उलुध खां को यदुवंशी मेवों और हिन्दू वीर गक्खरों ने चबाए थे नाकों चने

जो जातियां विदेशी आक्रांताओं को लूट-पीटकर जंगलों में छिप जाती थीं, या जंगलों की ओर भाग जाती थीं, उसे विदेशी (वास्तविक लुटेरों) ने ‘लुटेरी जाति’ कहकर संबोधित किया और उसे ऐसा ही इतिहास में प्रसिद्घ किया।

flag copy1936 ई. में वर्तमान भारत को उसके अतीत से काटने के लिए एक ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ नामक संगठन ने निश्चय किया कि जैसे भी हो भारत को उसके अतीत का दिग्दर्शन न होने दिया जाए। तब इस संघ ने अपना घोषणा पत्र निम्न शब्दों में निर्धारित किया था-

‘हिन्दुस्तानी साहित्यकारों का कत्र्तव्य है, कि वे यहां के जीवन में होने वाले परिवर्तनों की अभिव्यक्ति करते हुए, साहित्य में वैज्ञानिक यथार्थवाद को आगे बढ़ाएं और ऐसी आलोचना को रीतिबद्घ करें, जिससे परिवार, धर्म, रंग, समाज और जाति (स्त्री-पुरूष) के बारे में (व्यक्त किये गये) भूतकाल के सभी (गौरवपूर्ण) विचारों को रोका जा सके। साम्प्रदायिकता, नस्लवादी पूर्वाग्रह और मानवीय शोषण को जारी रखने वाले मूल्य नकार दिये जाएं, क्योंकि हम साहित्य को जनता केे निकट लाना चाहते हैं।’’ प्रगतिशील लेखक संघ ने साम्यवादी दृष्टिकोण को भारत में फेेलाने का बीड़ा उठाया और कार्लमाक्र्स के ‘समाजवाद’ को देश में सारी समस्याओं के एकमात्र समाधान के रूप में प्रचारित एवं प्रसारित किया। इसके मुखिया के रूप में सैय्यद सज्जाद जहीर ने उस समय अच्छी प्रसिद्घि प्राप्त की थी। जब देश स्वतंत्र हुआ तो देश के इतिहास का साम्यवादीकरण करने की दिशा में जो कार्य किये गये, उसमें इस ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ जैसी मान्यताओं वाले लोगों का विशेष योगदान रहा। फलस्वरूप इतिहास की गंगा जो पूर्व से ही पर्याप्त प्रदूषित थी और भी अधिक प्रदूषित कर दी गयी। इसी प्रदूषित गंगा में पड़े ‘गंदे नालों’ के पानी को पीने के लिए हम आज तक अभिशप्त हैं। यही कारण है कि हमें अपने महान स्वतंत्रता सैनानियों के महान और देशभक्ति पूर्ण कार्यों से परिचित नही कराया जाता। इसी तथाकथित उपेक्षा भाव और प्रगतिशीलता के बोझ में हमारे कितने ही ‘वाग्भट’ और ‘नाहरदेव’ दबकर रह गये। इसी बोझ में रणथम्भौर की वीरता और पृथ्वीराज चौहान के वंशजों की देशभक्ति दबकर रह गयी। हम आज खण्डहरों में से हीरे खोज रहे हैं तो कई लोग होंगे जो हमारे सच्चे हीरों को भी पत्थर मानकर फेंकने का परामर्श लोगों को देंगे। ऐसे लोगों के लिए प्रगतिशीलता का अभिप्राय भी यही है कि हीरों को फेंको और पत्थर से काम चलाओ। नही तो पत्थर खाने को तैयार रहो।

जिस प्रकार रणथम्भौर की वीरता को इतिहास से मिटाया गया है, उसी प्रकार मेवाड़ के गौरवपूर्ण इतिहास और उसकी गौरवमयी परपंपराओं को भी मिटाने का प्रयास किया गया। जब दिल्ली का सुल्तान इल्तुतमिश था तो उसने भी मेवाड़ को अपने पैरों तले लाने का प्रयास किया था। परंतु मेवाड़ को अपने प्राचीन गौरवपूर्ण इतिहास का सदा ध्यान रहा है, इसलिए मेवाड़ को प्राप्त करने के इल्तुतमिश के दोनों बार के प्रयास मेवाड़ अधिपतियों और मेवाड़ की वीर जनता ने असफल कर दिये थे।

(संदर्भ रैवर्टी खण्ड-2 पृष्ठ 728)

मेवाड़ और बूंदी बने रहे स्वतंत्र

हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि उलुग खां को जब रणथम्भौर के रणबांकुरे हिंदू वीर बार-बार अपमान जनक पराजय का घूंट पीने के लिए विवश कर रहे थे, तो उसने मेवाड़ और बूंदी का अपना विजय अभियान स्थगित कर दिया था। दूसरे शब्दों में कहें तो उसका साहस टूट गया था, और अब वह आगे बढऩा नही चाहता था। यह बहुत ही बड़ी बात है कि दिल्ली पर शासन कर रहे गुलाम वंश को जब 50 वर्ष शासन करते हो गये थे, उस समय तक भी मेवाड़ या बूंदी को प्राप्त करने का उनका अभियान केवल इसलिए बाधित हो गया कि जब रणथम्भौर के मुट्ठी भर वीर हिंदू पराजित नही हो पा रहे हैं, तो मेवाड़ और बूंदी में भी सफलता मिलना संदिग्ध है।

इतिहास समसामयिक घटनाओं को जब इस प्रकार गूंथ कर प्रस्तुत करता है कि उस समय की एक घटना का फलितार्थ क्या-क्या निकला, तो इतिहास रोचक बन जाता है। अब यदि रणथम्भौर को यूं देखकर समझा जाए कि उसकी वीरता के सामने घुटने टेके खड़े उलुघ खान का साहस मेवाड़ और बूंदी की ओर बढऩे से इनकार करने लगा था, तो जहां इतिहास रोचक बनता जाएगा, वहीं यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि रणथम्भौर के बलिदानों ने मेवाड़ और बूंदी के कितने ही निरपराधों को मृत्यु की गोद में जाने से बचा लिया।

मेवों ने चबाये नाकों चने

उत्तर प्रदेश के मथुरा, हरियाणा के गुडग़ांव, फरीदाबाद और राजस्थान के भरतपुर और अलवर जिलों में मेव जाति मिलती है। आज इनमें से अधिकांश लोग मुसलमान बन गये हैं। इतिहास का जब सम्यक बोध नही रह पाता है तो लोग कभी कभी अपने मूल पर ही कुठाराघात करने लगते हैं। जब मेवात  के मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं के साथ किये जाने वाले अत्याचारों के समाचार आजकल सुनने या पढऩे को मिलते हैं तो कष्ट होता है, और मन में विचार आता है कि इन मेव मुसलमानों को काश अपने इतिहास का सम्यक बोध होता?

वस्तुत: मेव जाति यदुवंशी होने का गर्व रखती रही है। यदुवंशी होने के नाते हिंदूरक्षक होना इसका स्वभाव था। इसलिए (आर.डी.जी. अलवर के द्वारा) हमें ज्ञात होता है कि ये मेव जाति स्वभाव से बहुत ही उपद्रवी अर्थात हिंदू हितों के विपरीत कार्य करने वालों को सहन न करने वाली रही है, इस वीर हिंदू रक्षक जाति ने कई सौ वर्षों तक (फिरोज तुगलक के शासन काल तक जब तक कि ये मुसलमान न बन गये) हिंदू हितों की रक्षा की। ये मेव लोग एक प्रकार के गुरिल्ला युद्घ में सिद्घहस्त थे, और मुस्लिमों पर भी आक्रमण करके लूटमार कर लिया करते थे।

वीर सेनानी मल्का

1257 ई. की घटना है। मंगोलों ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण कर दिया था। जिससे भारत के तुर्क सुल्तानों के लिए भी एक कठिन समस्या आ उपस्थित हुई थी। इस अवस्था का लाभ मेवों ने उठाया। उन लोगों ने अपने मल्का नाम के सरदार के नेतृत्व में एकत्र होना आरंभ किया। उन्हें ज्ञात था कि मुस्लिम तुर्क सेना अपना  प्रस्थान मार्ग कौन सा निश्चित करेगी? इसलिए यह उसी रास्ते पर घात लगाकर तुर्क सेना के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। तुर्क सेना हांसी की ओर आगे बढ़ी, और बढ़ती हुई सेना को इसी मार्ग में इन मेवों ने लूट लिया। तुर्क सेना हतप्रभ होकर रह गयी।

मेव लुटेरे नही अपितु हिंदू राष्ट्र भक्त थे

जो जातियां विदेशी आक्रांताओं को लूट-पीटकर जंगलों में छिप जाती थीं, या जंगलों की ओर भाग जाती थीं, उसे विदेशी (वास्तविक लुटेरों) ने ‘लुटेरी जाति’ कहकर संबोधित किया और उसे ऐसा ही इतिहास में प्रसिद्घ किया। कुछ देर तक सुनते-सुनाते या पढ़ते-पढ़ाते रहने पर हमने भी विदेशी लुटेरे शासकों का अनुकरण किया और अपने ही देश भक्त भाईयों को लुटेरा ही मान लिया।

जहां तक इन मेवों के लुटेरा होने का प्रश्न है तो इस जाति के विषय में ऐसा कहना सर्वथा एक भ्रांति है। वास्तव में मध्यकालीन इतिहास में हमारे समाज के लोगों ने विदेशी आक्रांताओं को भांति-भांति से कष्ट पहुंचाने का निर्णय ले लिया था। इस निर्णय में एक निर्णय ये भी था कि जो जातियां विदेशी आक्रांताओं की सेना को लूट सकती हैं, वो लूटने के लिए भी स्वतंत्र हैं। क्योंकि लोगों ने ये मान लिया था कि जो स्वयं लूट मचा रहे हैं, उनसे अपने ही धन को छीन लेना हमारा पवित्र कत्र्तव्य है, और साथ ही राष्ट्र सेवा का एक प्रकार भी है। ‘सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध’ के लेखक हमें उक्त पुस्तक के पृष्ठ 191 पर बताते हैं कि-‘‘इन मेवों ने भूतों के समान झपटकर ऊंटों एवं दासों को छीन लिया और उन्हें कोहपाया से लेकर रतनपुर रणथम्भौर तक के हिंदुओं में बांट दिया।’’

इस शब्दावली से स्पष्ट है कि मेवों ने मुस्लिम सेना से प्राप्त धन को अपने निजी प्रयोग में नही लिया, अपितु उसे राष्ट्र की संपदा मानकर राष्ट्र को ही सौंप दिया। अब जो लोग मेवों को लुटेरा मानते हैं, या इतिहास में इसी रूप में स्थापित करते हैं, तनिक वे लोग विचार करें कि क्या किसी लुटेरे का इतना विशाल हृदय होता है कि वह लूट के धन को सब में वितरित कर दे? लूटना एक छोटा कार्य है, इसलिए लूट के विचार से छोटी मानसिकता का निर्माण होता है, जबकि लूट को सबमें बांटना एक विशाल हृदयता का लक्षण है। काश! आज के मेवाती मुसलमानों को उनके इस गौरवमयी इतिहास का ज्ञान कराया जाता  तो कितना उचित होता। उन्हें ये अनुभूति होनी चाहिए कि इस देश की माटी को उन्होंने चंदन माना है, और इसके लिए लंबे काल तक अपने बलिदान दिये हैं?

बलबन ने लिया प्रतिशोध

मेवों के उपरोक्त देशभक्ति पूर्ण कार्य का प्रतिशोध लेने के लिए त्वरित आधार पर दण्डात्मक कार्यवाही करना तत्काल तो संभव नही हो पाया। परंतु उनके विरूद्घ दण्डात्मक कार्यवाही करने का मन उलुग खां (बलबन) ने बना लिया था। वह अपने लक्ष्य को साधने के लिए उचित अवसर की खोज में था। 1260 ई. में उसे जैसे ही अन्य राज्य कार्यों से मुक्ति मिली तो उसने तुरंत मेवात लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित कर दिया। हिंदू राष्ट्र भक्त मेवों को मिटाने के लिए बलबन 10000 की विशाल सेना लेकर मेवात की ओर आगे बढ़ा।

हमें (रैवर्टी खण्ड 1 पृष्ठ 715) ज्ञात होता है कि बलबन की सेना में दस हजार सवारों के साथ तीन हजार दुर्धर्ष अफगान सवार व प्यादे थे, बड़ी तीव्र गति से उसने मेवात निवासियों पर आक्रमण किया और बीस दिन निरंतर ऊबड़ खाबड़ प्रदेशों में वह मेवातियों का विनाश करता रहा। बलबन ने किसी जीवित मेवाती को पकडक़र लाने वाले को पुरस्कार देने की भी घोषणा कर दी थी। मिनहाज हमें बताता है कि अफगान सैनिकों की ओर से अपने सेनापति को 100-100 मेवाती जीवित पकडक़र लाकर दिये गये थे।

बलबन की सेना में इन अफगान सैनिकों की संख्या लगभग तीन हजार थी। मेवातियों के वीर सरदार मल्का को भी बंदी बना लिया गया। उसके साथ 250 अन्य सहयोगी साथी भी थे। यहां से बलबन को 142 घोड़े हाथ लगे। उसने मेवातियों पर अमानवीय अत्याचार किये थे।  हौजरानी के निकट मेवातियों को हाथी के पांवों तले कुचलवाया था, जबकि कुछ को काटकर उनकी खाल में भूसा भरवा दिया था।

अपनी देशभक्ति का इतना क्रूर उपहार पाकर भी मेवातियों की देशभक्ति हिली नही। वह निरंतर देश के प्रति वफादार बने रहे।

शक्ति की कठोरता से कभी किसी का हृदय परिवर्तन हो भी नही सकता। अत: जैसा कि हमें बरनी बताता है कि बलबन के इस निर्दयता पूर्ण दमन के उपरांत भी मेव लोग शांत नही बैठे। इस कार्यवाही के कुछ काल उपरांत ही बलबन के शासन के आरंभ होते ही इन लोगों ने दिल्ली तक धावा मारना आरंभ कर दिया था।

इसे कहते हैं देशभक्ति और इसे ही कहते हैं वीरता। क्योंकि इस देशभक्ति और वीरता पर जितना ही अधिक कुठाराघात होता था इन की धार उतनी ही पैनी होती जाती थी। इन विदेशी आक्रांता शासकों की अमानवीय नीतियों को चाहे कोई कितना ही प्रशंसनीय माने पर हमें उनका कोई भी ऐसा तर्क स्वीकार्य नही है। हम हिंदू प्रतिरोध को तो उचित मानते हैं, पर उनके प्रतिरोध पर इस्लामिक  प्रतिशोध को उचित नही मान सकते। क्योंकि अनुचित (किसी की स्वतंत्रता का अपहरण) कार्य का विरोध करना तो उचित है, पर तब कोई अपनी निजता की रक्षार्थ प्रतिरोध करता है, तो उसके प्रति आक्रांता का पाशविक हो उठना सर्वथा अनीति और अधर्म का परिचायक है। इस अनीति और अधर्म के मूल में इन सभी मुस्लिम आक्रांताओं का ‘हिंदुत्व विरोध’ प्रमुख कारण था।

बलबन की प्रतिज्ञा

शाहिद रहीम साहब अपनी पुस्तक ‘संस्कृति और संक्रमण’ के पृष्ठ 252 पर लिखते हैं :-

‘दरअसल हिंदुत्व को समाप्त करने की राजनीतिक कोशिश 1236 ई. में ही शुरू हो गयी थी, जब अल्तमश की बेटी रजिया सुल्तान तुर्क सेनानायक अल्तूनिया के महिला विरोध से तंग आकर एक सराय में जा छिपी और वहीं गिर गयी। अल्तमश का बेटा नासिरूद्दीन अय्याश और शराबखोर था,…….1266 ई. में नासिर का सलाहकार गियासुद्दीन बलबन सिंहासन पर बैठा। 1287 ई. तक उसने 22 वर्ष हुकूमत की। उसने घोषणा की थी-‘‘खुदा की अनुपम देन बादशाहत के प्रति वह अपना धर्म समझते हुए कत्र्तव्य पालन करता है, जो अपना वैभव, ऐश्वर्य, प्रताप, सेना कर्मचारी और राजकोश सहित सभी संपत्ति वगैरह, जो कुछ खुदा ने उसे दिया है, सब काफिरों, मुशरिकों और बुत परस्तों के विनाश में लगा सके। मजहब-ए-इस्लाम के विरोधियों का विनाश कर सके। अगर यह मुमकिन ना हो तो खुदा और पैगम्बर के शत्रुओं को अपमानित कर यातनाएं दे, उनकी निजी आस्था और उनके स्वाभिमान का अंत कर और अपने राज्य की परिधि में उनकी सुख  संपन्नता उनके मान तथा पदों का नामोनिशान न रहने दे।’’

वास्तव में यह सोच थी, जो बलबन को मेवों के समूलोच्छेदन के लिए प्रेरित कर रही थी।

वीर हिन्दू गक्खरों के सामने से भागना पड़ा था उलुघ खां को

नासिरूद्दीन को अपने शासन काल के प्रारम्भिक दिनों में सिंध के लिए अपनी सेना सहित प्रस्थान करना पड़ा था। क्योंकि वहां मुगल लोग समूह के रूप में आतंक मचा रहे थे। अत: उनका दमन किया जाना  आवश्यक हो गया था। परंतु वहां जाने पर सुल्तान की सेना विद्रोह या आतंकी मुगलों का सामना करने के स्थान पर हिंदू गक्खरों को लूटने लगी। इसके दो कारण हो सकते हैं प्रथम तो ये कि सुल् तान की सेना मुगलों का सामना करने का साहस खो बैठी, या वह मुसलमानों से भिडऩे के स्थान पर हिंदू गक्खरों का विनाश करना अधिक श्रेयस्कर मान रही थी।

समकालीन लेखकों ने इस हिंदू गक्खर समुदाय को विद्रोही लिखा है। अत: बहुत संभव है कि ये जाति यहां पर अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही हो। इसलिए उलुघ खां  ने इन हिन्दू स्वतंत्रता सेनानियों का विनाश करना अनिवार्य माना हो।

हिंदू गक्खरों के स्वतंत्रता आंदोलन का दमन करने के संबंध में मिनहाज हमें बताता है कि अन्नआदि वस्तुओं के अभाव के कारण उन्हें (उलुघ खां और उसकी सेना को) वापस लौटना पड़ा।’’

इस लेखक के इस वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि गक्खरों ने भी उलुघ खां और उसकी सेना का डटकर प्रतिरोध किया और शत्रु सेना को अन्न आदि के लिए सब ओर से घेर कर प्रतिबंधित कर दिया था। तब उलुघ खां को प्राण बचाकर भाग जाना ही उचित लगा।

गक्खरों की वीरता और उनके अदम्य साहस की किसी मुस्लिम लेखक ने ना तो प्रशंसा की है और ना ही उनकी युद्घनीति पर प्रकाश डाला है। पर यह सच है कि उन्होंने पर्याप्त संख्या में जनहानि को झेलकर भी शत्रु सेना को रण छोडक़र भागने के लिए विवश अवश्य कर दिया था। उलुघ खां को युद्घ क्षेत्र छोडऩा पड़ा और वह भागकर सुल्तान नासिरूद्दीन के शिविर पर लौट आया। यहां से वे दोनों दिल्ली  की ओर चल दिये।

उद्देश्यहीन हो लौट गया सुल्तान

इस प्रकार मुगलों के जिस दमन के लिए सुल्तान और उसकी सेना निकली थी ना तो अपने उस लक्ष्य ही उन्हें सफलता मिली और ना ही हिंदू गक्खरों को पर्याप्त संख्या में मार काटने के उपरांत भी उन्हें परास्त  किया जा सकता। इसके विपरीत यह कलंक और लग गया कि हिन्दू वीर गक्खरों के सामने से उन्हें भागना पड़ा। जब उलुघ खां और सुल्तान अपनी सेना सहित दिल्ली लौट रहे थे, तो मार्ग में जालंधर पहुंचने पर उन्होंने पहाडिय़ों के मध्य स्थित एक मंदिर का विध्वंस कर वहां एक मस्जिद बनवा दी, कुछ समय रूककर इन लोगों ने इस नवनिर्मित मस्जिद में ईदेअजां पढ़ी। (संदर्भ : ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान,’ भाग-1)

कन्नौज के हिंदू शासक ने चटाई धूल

इसके पश्चात ये लोग कन्नौज पहुंचे। कन्नौज का शासक भी हिंदू था। इसलिए इस हिंदू शासक को भी सुल्तान के अत्याचारों का सामना करना पड़ा। सुल्तान अपनी पिछली पराजय का शूल कन्नौज में आकर निकाल लेने में ही अपनी भलाई समझ रहा था। अत: उसने खीझ मिटाने के लिए कन्नौज पर आक्रमण कर दिया। यहां घमासान युद्घ हुआ, हिन्दुओं को भयानक क्रूरता और अत्याचारों का सामना करना पड़ा। यह घटना मिनहाज ने फरवरी 1248 ई. की बतायी है। भयंकर रक्तपात और जनहानि के उपरांत भी कन्नौज के हिंदू राजा को सुल्तान झुका नही पाया। इसलिए पी.एन.ओक महोदय ने तो इस युद्घ के विषय में यह स्थापित किया है कि मुस्लिम सेना हार कर शान से भाग गयी।

पी.एन. ओक महोदय की इस मान्यता का कारण ये है कि मिनहाज ने नंदन के राजा के द्वारा कुछ शर्तों पर समर्पण संधि की बात लिखी है। अत: स्पष्ट है कि राजा ने अपनी शर्तों  पर सुल्तान से संधि की। सुल्तान को कुछ लिया दिया नही गया और ना ही इस बात का कोई प्रमाण है कि इस युद्घ के पश्चात कन्नौज और नंदन पर सुल्तान का अधिकार स्थापित हो गया था।

जब सुल्तान और उलुघ खां बदायूं और संभल में पहुंचे, तो उनके वहां पहुंचने के विषय में पी.एन. ओक महोदय हमें बताते हैं कि हिंदुओं ने उसकी पीठ पर डण्डा बरसाने आरंभ कर दिये। सुल्तान इस मार और प्रहार से इतना भयभीत हो गया कि उसे (संदर्भ : इलियट एण्ड डाउसन, ग्रंथ-2, पृष्ठ 347) हताश और आतंकित होकर अपनी राजधानी के लिए भागना पड़ गया था। प्रचलित इतिहास में हिन्दुओं की इस विजय वीरता और वैभव की कहानी को पता नही कब स्थान मिलेगा।

क्रमश:

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