ट कहा था कि ‘ हां, उस दिन इस बात से जितना आनंद मुझे होगा, उतना अन्य किसी भी चीज से नहीं होगा।’ इस वाक्य से लगता है कि वह उस समय तक हिंदू मुस्लिम राजनीतिक मतभेदों को पाटने के समर्थक थे।
उपरोक्त पुस्तक के लेखक की यह भी मान्यता है कि 1935 तक जिन्नाह स्वयं भी यह कहने में गर्व की अनुभूति करते थे कि मैं पहले भारतीय हूं और बाद में मुसलमान। ( लिमये 44 )
जिन्नाह भारतीय होने पर गर्व करते थे , यह उनका भारत के प्रति समर्पण था, लगाव था या आत्मीय भाव था या उनके पुराने हिंदू संस्कारों के कारण वह ऐसा कह रहे थे या फिर उस समय तक वह मुसलमानों के फंडामेंटलिज्म को जाने नहीं थे ? इनमें से कौन सी बात सच थी ? – कुछ कहा नहीं जा सकता ।1909 के मिंटो मार्ले सुधारों द्वारा मुसलमानों को जिस प्रकार स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र दिए गए थे, उनका भी वह 1935 तक विरोध कर रहे थे । इस प्रकार के निर्वाचन क्षेत्रों को दोनों समुदायों के बीच दूरी बढ़ने का एक कारण मानते थे। इसके उपरांत भी उन्होंने इस प्रकार के सुधारों को इस आशा के साथ स्वीकार किया था कि एक न एक दिन मुसलमान राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ सम्मिलित हो जाएंगे। जिन लोगों ने मोहम्मद अली जिन्नाह के इस प्रकार के चिंतन को स्वीकार कर 1935 – 36 तक उन्हें राष्ट्रवादी माना है, उन्होंने अपने ऐसे कथन के साथ ही यह भी स्वीकार कर लिया है कि मोहम्मद अली जिन्नाह इतना तो मानते थे कि मुसलमान इस देश की मुख्यधारा के साथ रहना नहीं चाहता।

मुस्लिम लीडर जिन्नाह

इसके पश्चात भी यदि जिन्नाह राष्ट्रवादी से मुस्लिमपरस्त या राष्ट्रविरोधी हुआ तो इसका क्या कारण था? क्या उसने मुसलमानों की इस देश के साथ न रहने की भावना को अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए एक माध्यम बनाने का मन बना लिया था या वह स्वयं ही मुसलमानों की इस प्रकार की हठधर्मिता या मजहबपरस्ती के समक्ष टूट गया था ? यदि पहली बात सही थी तो मानना पड़ेगा कि मुसलमानों का संस्कार राष्ट्रवाद के साथ जुड़कर रहना नहीं है। उन्हें संप्रदायवाद में विश्वास है। इसके अतिरिक्त यदि दूसरी बात सही थी तो माना जाना चाहिए कि जिन्नाह एक कमजोर व्यक्तित्व का स्वामी था जो मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ जोड़ नहीं सका।
ऐसे में अवसरवादी जिन्नाह ने मुस्लिम लीडर बनने में रुचि दिखाई और उसके भीतर का राजनीतिज्ञ उसे नए देश का शासनाध्यक्ष बनाने के सपने दिखाने लगा।
मोहम्मद अली जिन्नाह की आंखों में जो सपना तैर रहा था वह कोई नया सपना नहीं था, उससे पहले के कितने ही मुस्लिम नेताओं, नवाबों ,बादशाहों की आंखों में भी इस प्रकार के सपने तैरते रहे थे। इतिहास की गंभीर जानकारी रखने वाले सावरकर जी न केवल मोहम्मद अली जिन्नाह की आंखों में तैर रहे सपने को पढ़ रहे थे अपितु उससे पूर्व के मुस्लिम नेताओं, नवाबों और बादशाहों की आंखों को भी इतिहास के माध्यम से पढ़ चुके थे। वह जानते थे कि यदि थोड़ा सा भी प्रमाद किया गया तो स्थितियां बिगड़ सकती हैं और संभाले नहीं संभलेंगी ? यह तब और भी अधिक कष्टकर हो सकता था, जब कांग्रेस भी मुस्लिमपरस्त हो चुकी थी। ऐसी परिस्थितियों में सावरकर जी ने हिंदुओं के सैनिकीकरण पर बल दिया था। 1942 में जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ चलाया जा रहा था, तब सावरकर जी हिंदुओं के सैनिकीकरण की प्रक्रिया पर बल दे रहे थे । उन्हें देश का बंटवारा होता दिखाई दे रहा था और जो लोग इसके लिए जिम्मेदार थे, उनकी षड्यंत्रपूर्ण चालें देश को बर्बादी की ओर जा रही थीं।

सावरकर जी की महत्वपूर्ण घोषणा

सावरकर ने 1941 में हिन्दू महासभा के भागलपुर अधिवेशन को संबोधित करते हुए ही यह स्पष्ट कर दिया था, ”हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जापान के युद्ध में प्रवेश से हम पर ब्रिटेन के शत्रुओं द्वारा हमले का सीधा और तत्काल खतरा आ गया है। इसलिए हिन्दू महासभा के सभी सदस्य सभी हिंदुओं को और विशेषकर बंगाल और असम के हिंदुओं को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे सभी प्रकार की ब्रिटिश सेनाओं में बिना एक मिनट भी गंवाए प्रवेश कर जाएं।”
कई मूर्खों ने सावरकर जी की इस प्रकार की परिस्थितिजन्य नीति को असंगत कहकर उसकी आलोचना की है। उनका कहना होता है कि जिस समय ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ चलाया जा रहा था उस समय सावरकर कांग्रेस का साथ न देकर ब्रिटिश सरकार का साथ दे रहे थे और लोगों को ब्रिटिश सेना में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित कर रहे थे। सावरकर जी भली प्रकार जानते थे कि यदि उस समय कोई नई विदेशी शक्ति भारत में प्रवेश करने में सफल हो गई और ब्रिटिश सरकार उस अवैध प्रवेश को रोक नहीं पाई तो ऐसी स्थिति में भारत के लिए एक और बड़ा संकट एक नए शत्रु के रूप में आ उपस्थित होगा। ऐसी परिस्थिति में ब्रिटिश सरकार की सेना में सम्मिलित होने का अभिप्राय था – देश की रक्षा के लिए अपने आपको समर्पित किया जाए और उसके लिए आवश्यक प्रशिक्षण भी प्राप्त कर लिया जाए। यदि सावरकर जी का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को सहायता देना होता और उसी उद्देश्य से प्रेरित होकर वे देश के युवाओं को ब्रिटिश सेना में सम्मिलित होने का परामर्श या प्रोत्साहन दे रहे होते तो वह 22 जून 1940 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ हुई अपनी बैठक में उन्हें भारत छोड़कर विदेश जाकर रासबिहारी बोस जी की सेना इंडियन नेशनल आर्मी की कमान संभालने का परामर्श नहीं देते और उनसे यह भी नहीं कहते कि आपको क्रांतिकारी आंदोलन के माध्यम से ब्रिटिश भारत पर बाहर से हमला करना चाहिए और हम भीतर से ब्रिटिश सरकार को झुकाने का काम करेंगे। इस प्रकार अंतिम विजय हमारी होगी।

भारत छोड़ो आंदोलन से दूर क्यों रहे सावरकर

सावरकर जी उस समय ब्रिटिश सरकार का साथ क्यों दे रहे थे? इस संबंध में हमको यह ध्यान रखना चाहिए कि सुभाष बाबू से बातचीत करते हुए 22 जून 1940 की बातचीत में सावरकर जी ने उनसे कहा था कि ‘वास्तविक राजनीति वह है जो शत्रु को बंदीगृह में कैद करवाती है, न कि स्वयं बंद हो जाना। देखिए , सुभाष बाबू मैं आपसे स्पष्ट पूछता हूं आप सशस्त्र क्रांतिकारियों में सक्रिय न सही तो भी उनसे संबंध रखते हैं। आप गोपनीयता रख सकते हैं। इससे पूर्व भी जब आप कांग्रेस के अध्यक्ष थे, आपकी और मेरी एक बार अंत:स्थ ( confidential) भेंट हुई थी। उतने ही विश्वास से तथा उसी सूत्र को पकड़कर मैं आपसे अनुरोध करना चाहता हूं कि आजकल ब्रिटिश हिंदी सेना में अधिक से अधिक हिंदुओं की भर्ती करने के लिए हिंदू महासभा की ढाल के नीचे मैंने जो सैनिकीकरण का भारत व्यापी तथा अब सफलता के पद चूमता हुआ आंदोलन छेड़ा है, वह मूलतः क्रांतिकारी आंदोलन है। मैं जानता हूं कि आप उसके विरोध में प्रचार कर रहे हैं। आपने सोचा कि इस आंदोलन द्वारा मैं भी कांग्रेस के नरम पक्ष के अन्य नेताओं की तरह ब्रिटिशों की मनुष्य बल की सहायता कर रहा हूं। परंतु वास्तविकता यह है, सुनिए ! ,यहां पर मैंने प्रथम महायुद्ध में सशस्त्र क्रांतिकारियों द्वारा जर्मनी से की गई ‘तुल्यारी मित्र संधि’ तथा ब्रिटिश हिंदी सेना के उन हिंदी सैनिकों में से जो जर्मनी के हाथ लग गए थे, किस तरह क्रांति सेना खड़ी की गई आदि प्रकरण की जानकारी दी। यह मैंने आज के और कल के व्याख्यान में पहले ही संक्षेप में बताई है।’
अपने इस स्पष्टीकरण से सावरकर जी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को स्पष्ट बताया कि वह ब्रिटिश सरकार का साथ नहीं दे रहे हैं बल्कि अपने लोगों को ब्रिटिश हिंदी सेना में भर्ती कर किसी भी आपत्ति काल के लिए उन्हें सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार कर रहे हैं।

दूरगामी अभिनंदनीय सोच

      सावरकर जी आगे कहते हैं कि - 'मैंने आगे कहा - 'रासबिहारी बोस का ताजा पत्र देखें। इसमें दिखाई दे रहा है कि इस वर्ष के भीतर जापान युद्ध की घोषणा करेगा। यदि ऐसा हुआ तो अपने देश की स्वाधीनता के लिए जर्मनी जापान के अत्याधुनिक शस्त्रों के साथ तथा लड़ाई में मुरब्बी बने हजारों हिंदी सैनिकों के साथ यह आक्रमण करने का स्वर्ण अवसर जो अब तक कभी नहीं मिला था ,अब साध्य होगा। ऐसे समय स्वदेश में अत्यंत क्षुद्र और झगड़ालू आंदोलन के कारण आप जैसे अपने नेता को अपने आपको बलपूर्वक कैद करवाकर बलपूर्वक बंदीगृह में बंद होकर सड़ते रहना बड़ा ही हानिकारक है। कांग्रेस अथवा तत्सम नि:शस्त्र प्रतिकारवादी संस्था के किसी भी नेता को ब्रिटिश प्रशासन हमें ही प्रथमत: बंदी बनाने की ताक में है। ( इससे स्पष्ट है कि चाहे सावरकर जी उस समय ब्रिटिश हिंदी सेना का सहयोग कर रहे थे पर सच यह था कि उस समय भी वह ब्रिटिश सरकार की नजरों में किरकिरी की तरह चुभ रहे थे। उन्हें भी उस समय गिरफ्तारी का खतरा स्पष्ट दिखाई दे रहा था। यदि वह ब्रिटिश हुकूमत के सहयोगी होते तो इस प्रकार का कथन नहीं करते। ) इस समय रासबिहारी जैसे अनेक सशस्त्र क्रांतिकारी नेता जिस प्रकार हिंदुस्तान से झांसा देकर जापान ,जर्मनी खिसक गए हैं ,वैसे हम आप भी तुरंत उन्हें चकमा देकर खिसक जाएं। ( स्पष्ट है कि सावरकर जी उस समय रासबिहारी बोस जी की भांति स्वयं भी ब्रिटिश हुकूमत को चकमा देकर विदेश खिसक जाने की तैयारी में थे। इसके पीछे उनका केवल एक ही उद्देश्य था कि ब्रिटिश हिंदी सेना में हिंदी सैनिकों की भरमार हो जाने पर वह समय आने पर देश के लिए लड़ाकू बन जाएंगे और जब हम बाहर से एक हमलावर के रूप में आएंगे तो उस समय वह हमारा सहयोग करेंगे। )  उधर इटली, जर्मनी के हाथों में पड़े हजारों हिंदी सैनिकों के नेता बने। हिंदुस्तान की संपूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करें और जापान के युद्ध में कूदते ही जिस मार्ग से संभव हो, उस मार्ग से बंगाल के उपसागर में या ब्रह्मदेश से हिंदुस्तान की ब्रिटिश सत्ता पर बाहर से धावा बोल दें। इस तरह के कुछ सशस्त्र तथा साहसी पराक्रम के बिना हम हिंदुस्तान को स्वतंत्र नहीं कर सकते। इस तरह का पराक्रम तथा साहस करने के लिए जो दो-तीन लोग आज मुझे समर्थ दिखाई दे रहे हैं ,उनमें एक आप हैं। तिस पर मेरी दृष्टि आप पर ही है।'

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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