देश में राम मंदिर निर्माण की अनुमति देता है हमारा संविधान

ram mandirराम जन्मभूमि का प्रकरण  माननीय सर्वोच्च न्यायालय लंबित है। इसलिए हम   माननीय न्यायालय की कार्यशैली पर कोई टिप्पणी न करते हुए या इस प्रकरण के समाधान में न्यायिक प्रक्रिया पर कोई प्रश्न न उठाते हुए इस लेख में केवल इतना स्पष्ट करना चाहेंगे,  देश के राजनीतिज्ञों की इच्छाशक्ति और समस्याओं के समाधान के प्रति उनकी लगन काम कर रही होती तो यह समस्या इतने विकराल रूप में   आज हमारे सामने खड़ी न होती। जिस देश में सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्घार हो सकता है उसमें राममंदिर निर्माण भी संभव था, विशेषत: तब जब इसके लिए हमारा संविधान भी हमें अनुमति देता हो।

स्वतंत्रता के बाद से भारत में राजनैतिक उग्रवाद भी कार्यरत रहा है। यह उग्रवाद ‘वोट बैंक’ की राजनीति के लिए राष्ट्र के मूल्यों और मान्यताओं की नृशंसतापूर्वक हत्या करने के रूप में देखा जा सकता है। निस्संदेह इस कार्यवाही को राजनीतिक लोग ही कर रहे हैं इसलिए इसे ‘हमने राजनैतिक उग्रवाद’ का नाम दिया है। इनके अनुचित हस्तक्षेप से न्यायपालिका की कार्यशैली भी प्रभावित हुई है। जिससे न्याय मिलने की प्रक्रिया लंबी हुई है।

राममंदिर के निर्माण हेतु भी हमने ‘राजनैतिक उग्रवाद’ का वितण्डावाद देश में खड़ा होते देखा है। इससे भी दुखद स्थिति यह रही है कि इस प्रकार का वितण्डावाद खड़ा करने वाले लोग कालांतर में स्वयं ही इससे पल्ला झाड़ गये।

संविधान का अनुच्छेद 51 (क) व्यवस्था करता है मूल कत्र्तव्यों की। इनके अधीन भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य होगा कि वह स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।

हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्चादर्शों में से एक उच्चादर्श गांधीजी ने स्वतंत्रता के पश्चात देश में ‘रामराज्य की स्थापना कराना’ बताया था। किसी भी नेता ने हमें उस समय यह नही बताया कि स्वतंत्रता के उपरांत देश में लोकतंत्र की स्थापना की जाएगी। गांधीजी ने अपने सभी अनुयायियों को  ‘रामराज्य का सपना’ दिखाया था। देश को स्वाधीनता मिलने पर देश की बागडोर भी गांधी जी के अनुयायियों के हाथों में आयी।

हम भारतीयों को रामराज्य की स्थापना करने के स्वतंत्रता आंदोलन के उच्चादर्श को हृदय में संजोने तक ही सीमित नही रहना चाहिए। हमें उसका पालन भी करना है। इसलिए हमें ‘रामराज्य की स्थापना’ के लिए प्रयासरत भी रहना है, और यह भी संभव है कि मर्यादा पुरूषोत्तम का भव्य मंदिर उनके जन्मस्थान पर बने। संविधान के अनुच्छेद 51 (क) के उक्त उपखण्ड की धारणा तभी फलीभूत होगी कि जब अयोध्या में राम मंदिर बने। संविधान की इस पर सहमति है।

ऐतिहासिक अनुसंधान से उद्भूत तथ्यों को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अस्वीकार करने की अनुमति भी संविधान नही देता। धर्म निरपेक्षता के नाम पर न्यायालय में ऐसे तथ्यों को हम नकार देंगे। ऐसा भी कोई प्राविधान संविधान में नही है। अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिबंध करता है। आप ‘हिन्दू’ हैं तो आपका यह हिंदू होना राजनीतिज्ञों की दृष्टि में अपराध हो सकता है, वो ये शोर मचा सकते हैं कि पंथ निरपेक्षता के नाम पर हिन्दू को यह अधिकार नही कि वह अपनी संस्कृति के आप्त पुरूष की जन्मस्थली पर अतीत में रहे मंदिर के संबंध में साक्ष्य एकत्र कर न्यायालय में दे, किंतु संविधान और न्यायालय या न्यायिक प्रक्रिया आप पर ऐसा प्रतिबंध नही लगाते। विधि का समान संरक्षण सबको प्राप्त होगा।

‘राजनैतिक उग्रवाद’ के चलते हमारे राजनीतिज्ञ अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। वह पंथ के विषय में तटस्थ न रहकर ‘सापेक्ष’ हो जाते हैं। साथ ही एक पंथ (हिंदू)  के प्रति शत्रुभाव का प्रदर्शन करते से दीखते हैं। उनका यह आचरण पंथ निरपेक्षता की मूल भावना के विरूद्घ है। साथ ही असंवैधानिक भी है। क्योंकि संविधान इस प्रकार के शत्रुभाव प्रदर्शन की अनुमति नही देता। तथाकथित धर्मनिरपेक्षियों के हिंदू के प्रति इस शत्रुभाव प्रदर्शन के कारण राजनीति को बजरंग दल, शिवसेना, हिन्दू महासभा आदि के द्वारा हिंदूवादी राजनीति की ओर ले जाने की बातें की जाती हैं। जिसे वह हिंदूवादी उग्रवाद की संज्ञा देते हैं, अस्तु।

यदि आपके पास साक्ष्य है, इतिहास आपके साथ है तो स्मरण रहे कि राम मंदिर निर्माण के विषय में संविधान भी आपके साथ है। आपको भी धार्मिक स्वतंत्रता उतनी ही प्राप्त है जितनी कि किसी अन्य भारतीय नागरिक को। राजनैतिक उग्रवाद के व्यामोह से ऊपर उठकर देखिए आपको इस संविधान की सीमाओं में ही राममंदिर का निर्माण होता दीख जाएगा। स्मरण रहे सोमनाथ मंदिर के उद्घार के समय भी यही संविधान था। उस समय भी इसने सांस्कृतिक उत्थान के प्रतीक उस मंदिर के पुनर्निमाण पर अपनी सहमति व्यक्त की थी, और भविष्य में राममंदिर के निर्माण पर करेगा यह हमें विश्वास है।

न्यायालय इस्लाम की इस  मान्यता से सहमत है कि मस्जिद में ‘खुदा’ की प्राणप्रतिष्ठा नही होती। इसलिए न्यायालय का स्पष्ट मानना है कि कोई भी मस्जिद धर्मस्थल नही होती। पाकिस्तान तक में मस्जिदों को सडक़ आदि के मध्य में आने पर हटा दिया जाता है। मंदिर की मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा होने से (पौराणिक मान्यता के अनुसार)  उसे न्यायालय ने धर्मस्थल माना है। इसलिए रामजन्म-स्थल जहां कभी मंदिर रहा है, एक धर्मस्थल है।

हमारी मान्यता है कि इस प्रकरण पर राजनीति यदि आज भी शांत हो जाए, तो माननीय न्यायालय को अपना कार्य करने में सुविधा हो सकती है। रामराज्य की स्थापना करना हमारा स्वतंत्रता संघर्ष के काल का आदर्श रहा है, जिसे हमें स्थापित करने के लिए किसी ऐसे सर्वसम्मत समाधान पर अब से बहुत पहले पहुंच जाना चाहिए था। जो देश की सामासिक संस्कृति को विकसित करने और भारत को ‘विश्वगुरू’ बनाने में सहायक होता।

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