डॉ डी के गर्ग
भाग 3

वास्तविक गुरु कौन है? और गुरु की उपाधि का पात्र कौन हो सकता है ?
इस प्रश्न का उत्तर वैदिक साहित्य में मिलता है। जिसमें वास्तविक गुरु माता,पिता,और ईश्वर को बताया है जिसने जन्म से ही ज्ञान प्रदान किया और संस्कार दिए.वेद ज्ञान के प्रदाता चार ऋषि भी इसी श्रेणी में आते है जिन्होंने ईश्वर के ज्ञान को कलमबद्ध किया.वेद अपुरुषीय है इसलिए इस आलोक में ईश्वर और इन ऋषियों को गुरु कहा है.
मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेदः ( शतपथब्रा ०)
यह शतपथ ब्राह्मण का वचन है वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है ।वह कुल धन्य है वह संतान बड़ा ही भाग्यवान् है जिसको उत्तम् धार्मिक एवं विद्वान माता -पिता प्राप्त है ।
तीसरा गुरु परमपिता ईश्वर है जो ईश्वर हमको बुद्धि देने वाला, जन्म से ही दुध पीने आदि का ज्ञान देने वाला, और समय समय पर हृदय मे निर्णय लेने का ज्ञान देने और अच्छे और गलत का आभास कराने वाला ईश्वर ही वास्तविक गुरु या सद्गुरु है।
आचार्य विद्वान का अर्थ उस शिक्षक से हैं जिसको वेद का ज्ञान है और वेद के अनुकूल आचरण करता है तथा वैदिक ज्ञान का प्रचार प्रसार करता है. धर्म को जानने वाले, धर्म मुताबिक आचरण करने वाले ,धर्मपरायण और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करने वाले गुरु कहे जाते हैं।
उपरोक्त विश्लेषण से गुरु और शिक्षक के भेद स्पष्ट हो जाता है।बिना शास्त्रीय ज्ञान के सिर्फ आशीर्वाद देने वाले तथाकथित गुरु का उल्लेख नही है।
अन्य प्रमाण : परमपिता परमेश्वर गुरुओं का भी गुरु
सद्गुरु, महागुरु, जगतगुरु आदि शब्दों का वैदिक साहित्य में कोई उल्लेख नहीं है। ये बाबाओं ने अपनी सुविधा अनुसार अपने लिए प्रयोग किये है ताकि उनके शिष्य उनकी महिमा मंडन करते रहें।
आजकल जो धर्म गुरु हैं उनको मार्गदर्शक कह सकते है। स्वयं को सद्गुरु कहने वाले वास्तव मे उनको धोखे बाज गुरु कहना चाहिए।उनकी तस्वीर पूजना और ईश्वर से तुलना करना मूर्खता है।
गुरु गोविन्द सिंह ने `गुरु’ शब्द का वास्तविक अर्थ बताया है –
एक ओंकार सतनाम -वाहे गुरु
इसका वास्तविक भावार्थ है कि ईश्वर का एक ही नाम ॐ यानि ओंकार है और वही ईश्वर हमारा वास्तविक गुरु है।
2.वेद में ईश्वर को गुरु भी कहा गया है। ईश्वर के अनेकों नाम में एक नाम गुरु से भी पुकारा है .शायद इसी का सहारा आधुनिक गुरुओं ने अपने को ईश्वर तुल्य पूजवाने के लिए किया है।
गॄ शब्दे- इस धातु से ‘गुरु’ शब्द बना है।
यो धर्म्यान् शब्दान् गृणात्युपदिशति स गुरुः’
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्त। योग०।
जो सत्यधर्मप्रतिपादक, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेश करता, सृष्टि की आदि में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि गुरुओं का भी गुरु और जिसका नाश कभी नहीं होता, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘गुरु’ है।
इसलिए परमपिता परमेश्वर गुरुओं का भी गुरु है। इसलिए प्रातः काल में उठकर उस परम गुरु को ही नमन करना चाहिए। उसने यह सृष्टि क्यों बनाई है ? और मुझे यहां क्यों भेजा है ? मैं किस लिए आया था और क्या कर रहा हूं? ऐसे प्रश्नों पर भी गंभीरता के साथ चिंतन करना चाहिए। इन सारे प्रश्नों पर प्रातः काल में उठकर चिंतन करने का असीम लाभ होता है।
प्रश्नः गुरु क्या ईश्वर की जगह ले सकता है? गुरु पूजा का क्या तात्पर्य है?
पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है। लोगों में गुरु उसे कहते है जिसने गले मे मालाएं डाली हो, लंबा चोगा डाला हो, या जिसने हमे शिक्षा दी हो नहीं ये सब गुरु की अवधारणा नहीं है।
कठोपनिषद में आया है : –
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्नि बोधयत ।
क्षुरस्य धारा निशानाम दरत्यया ,
दुर्गम पथस्तत कवयो वदन्ति ॥
अर्थ – उठो , जागो , महापुरुषों के पास जाकर उनसे ज्ञान प्राप्त करो । कानों में गुरु शब्‍द के पड़ते ही अंत:करण में एक विशाल व्‍यक्तित्‍वमयी मूर्ति अंकित हो जाती है और हृदय से श्रद्धा भक्ति ओर अनुराग की वह रसयुक्‍त त्रिवेणी प्रवाहित हो उठती है, जो संपूर्ण बुराइयों को धोकर हृदय में अपूर्व शांति को भर देती है। जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ गुरु की व्‍याप्ति न पाई जाती हो क्‍योंकि बिना गुरुकृपा एवं मार्गदर्शन के व्‍यक्ति की उन्‍नति संभव नहीं है और व्‍यक्ति पर ही समाज का अस्तित्‍व निर्भर है। अतएव समाज में गुरु का स्‍थान अत्‍यंत ऊँचा समझा जाता है और पूज्‍य की दृष्टि से देखा जाता है।

शिक्षक तो कई हो सकते हैं लेकिन वास्तविक आदि गुरु एक ही है वो है -ईश्वर। ईश्वर के असंख्य नाम हैं। जिनमे ईश्वर को गुरु भी कहा गया है। क्योंकि ईश्वर ने हमको ज्ञान और बुद्धि दी है। तथा समय समय पर ज्ञान देकर हमारी रक्षा करता है।

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