*गीता के श्लोक का गलत भावार्थ*

सत्य की खोज

गीता के श्लोक का गलत भावार्थ
डॉ डी के गर्ग

गीता में एक श्लोक (2/47) इस प्रकार है :
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’’ ।
और इसका भावार्थ इस तरह समझाया जाता है की मनुष्य तू कर्म करता रह और फल यानि परिणाम की चिंता ना कर। परिणाम तो ईश्वर के हाथ में है। ये भावार्थ पूरी तरह गलत और व्यावहारिक नहीं है क्योकि
१ मनुष्य एक कर्म योनि है वो कर्म करता है तो उसके परिणाम की इच्छा के साथ। उसको ईश्वर ने सद्बुद्धि दी है की पूरा नहीं तो आंशिक रूप से उसको परिणाम का आभाष भी होता है। परिणाम का आभाष उसको गलत कार्य से रोकता है। कोई व्यक्ति नदी में आत्महत्या के लिए कूद जाता है तो उसको मालूम है की मृत्यु होने की पूरी पूरी सम्भवना है। एक विद्यार्थी जब परीक्षा देता है तो काफी परिश्रम करता है और फल की इच्छा से ही करता है। पहलवान सुबह उठकर व्यायाम और प्रैक्टिस करता है जिसके पीछे उसको परिणाम की इच्छा होती है अन्यथा लोग निकम्मे होते चले जायेंगे।
मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है, पर फल भोगने में परतन्त्र। इस सिद्धान्त का साररूप में इस प्रकार वर्णन हैः-
अर्थात् तुम्हारा कर्म करने में अधिकार है, फल में कदाचित् नहीं।यह उचित भी है। उदाहरण-विद्यार्थी परीक्षा देता है, उसकी योग्यता का मूल्यांकन प्राध्यापक करता है। यदि वह स्वयं ही अपने उत्तर का मूल्यांकन करने लगे, पहले तो उसके पास यथोचित ज्ञान नहीं कि कौन-सा उत्तर ठीक है और कौनसा नहीं दूसरा सम्भवतः स्वयं को कुछ अधिक ही अंक देने की चेष्टा करे। इसके अतिरिक्त, मनुष्य अपने अच्छे कर्मों के लिये फल की अभिलाषा करता है परन्तु बुरे कर्मों के फल से बचने की चेष्टा करता है। उससे बचने के लिये झूठ बोलता है अर्थात् एक और बुरा कर्म करता है। अपनी सुख-सुविधा के लिये अन्यों का हक मारता है। इस प्रकार के कुकर्मों का निर्णय उसके ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता। अतःयह न्याय संगत एवं युक्ति-युक्त है कि वह कर्म करने में स्वतन्त्र हो और फल भोगने में परतन्त्र।
गीता में कहा गया है कि निष्काम कर्म करने से मनुष्य कर्मों से लिप्त नहीं होता। इस विषय पर ‘मोक्ष सिद्धान्त’ के अन्तर्गत विचार व्यक्त किये गये हैं। यहाँ प्रकरण कर्म बन्धन का है ।
सभी चाहते हैं कि उनको उनका हक मिलना चाहिये। न्याय होना चाहिये। इसीलिये समस्त संसार में हर देश व समाज में, न्यायपालिकाएँ एवं न्यायालय स्थापित हुए हैं। यथा संभव न्याय किया भी जाता है परन्तु वह प्रस्तुत प्रमाणों तथ्यों और गवाहों के बयानों पर निर्भर होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कुकर्म कर्Ÿाा (अभियुक्त) झूठी गवाही के आधार पर स्वयं बरी हो जाता है और किसी निर्दोष को फंसा देता है। न्यायाधीश को इसका आभास तक नहीं होता और निर्दोष को दण्ड मिल जाता है।
नितान्त निर्बाध न्याय के लिये कोई एक सत्ता होनी चाहिये जो सर्वज्ञ हो ताकि उसे गवाहों की आवश्यकता ही न हो, सर्वव्यापक हो ताकि जहाँ भी दुष्कर्म हो वहाँ पहले से ही साक्षी रूप में विद्यमान हो तथा सर्वशक्तिमान् हो ताकि उसका कोई प्रतिरोध न कर सके। ऐसी सत्ता ईश्वर ही हो सकता है।

Comment: