मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 12 ( ख ) महाराणा संग्राम सिंह और राव रायमल

महाराणा संग्राम सिंह और राव रायमल

महाराणा संग्राम सिंह के समय गुजरात और मेवाड़ के बीच भी संघर्ष हुआ था। उस संघर्ष का तात्कालिक कारण ईडर का प्रश्न था। उस समय ईडर राज्य के राव भाण के दो पुत्र सूर्यमल और भीम थे । राव भाण की मृत्यु के बाद सूर्यमल गद्दी पर विराजमान हुआ। यह एक संयोग ही था कि अभी उसे गद्दी पर बैठे हुए मात्र 18 माह ही हुए थे कि उसकी मृत्यु हो गई। तब सूर्यमल के स्थान पर उसके पुत्र रायमल को राज सिंहासन पर बैठाया गया। रायमल उस समय अल्प वयस्क था। जिसका लाभ उठाकर उसके चाचा भीम ने राज सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया था। तब रायमल ने मेवाड़ में आकर शरण ली। राणा संग्राम सिंह ने न केवल रायमल को अपने यहां शरण दी अपितु अपनी पुत्री की सगाई भी उसके साथ कर दी।
महाराणा संग्राम सिंह से इस प्रकार के संबंध स्थापित हो जाने से रायमल को बड़ी ऊर्जा प्राप्त हुई। राणा संग्राम सिंह के लिए भी रायमल अब अत्यधिक विश्वसनीय हो गया था। उन्होंने अपनी सेना रायमल को देखकर भारमल के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 1516 ई0 में राणा संग्राम सिंह की सेना की सहायता से वहां की गद्दी पर जबरन बैठे भीम के पुत्र भारमल को हटाकर ईडर पर अपना अधिकार फिर से स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। रायमल और महाराणा संग्राम सिंह की इस सफलता पर गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर बहुत अधिक प्रसन्न हुआ। इसका कारण यह था कि ईडर राज्य पर अधिकार कराने में सुल्तान मुजफ्फर ने भीम की सहायता की थी। उसके पश्चात सुल्तान मुजफ्फर ने अहमद नगर में जागीरदार निजामुद्दीन को आदेश दिया कि वह रायमल को पराजित करके भारमल को पुनः ईडर की गद्दी पर बैठा दें। निजाम उल मुल्क द्वारा ईडर का घेरा डालने पर रायमल पहाड़ों की ओर चला गया और पीछा करने पर निजाम उल मुल्क को पराजित किया।
इतिहासकारों की मान्यता है कि ईडर के आगे रायमल का अनाश्यक पीछा किये जाने से नाराज सुल्तान ने निजामुल्मुल्क को वापस बुला लिया था। इसके बाद सुल्तान द्वारा मुवारिजुल्मुल्क को ईडर का हकीम नियुक्त किया गया। एक भाट के सामने एक दिन मुवारिजुल्मुल्क ने सांगा की तुलना एक कुत्ते से कर दी थी। यह जानकारी मिलने पर महाराणा सांगा वान्गड़ के राजा उदय सिंह के साथ ईडर जा पहुंचे। पर्याप्त सैनिक न होने के कारण मुवारिजुल्मुल्क ईडर छोड़कर अहमदनगर भाग गया।
महाराणा संग्राम सिंह ने ईडर को अपने दामाद रायमल के हाथों में सौंप दिया और स्वयं चित्तौड़ की ओर लौट आए। जब वह चित्तौड़ लौट रहे थे तो रास्ते में पढ़ने वाले अहमदनगर, बड़नगर, विसलनगर आदि स्थानों को उन्होंने विजय करके खूब लूटा। महाराणा सांगा के आक्रमण से हुई बर्बादी का बदला लेने के लिए सुल्तान मुजफ्फर ने 1520 ई. में मलिक अयाज तथा किवामुल्मुल्क की अध्यक्षता में दो अलग-अलग सेनाएं मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजीं। मालवा का सुल्तान महमूद भी इस सेना के साथ आ मिला था किंतु मुस्लिम अधिकारियों में अनबन के कारण मलिक अयाज आगे नहीं बढ़ सका था और संधि कर उसे वापस लौटना पड़ा था।

मालवा और महाराणा संग्राम सिंह

  उन दिनों मालवा में भी एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ था। मेदिनीराय नामक एक हिंदू सामंत ने मालवा के अपदस्थ सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय को पुनः शासक बनाने में अपना सहयोग प्रदान किया। सुल्तान महमूद खिलजी जब मालवा का शासक बनने में सफल हो गया तो उसने मेदिनीराय का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए उसे अपना प्रधानमंत्री बना लिया। मुसलमान लोग अपने किसी मुसलमान बादशाह या सुल्तान के यहां पर किसी हिंदू के अधिकारी बनने या शक्तिशाली होने से बड़ी ईर्ष्या रखा करते थे। जब सुल्तान महमूद खिलजी ने मेदिनी राय को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया तो उसके विरुद्ध भी मुस्लिम अधिकारी अमीर उमराव सब लामबंद होने लगे। उन लोगों की इस प्रकार की ईर्ष्या की भावना से सुल्तान महमूद खिलजी भी प्रभावित हुआ और वह भी अब मेदिनी राय को इतना सम्मान नहीं देता था, जितना उसने प्रारंभ में दिया था। इस सारे खेल को मेदिनीराय ने जब ढंग से समझ लिया तो उन्होंने मालवा को छोड़कर महाराणा संग्राम सिंह की शरण ली। महाराणा ने अपने इस शरणागत का पूर्ण सम्मान किया और उसे गागरोन व चंदेरी की जागीर प्रदान कर दी। सन 1519 ईस्वी में सुल्तान महमूद मेदिनीराय पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा।
सुल्तान नहीं चाहता था कि उसके पड़ोस में कोई भी हिंदू शक्ति प्रबल हो। इसके अतिरिक्त उसे अपने संप्रदाय के लोगों की सांप्रदायिक ईर्ष्या को भी देखना और समझना था। जैसे ही सुल्तान के इस आक्रमण की जानकारी मां भारती के सच्चे सपूत महाराणा संग्राम सिंह को हुई तो वह भी तुरंत मेदिनीराय की सहायता के लिए एक बड़ी सेना लेकर चल दिए। महाराणा संग्राम सिंह अपनी सेना लेकर गागरोन पहुंच गए। यहीं पर दोनों पक्षों में जमकर संघर्ष हुआ। महाराणा संग्राम सिंह ने शत्रु सेना को बड़ी क्षति पहुंचाई और अंत में विजय श्री भी उन्हीं को प्राप्त हुई। इसमें सुल्तान गंभीर रूप से घायल हो गया था । उसके पुत्र आसफ खान को भी इस युद्ध में दोजख की आग का मुंह देखना पड़ा था। सर्वत्र महाराणा संग्राम सिंह की जय जय कार हो रही थी। उन्होंने सुल्तान को कैद करवा लिया था। इसके पश्चात सुल्तान को वह अपने साथ चित्तौड़ ले गए। वहीं पर उसे तीन महीने तक कैद में रखा गया। 

महाराणा की नीतिगत फूल

कैद में पड़े अपने उस कैदी सुल्तान को किसी बात पर प्रसन्न होकर एक दिन महाराणा संग्राम सिंह ने गुलदस्ता भेंट किया। तब सुल्तान ने उस गुलदस्ते को लेने से पहले महाराणा से कहा कि गुलदस्ता दो तरीके से दिया जाता है। एक तो देने वाला अपना हाथ ऊंचा करके अपने से छोटे को कोई भेंट या गुलदस्ता प्रदान करे, दूसरे अपना हाथ नीचा करके बड़े को आदर सहित ऐसा गुलदस्ता प्रदान किया जाए। महाराणा ! मैं तो इस समय आप का कैदी हूं। ऐसे में यहां नजर का तो कोई प्रश्न ही नहीं होता और भिखारी की भांति आपके इस गुलदस्ते को लेने के लिए मेरी अंतरात्मा मुझे स्वीकृति प्रदान नहीं करती । सुल्तान की इस बात को सुनकर महाराणा संग्राम सिंह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गुलदस्ते के साथ साथ सुल्तान को मालवा का आधा राज्य भी सौंप दिया। हमारा मानना है कि महाराणा संग्राम सिंह की है एक नीतिगत भूल थी। व्यक्तिगत जीवन में इस प्रकार की उदारता को अपनाया जा सकता है परंतु जब राष्ट्र के लिए काम किया जा रहा हो तो उस समय इस प्रकार की उदारता अक्सर रास्ते का रोड़ा बन जाया करती है।
हमारे इतिहास में ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब महाराणा संग्राम सिंह जैसे इतिहासनायकों ने ऐसी उदारता के फेर में पड़कर अपने लिए ही कांटे बो लिए थे। राष्ट्र के लिए समर्पित होकर काम करने वाले महाराणा संग्राम सिंह को उस समय भावनाओं को नियंत्रित रखना चाहिए था। राजनीति और कूटनीति में मानवतावाद चलता है ,परंतु उसकी अपनी सीमाएं हैं। राष्ट्र के लिए कूटनीति के दांवपेंच कभी कभी भावनात्मक भी हो सकते हैं। जिन्हें दूसरा आप पर एक मोहरे के रूप में फेंक सकता है और यदि आप उसमें उलझ गए तो समझो कि आप अपना दांव हार गए। राजनीति और कूटनीति बड़ी निर्मम होती है। उसमें एक बार हारा हुआ व्यक्ति फिर इतने गहरे दबा दिया जाता है कि उसका निकल कर फिर बाहर आना कठिन हो जाता है।
महाराणा संग्राम सिंह की उपरोक्त उदारता का मुस्लिम इतिहासकारों ने जहां जमकर गुणगान किया है और उसके व्यक्तित्व की प्रशंसा की है, वहीं यह भी सत्य है कि उनका यह निर्णय राज्य के हित में उचित नहीं रहा था। कहा यह भी जाता है कि अपने इस निर्णय को मजबूती देने के लिए महाराणा संग्राम सिंह ने सुल्तान के एक शहजादे को अपने यहां पर जमानत के रूप में रख लिया था। इसके उपरांत भी महाराणा का यह निर्णय उचित नहीं माना जा सकता।

महाराणा संग्राम सिंह का राज्य विस्तार

राणा संग्राम सिंह का राज्य भोपाल, मालवा ,छत्तीसगढ़ तक फैल गया था। यह उस समय के बहुत बड़े साम्राज्य का प्रतीक है। जिस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। इससे भी छोटे क्षेत्र पर शासन करने वाले बाबर और हुमायूं तो इस देश के बादशाह हो गए ,जबकि हिंदू शक्ति को सुदृढ़ करने वाला महाराणा इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया। एक विदेशी आक्रमणकारी बाबर के साथ महाराणा की बेतुकी तुलना करते हुए इतिहासकार लिखता है कि "बादशाह बाबर और राणा सांगा दोनों समकालीन थे। दोनों शक्तियों का एक साथ विकास हुआ था और दोनों की बहुत सी बातें एक दूसरे से समानता रखती थीं। दोनों ने युग के एक ही भाग में जन्म लिया था और दोनों ही प्रसिद्ध राजवंशज थे। जीवन के प्रारंभ में बाबर ने भयानक कठिनाइयों का सामना किया था और राणा सांगा भी राज्य को छोड़कर मारा मारा फिरा था। आरंभ से ही दोनों साहसी और शक्तिशाली थे। काबुल से निकलकर दिल्ली तक बाबर ने विजय प्राप्त की थी और सांगा ने भारत के शक्तिशाली राजाओं को पराजित किया था। दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर बाबर ने समझा था कि भारत में मुझसे लड़ने वाला अब कोई राजा और बादशाह नहीं है पर चित्तौड़ राज्य में अपनी ऊंची पताका फहरा कर सांगा बाबर का उपहास कर रहा था। वास्तव में दोनों ही अपने समय के अद्भुत साहसी और शक्तिशाली योद्धा थे। दोनों अद्वितीय थे । एक ही देश में शांति और संतोष के साथ दोनों का रह सकना संभव न था। दोनों का युद्ध अनिवार्य था।

( संदर्भ : भारत की प्रसिद्ध लड़ाइयां , पृष्ठ 209)
हमारा मानना है कि राजाओं के लिए उनका व्यक्तिगत चरित्र एक ऐसा पैमाना होता है जिससे उनकी ऊंचाई निचाई नापी जा सकती है। महाराणा संग्राम सिंह जहां अपने चरित्र में बहुत ऊंचाई पर थे , वहीं बाबर का व्यक्तिगत जीवन यदि खोजा जाए तो वह उनके समक्ष कहीं पर भी नहीं टिकता। इसके अतिरिक्त बाबर भारत में अनेक निरपराध लोगों की हत्या का अपराधी भी है। इतिहास के न्यायालय में उस पर एक नहीं अनेक प्रकार के मुकदमे आज भी दर्ज हैं। किसी भी इतिहासकार को इतिहास की अदालत की बिना अनुमति के किसी भी ‘बाबर’ को अपने आप रिहा नहीं करना चाहिए। बाबर कभी भी इस देश के प्रति वफादार नहीं रहा। इस देश के धर्म व संस्कृति के प्रति उसकी सोच कभी भी ईमानदार नहीं रही। उसने यहां के लोगों पर जबरन अपना शासन थोपकर उनकी भावनाओं के विरुद्ध कार्य किया। व्यक्तिगत चरित्र में वह लौंडेबाज था।
इसके विपरीत महाराणा संग्राम सिंह उच्च चरित्र के व्यक्ति थे। उन्होंने इस देश के प्रति और इसके वैदिक सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अपनी भक्ति का अनेक बार परिचय दिया। देश की संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए अनेक प्रकार के बलिदान दिए। यहां के लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए शासन किया और विदेशी आक्रमणकारियों को भारत भूमि से भगाने के लिए जीवन भर संघर्षरत रहे। ऐसे महापुरुष योद्धा को बाबर के साथ बैठाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।

महाराणा की राष्ट्रभक्ति और बाबर

महाराणा संग्राम सिंह और बाबर के संदर्भ में हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि बाबर ने भारत पर आक्रमण करके जिस राज्य की स्थापना की थी ,उसमें भारत के लोगों के धर्म स्थलों को नष्ट करना प्राथमिकता पर था। अपनी इसी प्राथमिकता का परिचय देते हुए उसने अयोध्या स्थित श्री राम जी के मंदिर का विध्वंस किया था। उसने भारत में चोटी – जनेऊ को उतारकर इस्लाम स्वीकार करने की इस्लामिक सुल्तानों और बादशाहों की परंपराओं को और भी मजबूत किया। इसके अतिरिक्त बाबर किसी गौरवपूर्ण राजवंश के मूल से जुड़ा हुआ नहीं था। जितने भर भी इस्लामिक आक्रमणकारी भारत में आए वे सारे के सारे बलात शक्ति अधिग्रहित कर लुटेरे के रूप में आगे बढ़े और लुटेरे से शासक बन गए। लुटेरे से शासक बनने का उनका रूपांतरण भी नाटक मात्र था । उनका मूल चरित्र उन पर आजीवन हावी और प्रभावी रहा। बाबर भी उसका अपवाद नहीं था।
इसके विपरीत महाराणा संग्राम सिंह के वंश की स्थापना करने वाला बप्पा रावल इस्लामिक आक्रमणकारियों की आंधी को रोकने के लिए पैदा हुआ था। जो इस देश की संस्कृति को मिटाने का काम कर रही थी। उसी परंपरा में जन्मे महाराणा संग्राम सिंह का ऐसी आंधियों के प्रतीक बने बाबर जैसे लोगों से छत्तीस का आंकड़ा जन्मना था। ऐसे लोगों से विरोध उसके संस्कारों में था। वह चोटी और जनेऊ का रक्षक था। वह लुटेरा नहीं था अपितु शासक के उन सभी दिव्य गुणों से भरपूर था जो भारतीय आर्ष साहित्य में या ग्रंथों में बताए गए हैं। उसने शक्ति को बलात अधिग्रहित नहीं किया था। इसके विपरीत उसके भीतर अलौकिक दिव्यता थी। जिससे वह भीतर से ऊर्जा से भरा होता था और उस ऊर्जा को सात्विक रूप में प्रयोग कर लोक कल्याण के लिए उसी प्रकार व्यय करता था जैसे कोई दीपक तेल को बाती के माध्यम से ऊपर चढ़ा कर प्रकाश के रूप में परिवर्तित कर जगत में उजाला बिखेर देता है।
अपने इतिहासनायकों को किसी विदेशी आक्रमणकारी के साथ बैठा कर या उससे उसकी तुलना करके हम अपने इतिहास नायकों के साथ तो अन्याय करते ही हैं साथ ही अपनी युवा पीढ़ी के भीतर भी भांति भांति के ऐसे निराशाजनक विचार भर देते हैं जो उसके लिए किसी भी दृष्टिकोण से उपयोगी नहीं हो सकते।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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