आपस्तमब धर्मसूत्र की दिनांक 21 मार्च 2023 की कक्षा का आर्य भाषा में सार*।

आर्य सागर खारी

आज की कक्षा का आरंभ करते हुए पूज्य स्वामी विष्वड् परिव्राजक जी आर्य वन रोजड गुजरात ने कहा — शास्त्रों का पढ़ना अध्ययन का एक स्वरूप है। शास्त्र का अर्थ विद्या पुस्तकें है विद्या चाहें भौतिक हो या आध्यात्मिक।
विद्या वह होती है जो दुखों को दूर करती है।

सा विद्या या विमुक्तये विद्या वह जो दुखों से मुक्त कराएं। उसे विद्या नहीं कहते जो दुख को दूर नहीं करती, जो व्यक्ति जान कर भी दुखी होता है समझो वह विद्यावान नहीं है। किसी भी वर्ण या आश्रम में रहने वाला व्यक्ति यदि दुखी हो रहा है तो उस काल में उसके पास विद्या नहीं है या वह विद्या युक्त व्यवहार नहीं कर रहा होता।

वेद स्वाध्याय को किसी भी काल में नहीं त्यागना चाहिए । नित्य कर्म संध्या यज्ञ भी नहीं छोड़ना चाहिए।
स्वामी जी ने कहा जानकारी के अभाव में हम गलत कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। प्रत्येक प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिए यह वेद कहता है। व्यक्तिगत स्वेच्छाचार में शास्त्रीय प्रमाण नहीं मानना चाहिए।
भोजन को बलि कहते हैं, बलि शब्द भोजन आहार वाची है। भूतों (प्राणी) को प्रतिदिन आहार देना चाहिए। मनुष्य को भी यथाशक्ति आहार देना चाहिए। ब्राह्मण दान का पात्र होता है और ब्राह्मण भी दान करता है। याद रखना ब्राह्मण को केवल लेना ही नहीं होता, देना भी होता है।
गृहस्थी को देवयज्ञ करना चाहिए कुछ ना हो तो लकड़ी से ही यज्ञ कर सकते हैं ब्राह्मण ग्रंथों में १० प्रकार की हवि बताई गई है। कहीं घी कि कहीं दूध कि कहीं अन्न की कुछ ना हो तो पानी से भी हवन किया जा सकता है। भौतिक अग्नि भी ना हो तो आत्मा में आत्मा की आहुति दी जा सकती है। यज्ञ के विषय में स्वामी जी ने अनेक उपदेश दिए हैं जो वानप्रस्थ साधक आश्रम यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है 43 के लगभग उनकी संख्या। स्वामी जी ने यज्ञ में सामग्री के विषय में भी यह स्पष्ट किया आज यज्ञ में जिस सामग्री का प्रयोग किया जाता है उसका उल्लेख शास्त्रों में नहीं मिलता। महर्षि दयानंद जी ने भी यज्ञ की सामग्री हवि द्रव्य के सम्बन्ध में चार अलग-अलग पदार्थों का वर्णन किया है। सुगंधीकारक, रोगनाशक ,मिष्ठ गुण युक्त आदि आदि लेकिन उनको एक साथ मिलाने का कहीं उल्लेख नहीं किया।

स्वामी जी ने क्रमशःसूत्र की चर्चा करते हुए कहा पितरो के लिए भी वस्त्र भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए केवल माता-पिता ही नहीं होते बहुत से लोग पितर होते हैं। पानी देकर भी पितर यज्ञ कर सकते हैं यदि कुछ नहीं है तो। देव यज्ञ करना चाहिए। प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति को अपने से वरिष्ठ वर्ण के व्यक्ति की पूजा करनी चाहिए। क्षत्रिय वैश्य शुद्ध ब्राह्मण की पूजा करें वैश्य क्षत्रिय की पूजा करें। वाणी से सत्कार शुद्र का भी करना चाहिए उसे ठीक ठीक बोलना चाहिए यह उसकी पूजा है। नमः शब्द का अर्थ पूजा ही होता है। वृद्ध व्यक्ति का भी सम्मान करना चाहिए यह वृद्धों की पूजा है।

जब कोई व्यक्ति धन बल वस्त्र से पुष्ट होता है उसको अहंकार आ जाता है। जब कोई अच्छा वक्ता लेखक क्या अपने क्षेत्र में बड़ा हो जाता है तो वह भी फ्री स्टाइल में चलता है नियमों का पालन नहीं करता है ।वह आम जनता के बीच लाइन में खड़ा नहीं होता अहंकार उससे ऐसा करवाता है। उसका दर्प अहंकार से युक्त होने पर वह कर्तव्यों को छोड़ देता है फिर वह नरक अर्थात दुख की ओर प्रस्थान करता है।

ब्रह्मचारी गुरुकुल में गुरु के आदेश को पाकर आदेश का पालन करता है लेकिन समावर्तन के पश्चात उसके लिए गुरु का कोई आदेश नहीं होता।

ओंकार स्वर्ग का द्वार है। ब्रह्म तक पहुंचने के लिए ओंकार सेतु है। स्वामी जी ने कहा स्वर्ग मुक्ति को भी कहते हैं और स्वर्ग शब्द पुनर्जन्म के लिए भी प्रयुक्त होता है। जब-जब वेद पढ़े ओमकार का उच्चारण करें। स्वामी जी का हमारे देखने का नजरिया अलग अलग होता है। इस विषय में स्वामी जी ने महाभारतकार ऋषि व्यास का भी उल्लेख किया।
हमारा परमात्मा को देखने का नजरिया भी अलग होता है। वह परमात्मा ने न्यायकारी सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ है, हम उससे बच नही सकते ।ईश्वर को ऐसा देख जानकर हम पापों से बच सकते हैं।
प्रत्येक दंपत्ति को वेद संहिता का पाठ करना चाहिए इसे वेद पारायण कहते हैं । वेद पारायण यज्ञ के रूप में इसका अर्थ नहीं लेना चाहिए ।वेद पढ़ना ग्रहस्थ के परम कर्तव्य में से एक है।
कक्षा के अंतर में स्वामी जी ने प्रवृत्ति शब्द को लेकर शंका समाधान किया।
स्वामी जी ने कहा —हम जो भी कार्य करते हैं शरीर, मन ,वाणी से उन्हें प्रवृत्ति कहते हैं। यह मन इंद्रिय, शरीर को पैदा करते हैं। प्रवृत्ति अविद्या से भी उत्पन्न होती है। प्रवृत्ति का फल अच्छा और बुरा दोनों होता है। राग अविद्या का बोधक है। शास्त्र में राग का अर्थ अविद्या ही लिया गया।

आर्य सागर खारी✍

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