मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के विवादित बयान और देश की राजनीति

 अजय कुमार

इस्लामिक विद्वान मौलाना सज्जाद नोमानी भी बोर्ड के महासचिव के बयान से असहमत हैं। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि जबसे केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, तबसे देश की धर्मनिरपेक्षता और संप्रभुता को खोखला करने का प्रयास किया जा रहा है।

केन्द्र में मोदी और यूपी में योगी सरकार का होना चंद लोगों को रास नहीं आता है। इसमें नेता से लेकर कथित इतिहासकार, बुद्धिजीवी, समाजसेवी, लेखक, कलाकार, धर्मगुरुओं सहित तमाम जानी-अनजानी  हस्तियां शामिल हैं। यह वह शख्सियते हैं जो लोकतंत्र की बात तो करती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार के खिलाफ कुचक्र और साजिश भी रचती रहती हैं। यहां तक कि अदालतों के फैसलों पर भी उंगली उठाती रहती हैं। यह फिरकापरस्त ताकतें वर्षों से अपनी मनमानी कर रही हैं, इन्हीं ताकतों के चलते देश में तमाम समाज सुधार के कार्य अधर में लटके हुए थे। यह वह ताकतें हैं जिनके सामने अक्सर कई राज्यों की ही नहीं देश की सरकारों को भी नतमस्तक होते देखा जा चुका है।

अपनी सियासत चमकाने के लिए नेता जिनकी चौखट पर नाक रगड़ते नजर आते थे। तुष्टिकरण जिनकी रग-रग में बसा था। यह इतने ताकतवर लोग हुआ करते थे कि इनकी जिद्द के चलते कई कानून दशकों तक ठंडे बस्ते में पड़े रहे। कौन भूल सकता है कि राजीव गांधी सरकार ने ऐसे ही कठमुल्लाओं के दबाव में आकर एक मुस्लिम महिला शाहबानो को उसके पति से गुजारा भत्ता दिलाए जाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कानून बनाकर पलट दिया था। इन्हीं कट्टरपंथियों के चलते देश में समान नागरिक संहिता और परिवार नियंत्रण कार्यक्रम अमली जामा नहीं पहन सका है। यह लोग अयोध्या पर कोर्ट के फैसले पर उंगली उठाते हैं तो हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसले पर भी सियासी रंग चढ़ा देते हैं। यही लोग सीएए और एनआरसी के खिलाफ लोगों को बरगलाते हैं। हाल ही में हिजाब को लेकर बवाल भी ऐसी सोच वालों की ही देन थी। केन्द्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद एक नया ट्रैंड बन गया है, बार-बार मुसलमानों के मन में भय पैदा किया जाता है कि मोदी-योगी राज में मुसलमानों पर बेहद अत्याचार हो रहा है। दुख तो तब होता है जब उप-राष्ट्रपति रह चुके हामिद अंसारी जैसे लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तान मुलसमानों के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है।
खैर, देश में बीजेपी का प्रभाव बढ़ने के बाद वह दौर थम-सा गया है, लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड (एआइएमपीएलबी) जैसी संस्थाओं के रहनुमा अभी भी बदलने को तैयार नजर नहीं आ रहे हैं। इसी लिए तो पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी यह कहने की हिमाकत करने से बाज नहीं आते हैं कि देश के मुसलमान अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के मामले में वर्ष 1857 और 1947 से भी ज्यादा मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। उन्होंने मुसलमानों, खासकर मुस्लिम महिलाओं से गुजारिश की है कि वे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के खिलाफ किए जा रहे दुष्प्रचार के प्रभाव में न आएं। मौलाना रहमानी ने अपने फेसबुक पेज पर वीडियो संदेश जारी कर आरोप लगाया है कि फिरकापरस्त ताकतें चाहती हैं कि हमें बरगलाएं, उकसाएं और हमारे नौजवानों को सड़क पर ले आएं। ऐसे ही मामलों में एक हिजाब का मसला भी है जो अभी कर्नाटक में मुसलमानों के लिए एक बड़ी आजमाइश का सबब बना हुआ है।
बहरहाल, अच्छी बात यह है कि रहमानी के बयान को मुस्लिम विद्वानों ने ही खारिज कर दिया है। उनका मानना है कि यह मुस्लिमों को मुख्य धारा से अलग करने की साजिश है। हमारा देश संविधान से चलता है, किसी को कोई दिक्कत है तो वह न्यायालय की शरण में जा सकता है। भाजपा ने भी इसे दुष्प्रचार बताया है। रहमानी ने कहा था कि देश में मुसलमानों के लिए 1857 व 1947 से भी मुश्किल हालात हैं। रहमानी के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इस्लामिक विद्वान मौलाना सलमान हुसैनी नदवी ने कहा कि 1857 और 1947 की परिस्थितियां बिल्कुल अलग थीं। आज देश संविधान से चल रहा है, कोर्ट और कानून अपना काम कर रहे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव का बयान पूरी तरह गलत है। कुछ लोग अपने खास एजेंडे पर काम कर रहे हैं। यदि कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसके लिए देश में न्यायालय हैं।

उधर, इस्लामिक विद्वान मौलाना सज्जाद नोमानी भी बोर्ड के महासचिव के बयान से असहमत हैं। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि जबसे केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, तबसे देश की धर्मनिरपेक्षता और संप्रभुता को खोखला करने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद के अध्यक्ष डॉ. इफ्तिखार अहमद जावेद कहते हैं कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड देश के चंद लोगों द्वारा बनाया हुआ एक गिरोह है। इस बोर्ड का मकसद मुसलमानों को भड़काना, उलझाना व उन्हें हाशिये पर धकेलना है। बोर्ड खासकर पिछड़े मुसलमानों व महिलाओं को मुख्यधारा से अलग-थलग करने की एक सुनियोजित साजिश रच रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य हज समिति के चेयरमैन मोहसिन रजा कहते हैं कि कि आज आम मुसलमानों के हालात तो बेहतर हुए हैं, किंतु उनके ठेकेदारों के जरूर खराब हुए हैं। उन्होंने कहा कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का असली नाम ऑल इंडिया मुल्ला पर्सनल लॉ बोर्ड रख देना चाहिए। मोहसिन रजा ने कहा कि भाजपा सरकार में मुसलमानों के ठेकेदारों की दुकानें बंद हो गईं हैं, इसलिए वे इस तरह की बातें कर रहे हैं।
बात ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कि जाए तो इस बोर्ड की स्थापना ही सियासी तौर पर हुई थी। जब 1973 में बोर्ड का गठन हुआ तब केन्द्र में इंदिरा सरकार थी, जिनकी नजर मुसलमानों के एकमुश्त वोटों पर थीं। इसी वजह से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अस्तित्व में आया था। पर्सलन लॉ बोर्ड वैसे तो एक गैर-सरकारी संगठन है, जो भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा और निरंतर प्रयोज्यता को अपनाने के लिए बनाया गया है, लेकिन बोर्ड में मौजूद लोग सियासत करने में कभी पीछे नहीं रहते हैं। यह और बात है कि बोर्ड भारत में मुस्लिम मत के अग्रणी निकाय के रूप में खुद को प्रस्तुत करता है, जिसकी एक भूमिका है, लेकिन पर्सनल लॉ बोर्ड की सियासत में दखलंदाजी के चलते आलोचना भी होती रही है। वैसे बोर्ड में अधिकांश मुस्लिम संप्रदायों का प्रतिनिधित्व किया जाता है और इसके सदस्यों में भारतीय मुस्लिम समाज के प्रमुख वर्गों जैसे धार्मिक नेता, विद्वान, वकील, राजनेता और अन्य पेशेवर शामिल हैं। हालांकि, ताहिर महमूद जैसे मुस्लिम विद्वानों, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान जैसे राजनेताओं और न्यायविद् मार्कंडेय काटजू (सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश) जैसे तमाम लोग समय-समय पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को समाप्त करने की वकालत भी करते रहे हैं।

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