सच्चे कर्म-योगी संत थे सोहन सिंह जी

विनोद बंसल

आज के जमाने में यह बात बडी काल्पनिक सी लगती है कि जब कोई कहे कि एक व्यक्ति जिसने अपने जीवन के 92 वर्ष देश को समर्पित कर दिए और आजीवन न शादी की, न अपना घर बनाया, न ग़ाडी, न पैसा जोडा, न कोई बैंक खाता खोला किन्तु अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए भी देश भक्तों की एक बडी फ़ौज तैयार कर दी। गत चार जुलाई को उनके निधन के बाद ज्ञात हुआ कि उनकी व्यक्तिगत भौतिक पूंजी के नाम पर उनके कक्ष से मिला सिफऱ् एक थैला और उसमें रखे दो जोडी पहनने के वस्त्र। 1943 से लगातार 72 वर्षों तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के रूप में देश भर में भ्रमण कर जन-जन के हृदय में पैठ बिठाने वाले श्री सोहन सिंह जी के बारे में कुछ विस्तृत जानने की उत्कंठावश, उनके निधन का समाचार पाते ही, जब पांच जुलाई को सुबह मैंने गूगल किया तो हत् प्रभ रह गया। आजीवन समाज से जुडे रहे संघ के इतने वरिष्ठ प्रचारक के बारे में न कोई समाचार था न उनका कोई बयान ही। बाद में ध्यान में आया कि आखिर नींव की ईंट भी क्या कभी किसी ने देखी है!

18 अक्टूबर, 1923 को जिला- बुलंदशहर (उ प्र) के ग्राम हर्चना में जन्मे श्री सोहन सिंह अपने तीन भाई और तीन बहनों में सबसे छोटे थे। यूं तो 1942 में बी एस सी अंतिम वर्ष की परीक्षा देने के बाद उनका चयन भारतीय वायु सेना में अधिकारी के पद पर हो गया था, लेकिन देश भक्ति से ओतप्रोत व्यक्ति भला अंग्रेजों की गुलामी कैसे स्वीकारता। राष्ट्र सेवा का प्रण लेकर 1943 में संघ के प्रचारक बन 1948 तक वे करनाल, रोहतक, झज्जर और अंबाला छावनी में तहसील प्रचारक रहे। 1949 से 1956 तक करनाल जिला प्रचारक, 1957 से 1963 तक हरियाणा संभाग प्रचारक, 1963 से 1970 तक दिल्ली संभाग प्रचारक, 1970 से 1973 तक पुन: हरियाणा संभाग प्रचारक, 1973 से 1977 तक जयपुर विभाग प्रचारक और 1977 से 1987 तक राजस्थान (संयुक्त) प्रांत प्रचारक रहे। 1987 से 1996 तक उन्होंने उत्तर क्षेत्र के सह क्षेत्र प्रचारक का दायित्व निभाया। 1996 से 2000 तक उन्होंने संघ के अखिल भारतीय धर्म जागरण और 2000 से 2004 तक उत्तर क्षेत्र के प्रचारक प्रमुख के दायित्व का निर्वहन किया।

बात 1981 या 1982 की है बीमारी के कारण उनका शरीर तो पूरी तरह साथ नहीं देता था किन्तु फिऱ भी वे उससे सारा काम निकाल लेते थे। मैं गया तो बीमारी की दशा में संघ कार्यालय मे रहकर उनकी सेवा के लिए था किन्तु देखता कि वे तो अपना सारा कार्य स्वयं ही कर लेते थे। और स्वयं से ज्यादा वे मेरा ध्यान रखते थे कि मैंने कुछ खाया कि नहीं इत्यादि। मैं पूछता रहता कि क्या काम करना है और वे मौन ही मौन मुस्कराते हुए मुझे बैठने या पढने को कह देते। धीरे धीरे मुझे जब उनकी आवश्यकताओं का ज्ञान हुआ, उनकी कार्य पद्धति समझ आई और मैं अग्रसर होकर उनके दैनिक कार्य में हाथ बंटाने लगा, तभी, मैं उनकी छोटी-मोटी सेवा में सह-भागी बन सका। किन्तु, उन्होंने अपने आप कभी नहीं कहा कि मेरा अमुख कार्य कर दो। किसी भी कमरे से बाहर निकलने से पूर्व उस कक्ष की बत्ती बंद करना, पानी का नल हो या गरम पानी का गीजर, छत पर लगा पंखा हो या कूलर मैने कभी आधे मिनट के लिए भी बेकार चलते नहीं देखे। उन्होंने मुझे एक बार बुला कर कहा कि विनोद! देखो स्नानागार का नल खुला है। मैं था तो स्नानागार के पास ही किन्तु मैं दंग था कि आखिर ये आवाज मुझे लांघ कर इन तक कैसे पहुंच गई। मुझे पता न चल सका और ये हैं कि अपनी परेशानी को भूल, पानी की चिन्ता करने लगे।   एक दिन भोजनालय में सुबह के अल्पाहार में नमकीन रोटी बनीं थीं जो बहुत ही स्वादिष्ट लगीं। पूछने पर महाराज (रसोईया) ने बताया कि इन्हें रात्रि की बची रोटियों को फ्ऱाई कर के बनाया गया है, मैं हत प्रभ रह गया। महाराज जी ने आगे बताया कि माननीय सोहन सिंह जी का कहना है कि देश में करोडों लोग है जिन्हें एक बार का खाना भी नहीं मिल पाता अत: अन्न का एक एक कण सदुपयोग करना चाहिए। इन छोटी-छोटी बातों ने मेरे बाल जीवन को गढ़ने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि उसके बाद मुझे सिफऱ् दो-तीन बार उनके दर्शन ही हो पाए किन्तु आज जब भी कभी मन विचलित होता है तो लगता है कि माननीय सोहन सिंह जी की थाप मेरी पीठ पर पडने वाली है, और मैं उठ खडा हो जाता हूं। यह थाप ठीक उसी तरह थी जिस प्रकार कुम्हार घडे पर मार-मार कर उसे श्रेष्ठ बनाता है। उनकी सेवार्थ जाने से पूर्व अनेक स्वयं सेवकों ने मुझे आगाह किया कि बच के रहना! सोहन सिंह जी बडे कठोर अनुशासन को मानने वाले हैं, बात-बात पर गुस्सा हो जाते हैं और डांटते बहुत हैं। किन्तु मुझे उनके साथ एक माह तक चौबीसों घंटों साथ रहने के दौरान कुछ भी अप्रिय नहीं लगा। हां, अनुशासन का पालन वे जरूर कठोरता से करते थे किन्तु, वह भी अधिकांशत अपने लिए।

इनके अलावा समय पालन, ध्येय निष्ठा, अपने प्रति कठोर किन्तु औरों के प्रति बेहद सरल व्यवहार, कार्यकर्ता की आवश्यकताओं और उनकी घरेलू परिस्थितियों का बारीकी से अध्ययन, प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने का साहस, सदैव हंसते हंसाते रहना चेहरे की सौम्यता और प्रखर तेज जीवन भर भुलाया नहीं जा सकेगा। दिव्य आभा मण्डल के धनी देश के इस सच्चे कर्म-योगी संत को शत् शत् नमन।

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