देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय 10 ( ख) देश की आजादी के लिए अपनों को खोने वाले

अफगानिस्तान के अलग होने की घटना को इतिहास में इतना हल्का करके लिया जाता है कि लगभग उसे मिटा ही दिया गया है। देश के भीतर ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो अब अफगानिस्तान के हिंदू वैदिक अतीत की कोई विशेष चर्चा तक करना उचित नहीं मानते। यदि हमारे देश के लोगों की प्रवृत्ति ऐसी ही बनी रही तो एक समय ऐसा भी आएगा जब पाकिस्तान और बांग्लादेश के अलग होने की घटनाओं पर भी कोई विशेष चर्चा नहीं होगी, इन दोनों देशों की चर्चा भी केवल इसलिए होती है कि अभी कुछ लोग 1947 में हुए देश के बंटवारे के समय की पीड़ादायक घटनाओं को बताने के लिए हमारे बीच में उपस्थित हैं।
उन लोगों के दिल पर क्या बीतती होगी जिन्होंने अपने पूर्वजों को देश की आजादी के लिए खोया, पर उनके इस प्रकार खो जाने को कांग्रेस के नेता हमेशा हल्के से लेते रहे। शहीदे आजम भगत सिंह की वीरता को कांग्रेस के नेताओं ने ‘हमारा रास्ता अलग है’ कहकर तिरस्कृत कर दिया था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 29 मार्च 1931 को भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी पर लटकाए जाने के मात्र 8 दिन बाद ही कांग्रेस के कराची अधिवेशन में यह स्पष्ट कर दिया था कि ‘जहां तक यह सवाल है कि भगत सिंह के लिए कांग्रेस ने क्या किया और हम भगत सिंह की कितनी इज्जत करते हैं तो आपको मालूम ही होगा कि इसकी अजहद कोशिश की गई कि यह लोग सजा से माफ कर दिए जाएं,चाहे जन्म कैद रखी जाए, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। मेरे दिल में भगत सिंह के लिए जो इज्जत है वह आपसे किसी से कम नहीं है। भगत सिंह का रास्ता दूसरा ही था। हमें गांधीजी ने एक नई राह दिखाई ,उससे हमें फायदा हुआ या नहीं, यह आप खुद समझ सकते हैं।’

सोच दोगली देखकर, होता हूं हैरान।
धोखा देते देश को, बेच दिया ईमान।।

कांग्रेस की दोहरी मानसिकता देखिए कि 1931 से लगभग 10 वर्ष पहले जो कांग्रेस मुसलमानों के धर्मगुरु खलीफा के पद अर्थात खिलाफत की बहाली के लिए संघर्ष कर रही थी, वह हमारे वीर बलिदानियों के बलिदान पर एक आंसू बहाने को भी तैयार नहीं हुई । उसने भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी पर कह दिया कि हमारा रास्ता अलग है और इन क्रांतिकारियों का रास्ता अलग है। उनके रास्ते में देश के लिए मर मिटने वाले क्रांतिकारी कहीं नहीं आते थे। यद्यपि वह खलीफा अवश्य उनके रास्ते में आता था जिसका भारत और भारतीयता से दूर-दूर का भी कोई संबंध नहीं था। यह वही खलीफा था जिसके मजहबी भाइयों ने भारत पर अनेक प्रकार के अत्याचार किए थे। इसी खलीफा के अनेक पूर्वज खलीफा ऐसे थे, जिन्होंने भारत को मिटाने के लिए कितनी ही बार राक्षसों की बड़ी-बड़ी सेनाएं भेजी थीं और हमारे ललनाओं का शीलभंग करके जिन्होंने गर्व की अनुभूति की थी। जब वह मर रहा था तो निश्चित रूप से भारत की आत्मा को उसके मरने से अर्थात उसे खलीफा पद से हटाये जाने पर आत्मिक प्रसन्नता की अनुभूति हो रही होगी, पर गांधीजी इस पर दु:खी थे। जब नियति के विधान के अनुसार शत्रु अपने पापों के बोझ तले दबकर मर रहा हो तो उस समय मौन रहना उचित होता है।

इतिहास की भ्रामक व्याख्या

गांधी और नेहरू दोनों ही इतिहास की उस व्याख्या से या तो अपरिचित थे या जानबूझकर अपरिचित रहने का प्रयास कर रहे थे जो भारत को वैदिक धर्मियों का देश बनाती थी और भारत को सिमटते हुए नहीं अपितु वृहत्तर भारत के रूप में देखने की आदी थी। वास्तव में जब देश को तोड़ने और बांटने की बातें की जा रही थीं तो उस समय जहां मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्नाह जैसे लोग खुल्लम खुल्ला देश को तोड़ने की बात कर रहे थे, वहां कुछ ऐसे ‘अर्द्ध-मुस्लिम’ हिंदू भी थे जो उनकी इस आवाज का अपने आचरण, व्यवहार और कार्य से समर्थन कर रहे थे या धीरे-धीरे देश को तोड़ने और बांटने के परिवेश और परिस्थितियों में वृद्धि करते जा रहे थे। यह वही लोग थे जो भारत की वास्तविकता से परिचित नहीं थे। उनका भारत के वेद, वैदिक संस्कृति और वैदिक मान्यताओं में कोई विश्वास नहीं था। ये नास्तिक लोग थे और वेदों की निंदा करते थे। उनकी इस मानसिकता और सोच को भी देश के बंटवारे का एक आधार माना जाना चाहिए।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 19 मई 1958 को कहा था ‘मैं लंबे समय से योग पद्धति के फिजिकल कल्चर में रुचि रखता रहा हूं। कुछ हद तक मैं योगाभ्यास भी करता रहा हूं। मुझे इससे बहुत फायदा हुआ है। मैं इस बात से सहमत हूं कि यह एक मूल्यवान पद्धति है। शुरुआती तौर पर यह शरीर के लिए है, लेकिन यह सिर्फ पहला चरण है। इसका दूसरा चरण मस्तिष्क की ट्रेनिंग का है और मैं समझता हूं कि तीसरा चरण चेतना या उसे आप जो भी कहें, वहां तक जाता है।’
इस वक्तव्य में नेहरू जी ‘चेतना या उसे आप जो भी कहें’ कहकर आगे बढ़ गए। वे नास्तिक लोगों द्वारा रचित चेतना में विश्वास रखते थे, आत्मा में उनका विश्वास नहीं था। इस वक्तव्य में आप देखें कि उर्दू व इंग्लिश शब्दों की भरमार है। वास्तव में गांधीजी और नेहरू जी दोनों की ही अपनी भाषा के प्रति ऐसी ही उपेक्षा पूर्ण प्रवृत्ति थी। उसी के चलते देश में स्वतंत्रता के पश्चात भी उर्दू का प्रचलन यथावत बना रहा और अंग्रेजी को पटरानी बनाकर हमने स्वाधीन भारत को आगे बढ़ाने का लंगड़ा लूला संकल्प लिया। अपनी भाषा और अपने आध्यात्मिक चिंतन के प्रति उपेक्षा-वृत्ति की यह भावना भारत को तोड़ने में सहायक हुई। जब किसी देश का नेतृत्व अपने देश के मूल्यों और राष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना के साथ सहकार करने से इंकार कर देता है और नए मूल्यों को देश के लोगों पर थोपने का अतार्किक और अनुचित प्रयास करता है तो उसका ऐसा आचरण देश की एकता और अखंडता के लिए भी खतरे उत्पन्न करता है।
दूसरों का गुणगान करना कोई बुरी बात नहीं है। सांसारिक और सामाजिक शिष्टाचार के चलते कई बार यह अनिवार्य भी हो जाता है कि हम दूसरों की किन्हीं बातों को स्वीकार कर लें, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि ऐसा करते करते आप अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा दें और उसे मानने से भी इनकार करने लगें। अपने स्वयं के अस्तित्व को नकारना अपनी ही मृत्यु को आमंत्रित करने के समान होता है। जो राष्ट्र अपने अस्तित्व को नकार देता है वह कलम चढ़ी संतानों की गिरफ्त में आ जाता है और तब देश का टूटना निश्चित हो जाता है।

पटेल के प्रति नेहरू का दृष्टिकोण

कांग्रेस मुस्लिम लीग का तुष्टिकरण करते-करते अपने राष्ट्रीय मूल्यों को त्यागने में इतनी आतुर दिखाई दे रही थी कि वह अपना सब कुछ छोड़कर मुस्लिम लीग के अपने मजहब को सर्वोपरि रखने के लिए भी तैयार हो गई थी।
आजादी के पश्चात ले देकर एक सरदार पटेल कांग्रेस में ऐसे बचे थे जो देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए सब कुछ करने को तैयार थे। सरदार वल्लभभाई पटेल की यह दृढ़ता भी नेहरू को चुभती थी। वे नहीं चाहते थे कि सरदार पटेल उन पर हावी हों और बाहर समाचार पत्रों के माध्यम से ऐसे संकेत जाएं कि पटेल नेहरू की अपेक्षा कहीं अधिक दृढ़ इच्छाशक्ति रखते हैं। इस पर नेहरू को बहुत अधिक पीड़ा होती थी कि लोग पटेल को पसंद कर रहे थे और उन्हें पसंद नहीं कर रहे थे। नेहरू गांधी परिवार की यह विशेषता रही है कि यह अपने प्रतिद्वंद्वी को या प्रतिद्वंद्वी बनने की दौड़ में आगे बढ़ते व्यक्ति को ठिकाने लगाने में बहुत ही सिद्धहस्त है। नेहरू ने अपने जीवन काल में अपने लिए किसी को प्रतिद्वंद्वी नहीं बनने दिया था। हां ,सरदार पटेल अवश्य एक ऐसे प्रतिभा संपन्न और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे जो नेहरू की किसी भी प्रकार की घुड़की या बंदर भभकी में नहीं आते थे।

पटेल शक्तिहीन हो, ढूंढे अनेक उपाय।
नेहरू जड़ को खोदते, तनिक नहीं शर्माय।।

  पटेल की दृढ़ इच्छाशक्ति नेहरू के लिए असहनीय हो गई थी। तब उन्होंने 11 जनवरी 1948 को कहा था कि 'मुश्किलों से बचने का सबसे अच्छा रास्ता यह होगा कि मंत्रिमंडल में कोई ऐसा री-स्ट्रक्चर किया जाए जो एक मंत्री पर दूसरे मंत्रियों से ज्यादा जिम्मेदारी डाले। आज के हालात में इसका मतलब यह है की या तो मैं मंत्रिमंडल से निकल जाऊं अथवा सरदार पटेल निकल जाएं। अपनी ओर से मैं अपने निकल जाने की बात बहुत ज्यादा पसंद करूंगा। अलबत्ता हममें से किसी के अलग होने का अर्थ ऐसा नहीं होना चाहिए कि बाद में हम एक दूसरे का विरोध करें।'

नेहरू जी ने कभी ऐसी बात उस मोहम्मद अली जिन्नाह के बारे में नहीं कही जो कांग्रेस सहित देश के लिए भी सिरदर्द बन चुका था और जिसे देश के बंटवारे से नीचे कुछ भी लेना स्वीकार नहीं था। यदि गांधी जी और नेहरू जी मोहम्मद अली जिन्नाह को देश बंटवारे की मांग करने पर समुद्र में उठाकर फेंकने की बात कहने का साहस दिखाते तो देश का विभाजन रोका जा सकता था।
इसके विपरीत गांधी और नेहरू ने मोहम्मद अली जिन्नाह को मुस्लिम लीग का प्रतिनिधि मानते हुए सीधे-सीधे देश के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया। इस प्रकार उन्हें मोहम्मद अली जिन्नाह के पीछे मुस्लिम समाज की शक्ति दिखाई देती थी। इस्लामिक समाज की शक्ति के पीछे उन्हें ब्रिटिश शक्ति का भरपूर समर्थन दिखाई देता था और अंत में संसार के सभी इस्लामिक और ईसाई देशों की सामूहिक शक्ति भी दिखाई देती थी। इस प्रकार मनोवैज्ञानिक रूप से गांधी और नेहरू दोनों ही मोहम्मद अली जिन्नाह की इस हवाई शक्ति के सामने अपने आप को कमजोर समझने लगे थे। एक काल्पनिक मानस चित्र से नेहरू और गांधी भय खाने लगे थे। इसीलिए वह इस काल्पनिक मानस चित्र का गुणगान करने अथवा उसे ‘कायदे आजम’ कहकर महिमामंडित करने में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगे थे।
गांधीजी और नेहरू जी के इस प्रकार के आचरण से मोहम्मद अली जिन्नाह का राजनीतिक कद और मूल्य बढ़ता गया ….. इसी आत्महीनता की भावना के चलते देश विभाजन की ओर बढ़ता गया।
शत्रु से राजनीतिक शिष्टता दिखाते हुए उसके प्रति अच्छी शब्दावली का प्रयोग किया जाना राजनीति और विशेष रूप से लोकतंत्र में बहुत अनिवार्य होता है। परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि आप शब्दों के मकड़जाल में फंसकर अपने आपको उस मकड़ी की भांति शत्रु का शिकार होने के लिए स्वयं ही समर्पित कर दें जो अपने द्वारा बुने हुए जाल में स्वयं ही फंसकर रह जाती है। उस समय गांधीजी तो निश्चित रूप से अपने ही बुने जाल में फंस चुके थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

Comment: