नटराज मूर्ति रहस्य* *(शिव के नटराज स्वरूप का अलंकारिक वर्णन*)

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Dr D K Garg

नटराज नाम आपने सूना होगा ,इस नाम से आपको अनेकों सिनेमाघर,होटल ,कलाकृति केन्द्र भारत में अनेकों जगह मिलेंगे ,इसके अतरिक्त आपको एक विशेष मूर्ति नटराज के नाम से भी मिलेगी जिसको देखते ही आप कहेंगे की ये नटराज की मूर्ति है।
नटराज मूर्ति का स्वरूप
नटराज को शिव का दूसरा रूप माना जाता है , मूर्ति की चार भुजाएँ हैं, उनके चारों ओर अग्नि के घेरें हैं। एक पाँव से उन्होंने एक बौने(अकश्मा) को दबा रखा है, एवं दूसरा पाँव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। उन्होंने अपने पहले दाहिने हाथ में (जो कि ऊपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। ऊपर की ओर उठे हुए उनके दूसरे हाथ में अग्नि है। एक पांव उठा हुआ है। उनका दूसरा बाया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है। चारों ओर आग की लपटें उठ रही है। उनके शरीर पर लहराते सर्प है । उनकी संपूर्ण आकृति ॐ कार स्वरूप जैसी दिखती है।

पोराणिक मान्यताएं:
एक बार भगवान शिव और देवी काली ने यह देखने का फैसला किया की कौन नृत्य और अभिव्यक्ति में सर्वश्रेष्ठ है और इस प्रतियोगिता के भगवान विष्णु न्यायाधीश थे। भगवान शिव ने नटराज नृत्य किया जिसे सभी देवता और ऋषि भी देख रहे थे। देवी काली ने भी उतनी ही सुंदरता के साथ अपने हर मुद्रा और अभिव्यक्ति दिए।
इसी दौरान भगवान शिव ने अपने पाँव को कुमकुम में डूबा कर माँ काली के माथे पर लगा दिया। माँ काली ये देखकर आसश्चर्यचकित रह गई क्योकि शिव उनके पति थे वह ऐसा उनके साथ साथ नहीं कर सकती थी। माँ काली भगवान शिव की इस लीला को समझ गई और मुस्कुराकर अपना नृत्य बंद कर दिया। तब भगवान विष्णु ने शिव को “नटराज” घोषित किया।

तिरुमुराई (दक्षिणी शैव धर्म की बारह पुस्तकें) जैसे तमिल भक्ति ग्रंथों में कहा गया है कि नटराज शिव का रूप है जिसमें वह सृजन, विनाश, संरक्षण के अपने कार्य करते हैं।नटराज की मूर्तिकला या कांस्य मूर्ति की पूजा तमिलनाडु के लगभग सभी शिव मंदिरों में की जाती है।

नटराज भगवान शिव को पूर्वोत्तर चतुर्थांश में सबसे अच्छा स्थान दिया गया है, जिसे उचित रूप से “ईशान्य” कहा जाता है, जिसका संस्कृत में अर्थ भगवान शिव है।
नटराज की प्रार्थना;
सत सृष्टि तांडव रचयिता
नटराज राज नमो नमः…
हेआद्य गुरु शंकर पिता
नटराज राज नमो नमः…
गंभीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्माडना
नित होत नाद प्रचंडना
नटराज राज नमो नमः…

विश्लेषण:
इस मान्यता को समझने के लिए कई बिन्दुओ पर चर्चा करनी पड़ेगी।
पहला : हमारे धर्म प्रधान देश में ईश्वर का चित्रण करने के लिए विशेष मूर्ति जिसका नाम नटराज है ,का औचित्य क्या है ?
नटराज की मूर्ति को समझने से पहले एक कहानी सुनो :
एक राजा ने शिल्पकार को बुलाया और अपने विषय में एक मूर्ति बनाने को कहा।राजा की आज्ञा के अनुसार शिल्पी ने मूर्ति बना दी जिसे देखकर राजा के अहंकार को धक्का लगा क्योंकि मूर्ति में काम क्रोध लोभ मोह अहंकार दिखाई दे रहे थे,राजा के चेहरे पर आनंद छणिक था ,कभी खुशी तो कभी भय,अभी आशा तो कभी निराशा ।राजा के चारो ओर चाटुकार छाए थे,राजा के चेहरा समय समय पर बदल रहा था जो पहले कभी युवा तेजस का प्रतीक था वही वृद्ध अवस्था में सफेद दाढ़ी और झुर्रियों वाला चेहरा था।
राजा ने तुरंत मूर्ति हटा दी और किसी ऐसी विभूति की मूर्ति बनाने को कहा जो हमेशा आनंदमय दिखाई दे,जिसके अंदर सृष्टि रचने ,चलाने और समाप्त करने की शक्ति हो,जिसकी आज्ञा के पालन ना करने से विनाश और पालन करने से मानव नृत्य के आनंद की अनुभूति करे।जो मानव को सद्कर्म और ज्ञान का लिए संदेश देने में सक्षम हो ।जो सर्वकाल का ज्ञाता हो ,जो कभी नष्ट ना होता हो आदि।
शिल्पकार ने राजा के आदेश के अनुसार धातु की एक मूर्ति बनाकर दे दी ।
इस मूर्ति के द्वारा ईश्वर के गुणों को समझने का शिल्पकार द्वारा प्रयास किया गया।
ध्यान रहे की नटराज की यह मूर्ति चोल वंश में पहली बार बनाई गई जो कि चोल मूर्ति कला का अद्भुत उदहारण है। ऐहोल की रावनफाड़ी गुफा की मूर्ति से पता चलता है कि चालुक्य शासन के दौरान भी नटराज की मूर्ति बनायी गयी थी, परन्तु चोल शासन के दौरान ही यह अपने चरम पर पहुंची।
नटराज की मूर्ति की कुछ मुख्य विशेषताएं हैंः
•ऊपरी दाहिने हाथ में डमरू है,जिसका संदेश है की ईश्वर की सृजन शक्ति को सुनो और समझो।चारो तरफ परमात्मा की ध्वनि सुनाई देती है। परमात्मा की वाणी वेद है और वेदों को श्रुति कहा गया है।
•ऊपरी बाएँ हाथ में शाश्वत अग्नि है,ईश्वर का एक अन्य नाम आग्नेय भी है और अग्नि के विभिन्न गुणों के साथ -साथ के गुण ये भी है की सबको भस्म कर इस सामान रूप में ले आती है ।अग्नि एक तरफ जो विनाश की प्रतीक है और दूसरी तरफ सृजन का भी अपरिहार्य प्रतिरूप है।
•निचला दाहिना हाथ अभय मुद्रा में उठा हुआ है, जो संदेश देता है को हम ईश्वर के सम्मुख अभय प्राप्त करे ।एक वेद मंत्र भी आता है जो इस प्रकार है:
शं नः कुरु प्रजाभ्यो अभयं नः पशुभ्यः।। – यजुर्वेद ३६.२२। हे परमपिता अपने ओज, शौर्य,दर्शन-श्रवण-परिपालन,रिपु विनाशक तेज की कृपा मुझपर कर निर्भय कीजिये. हे परमेश्वर!
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम् मित्रं भवन्तु।। अथर्ववेद 19/15/5
•निचला बायाँ हाथ उठे हुए पैर की तरफ इशारा करता है इसका भावार्थ है की शरीर के सभी अंगो का सक्रीय रूप से सदुपयोग करना चाहिए
• शिव यह तांडव नृत्य एक छोटे बौने की आकृति के ऊपर कर रहे हैं। बौना अज्ञानता और एक अज्ञानी व्यक्ति के अहंकार का प्रतीक है।
• शिव की उलझी और हवा में बहती जटाएं प्रकृति के सूंदर संरचना को दर्शाती है और सन्देश देती है की समस्या कितनी ही उलझी हुई क्यों ना हो ,वह भी समझदारी से हवा की तरह हल हो सकती है।
• श्रृंगार में, शिव के एक कान में पुरुष की बाली है जबकि दूसरे में महिला की बाली है। यह पुरुष और महिला के विलय द्वारा सृष्टि के सृजन का प्रतीक है ।
•शिव की बांह के चारों ओर एक साँप लिपटा हुआ है। इसका भावार्थ है की मानव जीवन दिखने में कितना भी सरल लगता हो लेकिन समस्याओ के विषधर हमेशा जकड़े रहते है। और मनुष्य को इन्ही का सामना करना है।
•शिव की यह नटराज मुद्रा प्रकाश के एक प्रभामंडल से घिरी हुई है जो समय के विशाल अंतहीन चक्र का प्रतीक है।
उपरोक्त से स्पष्ट है की मानव को ईश्वर और उसके कार्यों के चित्रण करने का कार्य शिल्पकारों द्वारा किया गया जैसे कि आज भी प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की पढ़ाई के लिए शेर ,चीता,हाथी आदि की आकृति द्वारा ,नाटक द्वारा ,कथा कहानी द्वारा ज्ञान वर्धन किया जाता है इसी तरह मुर्तिया बनाकर ईश्वर के गुणों को जन जन तक पहुँचाने का कार्य किया गया।
प्राचीन काल में काव्य शैली में कथा कहानी सुनाने का कार्य भट्ट नाम से प्रसिद्ध विशेष समुदाय भी किया करता था। जिस तरह से उत्तर भारत में विभिन्न उप-शैलियों के साथ नागर शैली विकसित हुई, उसी प्रकार दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला की एक विशिष्ट शैली विकसित हुई।
इसी अलोक में नटराज नाम से बनायीं गयी कांसे की मूर्ति प्रसिद्द हुई। लेकिन धार्मिक अज्ञानता के कारण इस मूर्ति को ही शिव और ईश्वर समझकर पूजना शुरू कर दिया जिसका लाभ अज्ञान पंडितों और कथाकारों ने लेना शुरू कर दिया ताकि अज्ञानता और अंधविश्वास बना रहे और उनको दुकाने चलती रहे।

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