‘पराधीन सुख सपनेहुं नाहि’ कहकर तुलसीदास ने धिक्कारा पराधीनता को

कवि की कविता की विशेषता
कवि क्रान्तदर्शी होता है। कवि की कल्पना व्योम को भी पार कर जाती है और पत्थर को भी तोड़ जाती है। यह देखा जाता है कि जिस बात को सुनकर कोई व्यक्ति क्रोधित हो सकता है, वही व्यक्ति गद्य में उस बात को जब पद्यात्मक शैली में सुनता है, तो मुस्करा उठता है, या उसका विवेक लौट आता है। इसलिए कवि की कविता यदि कभी आग लगाती है तो कभी आग बुझाती भी है। आग लगाती कवि की कविता व्यर्थ के विवाद और वितण्डा को जन्म नही देती है, अपितु वह पथभ्रष्ट और धर्मभ्रष्ट समाज का मार्गदर्शन करती है। समाज को उसकी गंभीर भूलों के प्रति सचेत और जागरूक करती है।
देश और धर्म के प्रति भी कवियों ने अपने लेखनी धर्म का निर्वाह किया है। कवि से यह साधिकार अपेक्षा भी की जाती है कि वह देश-धर्म के प्रति देश की जनता का सदा मार्गदर्शन करे। यदि कवि की कविता देश में मचलन उत्पन्न कराने में अक्षम और असमर्थ हो, तो ऐसी कविता व्यर्थ ही जाती है। कवि का जन्म राष्ट्र और धर्म के तात्विक स्वरूप की रक्षा करना होता है।

गोस्वामी तुलसीदासजी ने निभाया कविधर्म
इस लेख में हम गोस्वामी तुलसीदास जी के विषय में कुछ बताने का प्रयास करेंगे। जिन्होंने अपने प्रिय ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ सहित अन्यत्र भी प्रचलित शासन व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था पर ऐसा व्यंग्य कसा है-जिसे समझकर तत्कालीन समाज के विषय में बहुत कुछ समझा जा सकता है। उन्होंने जो संकेत दिये हैं उनसे उनकी स्वतंत्रता प्रेमी भावना का तो पता चलता ही है, साथ ही अपने समकालीन समाज को अपनी अनोखी शैली में झकझोरने की उनकी अद्घितीय विधा का भी ज्ञान होता है।

पत्नी ने किया प्रेरित देशभक्ति के लिए
गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म सम्वत 1554 ई. में बांदा जिले के राजापुर गांव में हुआ था। उनका विवाह पं. दीनबंधु पाठक की सुकन्या रत्नावली से हुआ। रत्नावली अत्यंत रूपवती थी। इसलिए जब वह अपने मायके में  मिलने के प्रयोजन से गयीं, तो उनके पति भी पत्नी मोह में पीछे-पीछे वहां पहुंच गये। तब उनकी पत्नी रत्नावली ने उनसे कहा-
लाज न आवत आपको, दौरे आयु साथ।
धिकधिक ऐसे प्रेम को, कहा कहुं में नाथ।
अस्थि धर्ममय देह मम तामें ऐसी प्रीत।
तैसी जो श्रीराम में, होती न तौ भव भीत।।
रत्नावली कह रही है कि-”आपको मेरे पीछे दौड़े-2 चले आकर तनिक भी लज्जा नही आयी। वासना से पूर्ण ऐसे प्रेम को मैं बार-बार धिक्कारती हूं। इस अस्थि और चर्म से निर्मित देह में जितनी आपकी प्रीति है यदि इतनी श्रीराम में हो जाती अर्थात उनके गुणों को जीवन में धारने की सोच लेते, तो सारे सांसारिक दुखों से छुटकारा मिल जाता।”
रत्नावली की इस धिक्कार का अर्थ केवल राम के चित्र की उपासना करना ही नही है, अपितु उनके चरित्र की उपासना करने से है। राम के जीवन पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि उनका जीवन ‘धर्म की मर्यादा’ की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले एक योद्घा का जीवन है। रत्नावली के समकालीन समाज में धर्म और मर्यादा की धज्जियां उड़ाने वाले सुल्तानों और मुगलों का शासन था। जिनसे सारा समाज कुण्ठा और घुटन का जीवन यापन कर रहा था। रामभक्तों ने ेअहिंसक समाज की रक्षा के लिए हिंसा में विश्वास करने वाले श्रीराम को भी अहिंसा का पुजारी बना डाला। इसलिए ‘राम-राम, राम-राम’ का जाप करके जीवन तरने को ही उन्होंने राम की पूजा मान लिया। जबकि राम की पूजा का अर्थ है श्रीराम के जीवनादर्शों को जीवन में धारण करना। सारा हिंदू समाज  उस समय भव बंधनों में और क्रूर शासकीय बंधनों में जकड़ा पड़ा था, उनसे मुक्ति का उपाय केवल यही था कि श्रीराम की भांति दुष्टों का संहार किया जाए। ऐसे शासकों का संहार किया जाए जो किसी भी प्रकार से लोगों के अधिकारों का हनन कर रहे हों। अत: रत्नावली तुलसी को ईशभक्त बनाकर अकर्मण्य बना देना नही चाहती है, अपितु रत्नावली चाहती है उसका पति कर्मशील सक्रिय जीवन जिये और राम की भांति धर्म और मर्यादा का रक्षक बनकर जीवन पथ पर आगे बढ़े।

तुलसीदास पर पड़ा प्रभाव
पत्नी रत्नावली की धिक्कार का तुलसीदास पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने श्रीराम के जीवन को समझा और उस पर मंथन आरंभ किया। उस मंथन के मानस से अमृत निकला, उसका नाम उन्होंने ‘राम चरिमानस’ (राम जैसे पावन चरित्र का अमृतमयी मानस) रखा। उस मानस की गंगा में उन्होंने डुबकियां लगायीं और स्वयं को धन्य किया। यह उनका अपने लिये किया गया पुरूषार्थ था, पर उनकी पत्नी ने तो उन्हें केवल ‘स्व’ के कल्याणार्थ ही नही धिक्कारा था, उसने तो उन्हें कर्मशील और सक्रिय जीवन जीकर लोकोपकार के लिए प्रेरित किया था। इसलिए उन्होंने पत्नी की दी गयी उस धिक्कार पर कार्य करना आरंभ किया और ‘रामचरित मानस’ का निर्माण कर दिया।
‘रामचरितमानस’ का निर्माण तुलसी की ‘पर’ के लिए की गयी साधना थी। तुलसीदास जी ने अपनी तपस्या से इस बात को समझने का प्रयास किया कि जैसे श्रीराम ने व्यक्ति और व्यक्तियों के समाज के लिए स्वतंत्रता को उनका मौलिक अधिकार माना और उसके लिए अपनी ओर से भी कठोर साधना की, वैसे ही तुलसीदास ने भी अपने लेखन में लोगों को स्वतंत्रता प्रेमी बनाने और शासक वर्ग को लोगों की स्वतंत्रता का ‘हन्ता’ न बनकर उसका रक्षक बनने की शिक्षा दी। यह उनका ‘पर’ के कल्याण से भी ऊपर उठकर मानवता के लिए उत्थान और उद्घार के लिए किया गया पुरूषार्थ था।  

एक श्लोकी रामायण
गतिशील और प्रगतिशील बने रहना मानव जीवन की पहचान है, और मानव को गतिशील और प्रगतिशील बनाने रखना भारत की साहित्य साधना के प्राण हैं। विद्वानों ने सारी रामायण को निम्नलिखित एक श्लोक में भी बांधने का प्रयास किया है :-
आदो राम तपोवनादि गमन हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायुमरणं सुग्रीव संभाषणम्।।
बाली निर्दनलनम् समुद्रतरणं लंकापुरी दाहनम्।
पश्चाद्रावण कुंभकर्ण हननं एतद्घि रामायणम्।।
इस एक श्लोकी रामायण में भी सक्रिय और स्वतंत्र जीवन जीने और दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए क्षात्रबल की प्रेरणा छिपी है।
तुलसीदास जी ने अपनी रामायण की रचना स्वतंत्रता की इसी मूल भावना के अनुसार की। इसलिए उन्होंने मानव को स्वतंत्रता प्रेमी बनाने के लिए अपने इस ग्रंथ में सीधे-सीधे स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुति की है। उनका कहना है कि-‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहि।’
उनका कहना है कि यदि जीवन में सुख-शांति और समृद्घि चाहते हो तो जीवन को स्वाधीन रखो, क्योंकि पराधीनता की अवस्था में जीवन में सुख-शांति और समृद्घि का वास कदापि संभव नही है।

सकलपदारथ हैं जगमाहिं
तुलसीदास जी संसार के सभी पदार्थों पर कर्मशील व्यक्ति का अधिकार मानते हैं। वह कहते हैं-
सकल पदारथ हैं जगमांहि।
कर्महीन नर पावत नाही।।
जो कर्महीन है, अकर्मण्य हैं, जो भाग्य के भरोसे रहकर पराधीनता के दंश को झेल रहे हैं, उन्हें संसार के सकल पदार्थों में सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु स्वतंत्रता का उपभोग करने का आनंद या अवसर कभी उपलब्ध नही हो सकता। तुलसी की यह उक्ति देश और समाज को एक गति दे रही है, और गति है-वेद के ‘चरेवैति-चरेवैति’ की कि-चलते रहो, रूकना मत, रूकते ही मृत्यु संभव है। इसलिए हे सनातन राष्ट्र भारत के मेरे बंधुओ! ये मत समझो कि जिस पराधीनता का अनुभव आप कर रहे हैं, उसका अंत ही नही होगा। आप कर्महीन मत बनो। संकल्पशील, कर्मशील बनो स्वतंत्रता मिलेगी और स्मरण रखो-
”जो बरता है वह बुझता है।”
जो आज तुम्हें अपनी स्वतंत्रता के हंता बने दीख रहे हैं, एक दिन उनके अहम की होली भी जलेगी अवश्य।

धर्म की हानि का परिणाम होता है …..
अपने समकालीन समाज को झकझोरते हुए तुलसी कहते हैं :-
‘जब जब होइ धरम कै हानी।
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।’
अर्थात जब-जब धर्म की हानि होती है तो असुर, नीच-अधर्मी और अभिमानी लोगों की वृद्घि हो जाती है। इस उक्ति का एक अर्थ तो केवल हिंदू समाज के लिए हो सकता है कि तुलसीदास हिंदू समाज की चेतना को झंकृत कर रहे हैं और उसे जगाना चाहते हैं, और एक अर्थ तत्कालीन संपूर्ण भारतीय समाज (जिसमें मुस्लिम राज सत्ता को संभालने वाले लोग भी सम्मिलित थे) के लिए हो सकता है कि वे सबको बताना चाहते थे कि जब धर्म की हानि (जब शासक शासित समाज के अधिकारों का हत्यारा बन जाता है) होती है तो सर्वत्र उपद्रव, विद्रोह और अशांति का अराजकता पूर्ण परिवेश सृजित हो जाता है, जिससे असुर, नीच अधर्मी और अभिमानी लोगों की वृद्घि हो जाया करती है, ऐसे असुर, अधर्मी और अभिमानी लोगों के कारण समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है। जिसका परिणाम होता है :-
‘करहिं अनीति जाइनहिं बरनी।
सीदहिं बिप्र धेनुसुर धरनी।।
तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।’
तुलसीदास जी कहते हैं कि जब असुर, अधम, और अभिमानी लोग बढ़ जाते हैं तो वह ऐसी अनीति करते हैं कि जो कही नही जा सकती, ब्राह्मण गौ, देवता पृथ्वी ये सब दुखी हो जाते हैं, तब वे कृपा निधान प्रभु (जो वस्तुत: निराकार हैं) मानो अपने अनेक प्रकार के शरीर धारण कर भक्तों के क्लेशों को दूर करते हैं।

तुलसीदास जी और अवतारवाद
यहां तुलसीदास जी महापुरूषों को ईश्वरीय रूप में चित्रित कर रहे हैं। ईश्वरीय रूप हमारे यहां ‘राजा’ में भी माना गया है और उसका कारण है कि राजा ईश्वर की भांति पक्षपात शून्य और न्यायपूर्ण व्यवहार अपनी प्रजा के मध्य करे। जब राजा अपने इस राजधर्म को भूल जाता है तो उसे सही मार्ग पर लाने के लिए लोगों  को सक्रिय करने वाला या ईश्वरीय शत्रुसंहारक तेज से भरने वाला महापुरूष ईश्वरीय रूप में उस दुष्ट राजा से भी बढक़र होता है। 
यहां ब्राह्मण से अभिप्राय है-समस्त ऐसी शक्तियां जो ज्ञान की प्रचारक-प्रसारक और विस्तारक हैं, गौ से अभिप्राय-समस्त ऐसी शक्तियों से है जो कल्याण करने और लोकोपकार करने में लगी हैं और देवता से अभिप्राय संसार के उन सभी योद्घाओं से है जो पृथ्वी पर किसी भी प्रकार के हो रहे अन्याय के विरूद्घ सीना तानकर खड़े होने का साहस करते हैं। असुर, अधम और अभिमानी लोग जब अपनी अनीति से इस प्रकार के तीनों लोगों का जीना कठिन कर देते हैं तो उस समय किसी विशेष महामानव का जन्म होता है।
एक प्रकार से तुलसीदास यहां सीधे-सीधे अपनी समकालीन मुगल सत्ता पर चोट कर रहे हैं। क्योंकि उस क्रूर सत्ता के कारण ब्राहमण गौ, और देवता का जीना उस समय कठिन हो गया था। अत: तुलसीदास तत्कालीन सत्ता को असुर, अधम और अभिमानी कहकर उसकी नीति को भी अनीतिपरक कह रहे हैं। 

लोकतंत्र के रक्षक तुलसीदास
तुलसीदास चाहे ऐसी परिस्थितियों को राम के जन्म के लिए उत्तरदायी मानते हैं, परंतु उनका वास्तविक अभिप्राय तो अपने काल की परिस्थितियों पर प्रहार करना है। जिन्हें वह उचित नही मानते हैं, और उन कष्टकारी परिस्थितियों से जूझने के लिए समस्त हिंदू-समाज को आंदोलित कर देते हैं कि जो इन परिस्थितियों से निर्मित चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करेगा, वही ‘मुकद्दर का सिकंदर’ (अर्थात ईश्वर का अवतार) कहलाएगा। वह कहते हैं-
‘असुर मारिद थापहिं सुरह,
राखहि निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहि बिसद जस,
राम जन्म कर हेतु।।’
अर्थात ऐसे ‘मुकद्दर का सिकंदर’ कहलाने वाले लोग असुरों को मारकर देवताओं को राज्य देते हैं। अभिप्राय है कि हिंदुओ जाग जाओ और प्रजा उत्पीडक़, असुर शासकों को समाप्त कर देवताओं को शासन देने की वैदिक मर्यादा का पालन करो। भारत की यह मर्यादा लोकतंत्र की नींव है, उसकी रीढ़ है। इसी लोकतांत्रिक रीढ़ का आवाहन तुलसीदास कर रहे हैं, कि हिंदू समाज को इस रीढ़ को और भी अधिक शक्तिशाली करना चाहिए।
इस प्रकार तुलसीदास जी ने अपने समकालीन समाज की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के लिए स्वतंत्रता की अलख जगाकर उनका समाधान देने का प्रयास किया, जो कि एक उच्चकोटि के साहित्यकार के लिए आवश्यक होता है।

दुष्ट संहारक की शरण लो
‘रामचरित मानस’ के अनेकों प्रसंग ऐसे हैं, जो आदि कवि बाल्मीकि जी की मूल रामायण से मेल नहीं खाते। तुलसीदास जी ने उन प्रसंगों को अपनी ओर से जोड़ा और हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया। इसका कारण है कि कवि अपनी कविता में अपनी बात को किसी महापुरूष के मुंह से कहलाकर या अपने मंतव्य को किसी महापुरूष के जीवन चरित के साथ जोडक़र उसे लोक कल्याण का हेतु बनाना चाहता है। क्योंकि लोग बड़ों का अनुकरण करते हैं, और जब बड़ों के प्रसंग और प्रकरण उनके समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं तो लोग उन्हें पकडक़र अपने लिए अनुकरणीय बना लिया करते हैं।
इसके अतिरिक्त बौद्घमत-जैन मत के पश्चात ईसाई मत और इस्लाम मत सहित जितने भी मत मतांतर आये उन सबने अपना आदर्श किसी न किसी अपने मत प्रवत्र्तक महापुरूष को बनाया। तब हिंदू दोराहे पर खड़ा था। वह सोच नही पा रहा था कि वह किसे अपना नेता बनाये। तब ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से तुलसीदास जी ने राम को हमारा नेता बना दिया, इसी प्रकार सूरदास जी ने कृष्ण को एक ‘जननायक’ के रूप में प्रस्तुत कर दिया। इन दोनों कवियों का भारत पर यह महान उपकार था कि जब हिंदू अपने आपको नेतृत्वविहीन मान रहा था तब इन दोनों ने हिंदू को एक नही दो जननायक-महानायक दिये, दोनों ही अपने-अपने मूल स्वरूप में दुष्ट संहारक थे। दोनों कवियों ने हमें दुष्ट संहारकों का पुजारी बनाया। हम ही उनके मंतव्य को नही समझ पाये तो इसमें उनका क्या दोष?
जिस समय हिंदू को अपना अस्तित्व बचाना तक कठिन हो रहा था उस समय दुष्ट संहारकों की पूजा का विधान बताना, अथवा अपने लोगों को अपने राम और कृष्ण के अनुरूप जीवन निर्माण कर राष्ट्रनिर्माण के लिए प्रेरित करना छोटी बात नही थी। यह बहुत बड़ा उपकार था-दोनों कवियों का-अपने देश पर।

तुलसीदास के राम की विशेषता
तुलसीदास जी राम को पाप नाशक कहें या दुष्ट संहारक कहें-दोनों का अर्थ एक ही है-कि जो दुष्ट आततायी आक्रांता बनकर देश में घुस आये है उन्हें स्वीकार मत करो, अपितु उनका संहार करो। तुलसीदास जी कहते हैं :-
जेहिं सृष्टि उपयी त्रिविध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अधारी चित्त हमारी जानिऊ भगति न पूजा।।
जो भव भय भंजन मुनि मनरंजन गंजनबिपति बरूथा।
मन बचन करम बानी छाडि़ सयानी सरन सकल सुरजथा।।

अर्थात जिसने अकेले ही तीनों प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति की वे पापनाशक प्रभु हमारी सुधि लें, हम भक्ति और पूजा नही जानते। जो संसार के भय का नाश करने वाला भक्तों के मन को आनंदित करने वाला और विपत्ति के समूह का नाश करने वाला है-मन बचन और कर्म से चतुराई की वाणी को छोडक़र हम सब देवतागण उसकी शरण में आये हैं।
यहां तुलसीदास जी का भारत की तत्कालीन राजशक्ति की ओर भी संकेत है। अत्याचारों से भय मत खाओ, पापनाशक प्रभु का स्मरण करो और सुमिरन से ऊर्जा प्राप्त करो। विदेशी यवनों के कारण जो विपत्तियों का समूह हमारे समक्ष उपस्थित है-उसके बादल छटेंगे भी और हटेंगे भी।
धीरज और धर्म को अपनाओ
तुलसीदास जी ने अपने कालजयी ग्रंथ में स्थान-2 पर धीरज और धर्म को अपनाने की बात कही है। एक स्थान पर वह कहते हैं :-
धीरज धरम मित्र अरू नारी।
आपति काल परखिये चारि।
अर्थात धीरज, धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा आपत्तिकाल में ही होती है। तुलसीदास जी के काल में देश को और विशेषत: हिंदू समाज को इन चारों कठिन परीक्षाओं से निकलना पड़ रहा था। यह वह काल था जब हमारे धीरज का बांध टूटना नही चाहता था, धर्म हमारा सर्वोत्तम मार्गदर्शक था, मित्र हमारे साथ मिलकर बलिदान दे रहे थे, और नारी शक्ति भी जौहर का मार्ग अपनाकर अपने पतीत्व और सतीत्व  की रक्षा कर रही थी। पर कहीं-कहीं इन चारों में टूटन भी थी। कहीं धीरज छलक रहा था तो लोग कष्टों की लंबी रात्रि से दु:खी होकर धर्मांतरण भी कर रहे थे, कहीं धर्म-राजधर्म साथ छोड़ रहा था-तो कहीं हमारी फूट का विस्फोट हो रहा था, कहीं मित्र छल कर रहे थे तो हमारा बल क्षीण हो रहा था, और कहीं नारी को हमसे ‘लूट का माल’ समझकर हमसे छीना जा रहा था। तब इस सार्वत्रिक क्षरण की प्रक्रिया को रोकने के उद्देश्य से तुलसीदास जी ने लोगों को संकेत और संदेश दिया कि आपत्तिकाल है-और इसमें अपने-अपने विवेक को डिगने मत दो, धैर्य और धर्म का साथ लो और अपने राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण के लिए डटे रहो, आपत्तिकाल के निकलते ही भोर का सूर्य प्रकट होगा।
इसी बात को रहीम ने अपने शब्दों में यूं कहा-
रहिमनचुप हवै बैठिये, देखि दिनन को फेर।
जब नीके दिन आ रहै बनत न लागे बेर।
किसी शायर ने भी कितना सुंदर कहा है :-
गुलशनपरस्त हूं मुझे गुल ही नही अजीज।
कांटों से भी निवाह किये जा रहा हूं मैं।।

मैं बाग का पुजारी हूं, फूलों और कांटों दोनों से निर्वाह करता हूं अर्थात सुख और दु:ख दोनों को समान रूप से स्वीकार करता हूं।
इसी बात को लोगों के हृदय में उतारने के लिए और कष्टों का सामना हंसी-खुशी करने की प्रेरणा देने के लिए तुलसीदास जी ने भी कह दिया था कि जैसे सूर्य सूर्योदय और सूर्यास्त के दोनों कालों में समानरूप से लाल होता है, उस पर इन दोनों विपरीत परिस्थितियों का कोई प्रभाव नही पड़ता है और वह एक समान रहता है, वैसे ही मेरे सूर्यवंशी प्रभु राम हैं जो वन जाते समय भी मुस्कराते हैं और वन से आते हुए भी मुस्कराते हैं। इसलिए वह अपने देशवासियों को बताते हैं कि सुख, दु:ख में समान रहो। वेद और गीता का भी यही संदेश है-इसलिए विचलित मत होओ।
इससे सुंदर मार्गदर्शन कोई कवि अपने देशवासियों का क्या कर सकता है? संकेत में गूढ़ संदेश दे देना और सोये हुए हृदय में मचलन उत्पन्न कर देना, यही तो कवि का चमत्कार होता है। हमें यह बात बड़े गर्व के साथ स्वीकार करनी चाहिए कि तुलसीदासजी ऐसे ही चमत्कारी कवि थे, जो अपने देशवासियों में मचलन उत्पन्न कर रहे थे, और इतनी सावधान से कर रहे थे कि शत्रु को उसकी भनक तक भी नही लगी।  ऐसे कवि को हमारा कोटिश: नमन।
क्रमश:

Comment: