मस्तिष्क की,बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स, शरीर के सबसे सशक्त अंग की सबसे असहाय होने की विज्ञान कथा*।

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लेखक आर्य सागर खारी 🖋️


19वीं शताब्दी में यूरोप, अमेरिका का अधिकांश वर्ग संक्रामक यौन रोग से सिफलिस अर्थात सुजाक से ग्रस्त था… पश्चिमी समाज के स्वच्छंद यौन संबंध प्रचलन अनैतिकता का यह यह रोग नतीजा था| यह एचआईवी की तरह ही सेक्शुअली ट्रांसमिटेड डिजीज है… आज भी दुनिया भर में 1 लाख मौतें होती हैं सालाना इसके कारण…. अब इस रोग की प्रभावी चिकित्सा स्ट्रिपमायकिन पेनिसिलिन जैसी antibiotic के कारण संभव है| 18 85 में 31 साल का जर्मन फिजीशियन Paul ehrlich दिन रात अपनी प्रयोगशाला में अध्ययन कर रहा था इस संक्रामक रोग की प्रभावी दवाई ढूंढने के लिए| चूहों पर वह लगातार परीक्षण करता रहता था… एक के बाद एक परीक्षणों की नाकामी से परेशान होकर एक दिन उन्होंने अपनी प्रयोगशाला में ही मौजूद नीले रंग की डाई को सिरिंज में भरकर चूहे के शरीर में इंजेक्ट कर दिया…| पौल एहरलिच देखते हैं… चूहे के मस्तिष्क को छोड़कर चूहे का शेष शरीर ,अंदरूनी अंग नीले रंग से सारोबार हो गए| चूहे का मस्तिष्क नीले रंग से रंगने से कैसे बच गया? वह इसका कारण नहीं खोज पाए… यह उनके शोध का विषय नहीं था वह तो सिफलिस की दवाई ढूंढ रहे थे |दर्द अनाचार में डूबे यूरोप को बचाने के लिए… 1908 में वे कामयाब हुए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला|

वर्ष 1913 में पौल एहरलिच के शिष्य गोल्डमैन ने गुरु के ही प्रयोग को विपरीत तरीके से दोबारा दोहराया| इस बार उन्होंने नीले रंग को सिरिंज में भरकर चूहे के शरीर के समस्त अंगों को छोड़ते हुए सीधे मस्तिष्क में इंजेक्ट किया… वह देखते हैं चूहे का मस्तिष्क नीले रंग से रंगा लेकिन शेष शरीर रंगहीन ही रहा| उन्होंने निष्कर्ष निकाला की किसी भी जीवधारी के मस्तिष्क से उसके शेष अंगों शरीर के बीच कोई बैरियर अवरोधक जैसी सटीक जटिल व्यवस्था है जो अवांछित तत्व रसायन पदार्थों को शरीर से मस्तिष्क तथा मस्तिष्क से शरीर में नहीं जाने देता…. उस समय आज कल की तरह उच्च आवर्धन क्षमता के इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप नहीं थे| तकनीकी उपकरणों के अभाव के चलते शोध का दायरा सीमित ही रहता था सैद्धांतिक स्तर पर ही वैज्ञानिक संतुष्ट हो जाते थे| सन 1960 आते-आते जब बायोलॉजी में तकनीकी उपकरणों का तेजी से विकास हुआ तब इस व्यवस्था को इलेक्ट्रॉन microscope की सहायता से देखा गया…..|

दिमाग की अपनी सुरक्षा की इस fullproof alert सिस्टम को ब्लड ब्रेन बैरियर कहते हैं| यह blood brain barrier immune न्यूरोलॉजी का आधार है| हमारा मस्तिष्क अति संवेदनशील अति सक्रिय अति प्रभावशाली अंग है| यह शरीर का राजा है, शरीर में दौड़ने वाले 20 फ़ीसदी रक्त तथा ऑक्सीजन की यह अकेले खपत करता है… लेकिन शरीर के द्रव्यमान में केवल इसका केवल 2 फ़ीसदी हिस्सा है…60% Fat के साथ यह शरीर का सबसे Fatty अंग है| 100000 मील लंबी सूक्ष्मा रक्त वाहिकाओं के द्वारा इसमें रक्त की आपूर्ति होती है 23 वाट ऊर्जा की खपत/ उत्पादन होता है इसमें |

इतना जटिल विचित्र अंग होने के साथ ही यह है अपनी सुरक्षा को लेकर एकदम चौकन्ना रहता है… रक्त की सफाई के मामले में यह किडनी व लीवर के कार्य पर भरोसा नहीं करता| परमपिता परमेश्वर ने शरीर में जीवात्मा के निवास मस्तिष्क की सुरक्षा के लिए बैक्टीरिया वायरस संक्रमण हानिकारक रसायन से इस को बचाने के लिए इसको रक्त की आपूर्ति देने वाली रक्त वाहिकाओं के अंदर अनूठे reverse osmosis सिस्टम की व्यवस्था की है…. जो एंडोठेलियल सेल से मिलकर बना है…. हमारे शरीर में जब कोई Pathogen बैक्टीरिया वायरस या कोई केमिकल सब्सटेंस घुसता है तो वह हमारे रक्त में घूमकर मस्तिष्क को छोड़कर हमारी सभी अंगों में घुल मिल जाता है… हम उसके टॉक्सिक रोग कारक प्रभाव से प्रभावित होते हैं… लेकिन हमारा मस्तिष्क अछूता रहता है… कोई भी बैक्टीरिया वायरस रासायनिक मॉलिक्यूल सीधा मस्तिष्क में नहीं घुस सकता उसका सामना होता है मस्तिष्क के सुरक्षा गार्ड ब्लड ब्रेन बैरियर से… यदि वह वांछित या अवांछित पदार्थ मस्तिष्क के लिए उपयोगी है तो उसे मस्तिष्क में एंट्री मिलती है… मस्तिष्क में घुसने के लिए बैक्टीरिया वायरस सर पटक पटक कर मर जाता है…. मोटे तौर पर मस्तिष्क में केवल ऑक्सीजन गैस के अणु ग्लूकोस तथा कुछ अमीनो एसिड की सीधी एंट्री है…. बाकी अन्य तत्वों मॉलिक्यूल को सघन जांच से गुजरना पड़ता है| मिर्गी अल्जाइमर चिंता अवसाद जैसी न्यूरो रोग disorder मस्तिष्क के कुछ pathogenic संक्रमण में यह तंत्र प्रभावित होता है| यहीं से समस्या शुरू होती है यह मस्तिष्क का अभेद तंत्र जहां मस्तिष्क की सुरक्षा करता है वही जरूरत पड़ने पर मस्तिष्क की क्षति की मरम्मत में रोधक बन जाता…. हेड इंजरी ट्रॉमा ब्रेन स्ट्रोक के मामले में जब मस्तिष्क में संक्रमण मस्तिष्क की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होती हैं…. तो जरूरत पड़ने पर एंटीबायोटिक दवाएं ब्रेन ब्लड बैरियर के कारण मस्तिष्क में प्रवेश नहीं कर पाती…. मेडिकल साइंस में कुछ खास दवाई ही अभी तक विकसित की जा चुकी है जो संख्या में बहुत थोड़ी है जो ब्लड ब्रेन बैरियर को बायपास कर मस्तिष्क में घुसने में कामयाब होती है | यही कारण मस्तिष्क की चोट व रोगों के मामले में न्यूरोलॉजिस्ट मरीज को समय के हवाले छोड़ देते है| मस्तिष्क का अपना इम्यून सिस्टम ही अपनी रिपेयर करता है…. जबकि अन्य अंगों के संक्रमण चोट के मामले में ऐसा नहीं है… उनका अपना कॉमन सिस्टम है|

शरीर में संक्रमण के मामले में बैक्टीरिया वायरस के खात्मे के लिए एंटीबॉडी बनती है…. यह एंटीबॉडी खास प्रोटीन होती है जो बैक्टीरिया वायरस का खात्मा करती है संक्रमण को खत्म करते हैं… लेकिन अपने कुछ बड़े आकार के कारण यह मस्तिष्क के ब्लड ब्रेन बैरियर /रिवर्स ऑस्मोसिस सिस्टम को पार नहीं कर सकती मस्तिष्क में इनकी एंट्री नहीं हो पाती…. नतीजा मस्तिष्क संक्रमण चोट के मामले में एकदम अकेला पड़ जाता है|

दुनिया के चोटी के न्यूरोलॉजिस्ट ब्लड ब्रेन बैरियर को लेकर दिन-रात शोध कर रहे हैं यदि इस व्यवस्था को पूरी तरह समझ लिया जाए तो जटिल मानसिक व्याधियों व हेड इंजरी के मामले में मरने वाले 95 फ़ीसदी से अधिक मरीजों को बचाया जा सकता है| भगवान की महिमा अपरंपार है मस्तिष्क का यह तंत्र जहां उसके लिए वरदान है तो वहीं अभिशाप भी बन जाता है| बताना चाहूंगा आयुर्वेद में शंखपुष्पी ब्राह्मी जैसी बूटियां है जिन पर पश्चिमी जगत में शोध हुए हैं जो ब्लड ब्रेन बैरियर को पार कर मस्ती की क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की मरम्मत करती है| अर्थात मस्तिष्क उन्हें अपने लिए हानिकारक नहीं मानता|

आयु का वेद अर्थात आयुर्वेद ,अर्थववेद का उपवेद है | इसकी विश्वसनीयता प्रभावशीलता की साक्षी स्वयं ईश्वर देता है|

आर्य सागर खारी ✍

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