बिखरे मोती विशेष: – त्रिगुणातीत से क्या अभिप्राय है ?

त्रिगुणातीत से क्या अभिप्राय है ?

आसक्ति – अहंकार को,
जिसने लिया जीत ।
उद्वेगों से दूर मन,
हो गया त्रिगुणातीत॥

तत्त्वार्थ : – यह दृश्यमान प्रकृति परमपिता परमात्मा की सुन्दरतम रचना है । ‘ प्र ‘ से अभिप्राय प्रमुख, विशिष्ट अर्थात् सुन्दरतम और कृति से अभिप्रया है – रचना यानी की परमपिता परमात्मा की सुन्दरतम रचना यदि आप प्रकृति का तात्त्विक विवेचन करेंगे तो पायेंगे यह दृश्यमान प्रकृति अथवा संसार त्रिगुणात्मक है । जिसमें राज, तम, सत, तीनों गुणों का समावेश है। फलस्वरूप हमारा तन और मन भी त्रिगुणात्मक है, यहां तक की हमारी सोच भी त्रिगुणात्मक है । अन्न, औषधि और पदार्थ इत्यादि भी त्रिगुणात्मक है जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारे सूक्ष्म शरीर मन,बल, बुद्धि, चित,अहंकार अर्थात् अन्तःकरण चतुष्टय पर निरन्तर पढ़ता रहता है जो हमारे कर्माशय और प्रारब्ध पर गहरा प्रभाव छोड़ते है। अब प्रश्न पैदा होता है कि प्रकृति के त्रिगुणात्मक स्वभाव से कैसे त्रिगुणातीत हुआ जाय ? ताकि हमारा कर्माशय अच्छे और प्रारब्ध अति उत्तम बने ।
वस्तुतः प्रलय और मोक्ष में ही त्रिगुणातीत हुआ जा सकता है किन्तु हमारे ऋषियों ने मनीषियों ने योगियों ने इसका निदान बताया है।

1- जब हमारे चित्त में सत्त्व गुण की प्रधानता होती है तो ज्ञान में वृद्धि स्वतः होती है किन्तु साधक को चाहिए कि वह निरन्तर सतर्क रहें और अपने ज्ञान के आगार पर कभी अभिमान न करे जैसे महात्मा गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई किन्तु वे सदा अहंकार शून्य रहे और तप, त्याग, आनन्द और शान्ति की मूर्ति कहलाये ।

2- रजोगुण की प्रधानता से कर्म तो करो क्योंकि रजोगुण से सुख की प्राप्ति होती है किन्तु उसमें फंसो मत जैसे कमल पानी में रहता किन्तु पानी से ऊपर रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि आसक्ति में मत फंसो । निरासक्त रहो,प्राणी मात्र अथवा मानवता के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहो, एक तपस्वी की तरह । इसका उदाहरण इतिहास में मिथिला नरेश महाराजा जनक के जीवन से लीजिए उनका व्यक्तिगत जीवन सरलता, सादगी, श्रम, संयम और विवेक से परिपूर्ण था किन्तु सार्वजनिक जीवन वैभव, ऐश्वर्य और मर्यादा से परिपूर्ण था। वे राजा होते हुए भी ‘ विदेह ‘ कहलाते थे । वे योग और भोग दोनों की मर्यादा जानते थे । वह रागातीत और द्वेषातीत होने में सिद्धहस्त थे, निरासक्त थे, ईश्वर भक्त थे इसलिए वे राजा होते हुए भी योगी कहलाते थे।

3- तमोगुण का कूप इतना गहरा है कि इससे निकलना बड़ा जटिल और दुष्कर है प्रिया साधक या तो इस कूप में गिर जाते हैं अथवा भटक जाते है इस तमोगुण के दानव ने न जाने कितने साधकों को निकला है। फिर भी हमारे मनीषियों ने , योगियों ने,ऋषियों ने तमोगुण को जीतने के के कुछ उपाय बताए हैं जिनका वर्णन हम आगे करेंगे पहले यह जानिये कि तमोगुण की प्रधानता से काम, क्रोध,लोभ, मोह, निज, प्रमाद , आलस्य, लालच, अथवा लोभ, घृणा,राग, द्वेष, मत्तसर, अंहकार इत्यादि मनोविकारों में वृद्धि होती है ।हमारा चित्त स्फटिक की तरह सदैव निर्मल रहे। इसके लिए नित्त निरन्तर यह प्रयास कीजिए कि जो कुटिल विचार अथवा वृत्ति चित्त को मलिन करे और उत्पन्न ही न होने दें और यदि वे चित्त में आ भी जाते हैं तो उनका शोधन ठीक इस प्रकार करें जैसे चने को भून ने के बाद उसके अंकुरण शक्ति समाप्त हो जाती है ऐसे ही योग के द्वारा इनका उन्मूलन करें । इसके अतिरिक्त मन के जितने भी उद्वेग हैं उनको मार्गान्तीकरण करें जैसे – क्रोध को क्षमा में बदले, अहंकार को विनम्रता में बदले, घृणा को प्रेम में बदले, लोभ को परमपिता परमात्मा की भक्ति और संसार की भलाई में बदले, काम को अकाम में बदले,निष्काम में बदले तो काफी हद तक तमोगुण को जीता जा सकता है।
उपरोक्त विशेषण का सारांश यह है कि यदि साधक निरन्तर अभ्यास करें और साधना में लीन रहे तो त्रिगुणातीत की सिद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। पुण्शचय मै यही कहूंगा त्रिगुणातीत पूर्ण रूप से होने तो मोक्ष और प्रलय में ही संभव है किन्तु फिर भी साधक को अपना आत्मावलोकन करते रहना चाहिए और जीवन के इस श्रेय मार्ग पर निरन्तर बढ़ते रहना चाहिए ।
क्रमशः

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